मैं, मैसेज और तज़ीन - 5 Pradeep Shrivastava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मैं, मैसेज और तज़ीन - 5

मैं, मैसेज और तज़ीन

- प्रदीप श्रीवास्तव

भाग -5

मेरे सामने जितनी बड़ी समस्या थी बात करने की उतनी ही बड़ी समस्या थी मोबाइल को चार्ज रखने की। जब तक बात करती चार्जिंग में लगाए ही रहती थी। मेरे लिए केवल एक बात अच्छी थी कि मेरे दोनों भाई-बहन सोने में बड़े उस्ताद हैं। घोड़ा बेचकर सोते हैं। सुबह उठाने पर ही उठते हैं। मैं इसका फायदा उठाती थी।

चैटिंग का यह सिलसिला चल निकला। रात ग्यारह से तीन साढ़े तीन बजे तक बात करती थी। कॉलेज जाती तो भी चैटिंग के लिए वक़्त निकाल लेती। मेरी पढ़ाई-लिखाई यह चैटिंग चट करने लगी। नमिता-काव्या और मैं अब और करीब आ गई थीं। तीनों चैटिंग में हुई बातों को शेयर भी करते। कब एक महीना बीत गया पता नहीं चला। तज़ीन से पैसा भी ले आई। जो मात्र दो हज़ार था क्योंकि बाकी सारे पैसे उसने मोबाइल और आई.डी. देने के नाम पर रख लिए थे। तज़ीन भी अपने आप में कम से कम मेरे लिए अजूबा ही थी।

उसके मां-बाप और बाकी के भाई-बहन ट्रांसफर होने के कारण लखीमपुर में रहते थे। वह बी.एस.सी. कर रही थी साथ ही किसी प्राइवेट इंस्टीट्यूट में विजुवल इफेक्ट्स का भी कोई कोर्स कर रही थी। पढ़ाई, कॅरियर के चलते मां-बाप ने लखनऊ में उसे पहले मौसी के यहां रखा था। मगर महीने भर बाद ही वह चौक की तंग गलियों में मौसी का मकान छोड़कर हॉस्टल में रहने लगी। फादर टेªड टैक्स विभाग में थे, पैसे की कमी नहीं थी, ऊपर की कमाई खूब थी लेकिन उनके पास वक़्त की कमी ही कमी थी।

तज़ीन मौसी के घर सख्त पाबंदियों के चलते महीने भर में त्रस्त हो गई थी। हॉस्टल में रहने की बात जब उसने अब्बू-अम्मी से की थी तो पहले तो वह बिल्कुल तैयार नहीं हुए। लेकिन जब उसने अम्मी को मौसेरे भाई की हरकतों के बारे में बताया कि कैसे वह उसके साथ गलत हरकतें करता है। मौका मिलते ही छेड़-छाड़ से बाज नहीं आता तो अम्मी ने अब्बू को भी तैयार कर लिया था कि तज़ीन हॉस्टल में अकेले रहे। उससे हम तीनों महीने में दो-चार बार ही मिलते थे। उसने ऐसी तमाम आई.डी. देकर अपनी इंकम का बढ़िया जरिया बना रखा था। हालांकि घर से उसके पास काफी पैसा आता था लेकिन उसकी शाहखर्ची के आगे वह कम ही पड़ते थे।

मुझे जब पहली रकम मिली तो उसे मैं खर्च कैसे करूं मेरे लिए यह बात भी बड़ी चिंता का कारण बन गई। किसी तरह की कोई आदत थी नहीं। घर के लिए कुछ करूं तो हिसाब कहां से दूंगी कि पैसा कहां से आया। बार-बार मेरा मन मां का चश्मा बनवाने, भाई के लिए अच्छी ड्रेस लेने तो कभी पापा के लिए एक अच्छा जूता लाने का करता। बेचारे बहुत दिन से घिस चुका जूता पहन कर जा रहे था। फिर छोटी बहन की टूटी चप्पलें याद आतीं जिसे वह बार-बार क्विकफिक्स से जोड़-जोड़ कर पहन रही थी। यह सोचते-सोचते दो दिन निकल गए। डेढ़ सौ रुपए नमिता-काव्या को ट्रीट देने में निकल गए। तीसरे दिन कॉलेज पहुंचते-पहुँचते मेरे दिमाग में एक योजना आई। मैंने सोचा आज ही इस योजना को अमल में भी लाना है। क्योंकि घर में तभी कुछ कर पाऊंगी अन्यथा नहीं। इसके लिए मैंने एक बार फिर से नमिता-काव्या को साजिश में शामिल कर लिया।

उस दिन घर पर मां से कहा ‘मां मेरी एक सहेली अपने घर पर कई बच्चों को ट्युशन देती है। वो कह रही थी कि मेरी मैथ, साइंस, इंग्लिश ठीक है। मैं भी पढ़ा दूं तो पैसा मिलेगा। कॉलेज से सीधे वहीं जाऊंगी पढ़ाकर तब घर आऊंगी। इससे आने-जाने का समय, किराए के पैसे भी बच जाएंगे। मां ने छूटते ही मना कर दिया। लेकिन मैंने बहुत समझाया, एक तरह से जिद पर अड़ गई तब बड़ी मुश्किल से दबे मन से मां ने हां की। मगर एक महीना तो और इंतजार करना ही था। पैसा तुरंत तो मिलता नहीं। ट्युशन पढ़ाने के एक महिने बाद मिलता है। इसलिए कुछ रुपए अपने पास रखकर बाकी करीब डेढ़ हज़ार मैंने एक किताब में रख कर छिपा दिए। मगर मैं अपने को दो हफ्ते से ज़्यादा न रोक पाई।

किताब से पैसे निकाल कर अपने एवं छोटी बहन के लिए चप्पलें लेती आई। भाई की कुछ किताबें बाकी थीं वह भी लेती आई। मां को समझा दिया कि सहेली से ले लिया है, दो हफ्ते बाद ट्यूशन के पैसे मिलेंगे तब वापस कर दूंगी। पहले तो मां खूब भुन-भुनाई, फिर मान गई। मगर रात ही उन्होंने पापा को बता दिया। सवेरे पापा ने पुछताछ शुरू कर दी। डरते-घबराते मैंने काव्या से बात करा के उन्हें संतुष्ट कर दिया कि काव्या के घर पर उसी के साथ ट्यूशन पढ़ाती हूं। साजिश में शामिल काव्या ने अपना रोल बखूबी निभाया। अब मैं निश्चिंत हो कर चैटिंग में लग गई। अगले महीने मैं मां का चश्मा, पापा के लिए जूता, घर का और काफी सामान ले आई। सब खुश थे। मां-पापा के मन में कहीं फिर भी हिचक थी। मगर यह सिलसिला चल निकला। लेकिन तीन महीने बाद ही समस्या उस समय खड़ी हो गई जब एक दिन मां ने छत पर मोबाइल पर चैट करते हुए पकड़ लिया। मैंने फिर झूठ बोला कि ट्यूशन का ही पैसा बचा कर खरीदा है।

मां को चैटिंग-फैटिंग के बारे में पता नहीं था। उनके हाथ पैर जोड़ कर मैंने मना लिया कि वे पापा को नही बताएंगी। चैटिंग फिर चलती रही। और इसके सहारे घर की घिसटती गाड़ी थोड़ा आराम से आगे बढ़ने लगी। सात-आठ महीने आराम से निकल गए। मेरे मोबाइल पर भाई-बहन की नज़र न रहे इसलिए मैंने एक और मोबाइल लेकर मां को दे दिया था। यह कहते हुए कि यह हमेशा घर पर ही रहेगा। जिससे घर के सभी लोग संपर्क में रहें। मैं जानती थी कि दे तो रही हूं मां को लेकिन यह रहेगा भाई-बहन के ही हाथों में । इससे दोनों उसी में लगे रहेंगे। मां को देने का सिर्फ़ एक ही फायदा था, एक ही उद्देश्य कि इससे भाई-बहन के हाथ में मोबाइल रहेगा तो ज़रूर लेकिन वो बाहर लेकर कम जाएंगे।

इन सात-आठ महीनों में चैटिंग के चलते घर की स्थिति में भले ही थोड़ा बहुत फ़र्क पड़ा या कुछ ज़्यादा। मगर मेरी ज़िन्दगी , मेरी शारीरिक स्थिति, मेरी मानसिक स्थिति और मुख्य रूप से पढ़ाई पर खूब फर्क पड़ा। इस दुनिया में शामिल होकर ही यह जान पाई कि इसका असर नमिता-काव्या पर कैसा पड़ा है। चैटिंग में होने वाली बातों ने मुझे उम्र से बहुत पहले ही बड़ा, परिपक्व बना दिया। शारीरिक संबंधों के बारे में इतना कुछ जान समझ चुकी थी जो सामान्यतः अगले कई वर्षों में जान पाती। हालांकि इनमें से अधिकांश बातें सेक्सुअल रूप से एक से एक भ्रमित, अतृप्त विकृति सोच वाले अधिकांश ओछे लोगों की ही थीं।

मेरी दिनचर्या पूरी तरह से बिगड़ चुकी थी। इन बातों के कारण रोज ही मैं कई-कई बार बेहद उत्तेजित होती। यह उत्तेजना सोने से पहले अपने तन के साथ अत्याचार पर ही खत्म होती थी। चैटिंग के दौरान भी तन के साथ अत्याचार हो ही जाता था। मैं चैटिंग नहीं कर रही होती तो भी यह कामुक बातें दिमाग में उथल-पुथल मचाए ही रहतीं थीं। आठ-नौ महीने में ही मैंने ऐसा महसूस किया कि मेरा शरीर कई जगह बड़ी तेजी से भर गया है। जिन्हें देखकर मैं खुश होती कि मैं कितनी सुन्दर हो गई हूं। एक और बात जो बहुत ज़्यादा विचलित करने लगी थी वह यह कि मेरा मन अब किसी लड़के का साथ पाने के लिए मचल उठता। किसी लड़के को अपनी ओर देखता पाकर मैं बड़ी देर तक तनाव से भर उठती। इस स्थिति से एक बार बर्बाद होते-होते बची। भगवान ने दलदल में फंसने से आखिरी समय में बचा लिया था।

हुआ यह था कि चैटिंग में एक ऐसा आदमी मिला जो करीब-करीब रोज ही एक बजे रात में बात करता। मुझसे रोज कहता कि इस टाइम मुझसे बात करने के लिए अपनी आई.डी. फ्री रखा करो। शुरू में उसने खूब शालीनता से बात की। फिर प्यार जताने लगा। मुझे लेकर शेरो-शायरी करने लगा। उसके मतलब भी समझाता। सब मेरी तारीफ के पुलिंदे ही होते। फिर जल्दी ही वह मेरे तन की पूरी रूप-रेखा पूछता और उसी पर केंद्रित शेर सुनाता। कुछ दिन बीततेे ही वह मिलने की बात करने लगा। मैं टालती रही। लेकिन आखिर उसकी बातों में आकर एक दिन मिलने की ठान ली और हां कर दी। तब उसने अपना नंबर दिया। उसने मेरा नंबर मांगा तो मैंने कह दिया कि मेरे पास आई.डी. से अलग कोई नंबर नहीं है। वह फ्रेंड के मोबाइल से खुद ही फ़ोन कर लेगी।

मुझे तज़ीन की बात याद आ गई कि कुछ भी करना, कभी कोई बखेड़ा नहीं चाहती हो तो कभी भी किसी साले को अपना कॉन्टेक्ट नंबर या घर का एड्रेस मत देना। मिलने का स्थान लोहिया पार्क, गोमती नगर तय हुआ। उसने अपनी बाइक का नंबर दिया था। जिससे पहचानने में आसानी हो। उस दिन कॉलेज कट कर एक बजे लोहिया पार्क पहुंच गई थी। गेट के ठीक सामने मिलना तय हुआ था। मैं अंदर-अंदर डर रही थी। पूरी सावधानी बरतती हुई रोड की दूसरी तरफ खड़ी हुई थी। वहां चाट, आइसक्रीम, भेलपूरी, चाय के ठेले खड़े थे। सिटी बस के इंतजार में खड़े लोगों के कारण यहां अच्छी-खासी भीड़ हमेशा बनी रहती है। मैं उसी भीड़ के पीछे इस ढंग से खड़ी हुई कि मुझ पर जल्दी उसकी नज़र न पड़े। वहां गेट के पास कई बाइक पर लोगों को देखा। मैं जहां खड़ी थी वहां से उन बाइक्स के नंबर नहीं देख सकती थी। इनमें वो कौन है यह जानने के लिए उसके नंबर पर रिंग किया। मैं एक कान में ईयर-फ़ोन लगाए हुए थी। मोबाइल हाथ में पकड़े दुपट्टे से ढके हुए थी। कॉलेज ड्रेस में थी। रिंग होते ही उन बाइक सवारों में से एक ने हेलमेट उतारा और जेब से मोबाइल निकाल कर हैलो बोला।

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