फ़लक तक चल... साथ मेरे !
4.
सुलक्षणा मामी के शब्द दिन रात उसके कानों में गूंजते। सिर्फ बचपन ही नहीं सच में इन लोगों ने उसका समूचा वजूद ही हर लिया था। वह दिन रात यंत्रवत काम करती ,सास और जेठानियों के ताने उलाहने सुनती और रात भर अपने इस स्वामी की इच्छाओं के आगे बिना किसी प्रतिरोध सर्वस्व हारती जाती। वनिता द्वारा हार स्वीकार लेने पर भी वह क्यों जीत के लिए इतनी जद्दोजहद करता है वनिता समझने में खुद को असमर्थ पाती। यूं भी कुछ समझने महसूस करने को न उसके पास दिल बचा था न दिमाग।
चांद निकले दो घंटे बीत चुके थे। मनोज का कहीं कुछ पता नहीं था। उसकी सास और भाभियां व्रत खोल कर सोने की तैयारी में थी। वनिता ने एक बार फिर छत पर जा चांद को देखा ।
‘व्रत में कोई कमी रह गई क्या’, उसने चांद से पूछा।
उसने दिया जलाया, अकेले ही चांद को अर्ध्य दिया, परिक्रमा की, हाथ जोड़ पति की लंबी और अपनी कम आयु की प्रार्थना की।
आंखें खुली तो सामने आभास खड़ा था।
‘तुम?’
‘सच्चे मन से जो पूजा की तुमने’, वह फुसफुसाया।
आभास के कोमल शब्द आत्मा को भी आह्लादित कर गए। आभास ने थाली में से बर्फी उठा वनिता को खिलाई, लोटे का जल पिलाया और उसका हाथ पकड़ नीचे ले आया। वनिता मंत्रमुग्ध सी देखती रही। वह भूल गई कि यह ससुराल है। वह भूल गई कि आभास से उसका रिश्ता तन का नहीं मन का है। उसने झुककर आभास के पैर छू लिए। आभास उसे बांहों में भर रसोई में ले आया। वनिता ने उत्साह से कड़ाही में तेल गर्म कर पूरियां उतारी...थाली लगाई और आभास के सामने रखी।
‘तुम भी आओ’, आभास ने कहा।
‘नहीं, मैं तुम्हें देखूंगी... अभी तुम खाओ’, वह आभास के सामने बैठ गई।
आभास ने कौर तोड़ा उसके मुंह में दिया, और इसी समय वनिता की सास पानी लेने रसोई में दाखिल हुई। उन्होंने हाथ मार कर खाने की थाली गिरा दी।
‘कुलक्षणी !’, सास चिल्लाई।
अब तक मनोज घर लौट आया था। उसने जो देखा उसका खून खौल गया। कुछ शराब का नशा, कुछ मां का बढ़ावा। उसने कुर्सी में लात मारी। फिर दो-तीन लातें जमीन पर औंधी पड़ी वनिता में भी।
"सब्र ही नहीं तो ढकोसला क्यों करती है व्रत का…. ",आगे की गालियां सुनने से पहले वनिता चेतना खो चुकी थी। आधी रात बीती...उसकी मूर्छा टूटी। घुप्प अंधेरा। दर्द की लहर दुगने वेग से पूरे शरीर में दौड़ गई। सिर छुआ तो महसूस हुआ कि निकला हुआ खून सूख कर थक्का बन गया था।
आभास? क्या उसे भी ?... उसने याद करने की कोशिश की। लेकिन कुछ याद आया तो बस मनोज की बलशाली लातें। वह पुनः लेट गई लेकिन आती हुई उबकाई से उठना पड़ा। मुंह धोते हुए उसे लगा जैसे वह खड़ी है और ब्रह्मांड घूम रहा है। बाथरूम के रोशनदान से बाहर सड़क के लैंप की एक पीली रेखा अंदर आ रही थी। वनिता को लगा शायद यह एक दैवीय संकेत है। उसने साड़ी के पल्ले से मुंह पोंछा और बिना कोई लाइट जलाए, दरवाजा खोल बाहर आ गई। सड़क के कुत्ते एकबारगी चौंके… लेकिन वनिता को देख पुनः निश्चिंत हो सो गए। कई रोशनी और आवाजों के दैवीय योग बने और अब वनिता रेलवे लाइन के पास खड़ी थी। दूर से आती हुई ट्रेन की रोशनी दिखाई दे रही थी। वनिता ने एकबारगी सुलक्षणा मामी के बारे में सोचा... मेरठ ...मेरठ चल वनिता, उसने खुद से कहा, पर तभी मेरठ से सुलक्षणा मामी ने अपनी अभी तक सहेजी हुई पूरी ताकत का इस्तेमाल कर चिल्लाया... यहां आने की तो सोचना भी मत!
वनिता ने दूसरा कदम आगे बढ़ाया और पटरी पर लेट गई।
‘वनिता... नहीं ….’, आभास का क्षीण स्वर कहीं पास ही से आया। वह पैर घसीट कर चल रहा था चेहरा सूजा था।
‘उठो’, उसने हाथ बढ़ाया।
‘अब जान ही नहीं…’, वनिता ने कहा। इंजन की तेज रोशनी उन दोनों पर पड़ी। अगले ही पल आभास भी उसके साथ लेटा था… उसके बिल्कुल नजदीक। वनिता ने अपनी पूरी ताकत समेट उसकी ओर करवट ले, अपना सिर उसके कांधे पर टिका दिया। उन दोनों को क्षत-विक्षत कर ट्रेन गुजर चुकी थी।
अगले दिन अखबार में खबर छपी थी-
'एक महिला ने ट्रेन के नीचे कटकर जान दी', जिसे पढ़ कर देश के अलग-अलग कोनों में अलग-अलग समुदाय की रमणी, कामिनी, कांता, प्रज्ञा, कात्यायनी और प्रजाता आदि ने एक साथ सोचा कि सुखद स्वप्निल अनुभूतियों के आभास के भी मर जाने पर भला कोई स्त्री किसके सहारे जिंदा रहे?
मेरे विषय में:
गाजियाबाद (उत्तर प्रदेश) में जन्म. वर्तमान में चिकित्सक के रूप में झांसी (उत्तर प्रदेश) कार्यरत
"लमही","कथाक्रम","पाखी","परिकथा","दोआबा","ककसाड़" आदि पत्रिकाओं में कहानियों का प्रकाशन . आकाशवाणी छतरपुर व भोपाल से कहानियों का प्रसारण
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Dr Nidhi Agarwal
w/o Dr Vikram Agarwal
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