फ़लक तक चल... साथ मेरे ! - 2 Nidhi Agrawal द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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फ़लक तक चल... साथ मेरे ! - 2

फ़लक तक चल... साथ मेरे !

2.


इस बार कड़ाके की ठंड है ! इतनी ठंड कि नानी के प्रत्यक्ष रूप से दिखते सुघड़ शरीर के विपरीत उनकी कोमल हड्डियां इस ठंड को बर्दाश्त नहीं कर पाएंगी, ऐसा पहले ही लग गया था। कल रात सोई तो सुबह उठी ही नहीं। रात में कब उन्होंने प्राण त्याग दिए, कोई नहीं जानता, न जानना ही चाहता है। केवल वनिता के शरीर में सिहरन-सी दौड़ जाती है यह सोचकर कि रात भर वह एक मृत देह के साथ बगल की चारपाई पर सो रही थी। भूत-प्रेत के कितने किस्से उसने गांव में सुने हैं। शहर में भी तो लोग बातें किया ही करते हैं। कहीं नानी का भूत उसके अंदर प्रवेश कर गया तो ?... लेकिन वह तो किसी से अपना डर साझा भी नहीं कर सकती। अभी दूर-दराज के रिश्तेदारों से लेकर आसपास के पड़ोसी...जाने कितने लोग सुबह से आ चुके हैं। क्या उसके मरने पर भी इतने ही लोग आएंगे, वनिता ने सोचा।

काश वह देख पाती... जान पाती कि उसके न रहने की खबर जिंदगी की भाग-दौड़ में किसी को दो पल के लिए भी रुकने को... सोचने को... आंखें भिगोने को मजबूर करेगी क्या? जिस गाड़ी ने मां-बाबा को कुचला वह उसे भी क्यों नहीं कुचल जाती। अरमानों को कुचलने से बेहतर है जीवन कुचल देना।

“अब चाय दोगी या खड़ी सोचती ही रहोगी?”, सुलक्षणा मामी ने आकर टोका वह चाय की ट्रे उठा मामी के साथ बाहर आ ,मेहमानों को चाय देने लगी। सुलक्षणा मामी अब नानी की फोटो के सामने उदास मुद्रा में बैठ गई।

वनिता हैरान थी यह महसूस करके कि नानी उसके जीवन का भी एक अभिन्न अंग बन चुकी थी। वह भी उनसे मिली पूरी उपेक्षा और बेइज्जती के बावजूद! उनके पैर दबाते हुए… तेल मलते हुए... कहीं कोई मानवीय स्पर्श तो महसूस कर पाती थी वह! उसके कष्टों पर नानी की आंखें भले ही न भीगें लेकिन अपने किसी पसंदीदा कार्यक्रम के प्रिय कलाकार की मौत पर अपना मन वनिता से बात कर हल्का कर लेती थी वह। मामी-मामा और बच्चों के स्कूल और ऑफिस चले जाने पर तो यह खाली घर काटता है। खाली है अभी...या क्या मालूम नानी का भूत यहां घूमता रहता हो। उस चारपाई पर भी बैठते-उठते डर लगता है। नानी कितना बड़ा संरक्षण थी यह रात की घटना ने और पुख्ता कर दिया। रात के खाने के बाद सुलक्षणा मामी ने अध्यादेश जारी कर दिया कि वनिता अब बच्चों के कमरे में नहीं सो सकती उसे बाहर सीढ़ियों के नीचे बनी जगह में बिस्तर लगाना होगा।

“ क्या हुआ सुलक्षणा… भला इतनी ठंड में क्यों? और फिर बाहर सोने की जरूरत ही क्या है?”, मामा ने शायद पहली बार मामी के किसी निर्णय में हस्तक्षेप किया।

“आपको तो ऊंच-नीच की परवाह नहीं है लेकिन मुझे तो हर बात सोचनी है... दोनों लड़कों के साथ इसे नहीं सुला सकती”, उसी सख्ती से बोली मामी।

“बच्चे हैं... दस और बारह साल के”, मामा ने प्रतिवाद किया।

“देखिए, जो भी हो, आप के खानदान के लिए मैं अपने बच्चों को नहीं बिगाड़ सकती। मां थी तो और बात थी। अब तो यह कमरे में नहीं सो सकती”, वह खड़े होकर खाने के बर्तन समेटने लगी जो इस बात का संकेत था कि अब इस विषय पर और बात आवश्यक नहीं।

रात के खाने के बर्तन मांज कर जब वनिता रसोई से बाहर निकली तो उसकी चारपाई बाहर पहुंच चुकी थी। जनवरी की बर्फीली रातों की हवा को लोहे का जंगला रोकने में नाकामयाब था वनिता ने लोहे के जंगले में लटकते बड़े से ताले को देखा और अपने पीछे बंद हो चुके घर के मुख्य दरवाजे को। दो बंद दरवाजों में कैद हो उसकी किस्मत जैसे! कभी यह ताले खुलेंगे क्या? वनिता ने रजाई को अपने चारों ओर लपेट लिया था। तब भी लगता था जैसे पहाड़ों की पूरी बर्फ उसकी रजाई के ऊपर ही पिघल रही हो। अचानक, उसे लगा कि लोहे के जंगले में से एक हाथ उसकी ओर बढ़ रहा है। डर के मारे वनिता की घुग्गी बंध गई। वह अचकचा कर उठ बैठी। आभास ने हाथ से चुप रहने का इशारा किया।

‘तुम! इतनी रात को?’, वह चौंकी।

खुश भी हुई आभास को सामने पा। डर कुछ जाता रहा।

‘मैं हूं यहीं.. तुम सो जाओ आराम से।’

‘इतनी ठंड में ? नहीं, तुम जाओ!’

‘कोई परेशानी नहीं तुम सो जाओ’, आभास ने जंगले में से उसकी सर्द हथेली अपने गर्म हथेलियों में भरते हुए कहा।


वह वहीं जंगले से सटा, उसका हाथ थामे बैठा रहा। हथेलियों की गर्मी पूरे शरीर में फैल ऊष्मा देती रही उसे। सुबह सुलक्षणा मामी ने उसे हमेशा की तरह खींचकर उठाया तो उसने डर कर बाहर देखा... कहीं मामी ने देख तो नहीं लिया? उसका खून जम गया।

“चाय चढ़ा... लेट हो रहा है” मामी ने अपने उसी धीमे और शुष्क स्वर में कहा।


वह चोर नजरों से मामी का चेहरा पढ़ने की कोशिश करती रही लेकिन मामी रोज की तरह ही ऑफिस चली गई।

आज शाम से वनिता का सिर भारी था। आंखें जल रही थी। तेज बुखार था। वह जैसे-तैसे हिम्मत जुटा चपाती सेंक रही थी। यूं भी कोई फायदा नहीं था किसी से कुछ कहने का। खाने के बाद मामी ने एक गोली उसके हाथ में रखते हुए कहा,

“खा ले, सुबह तक उतर जाएगा बुखार”, और दरवाजा बंद कर लिया।

बिस्तर पर लेट वनिता को याद आया कि कितनी ही बार यूं बुखार चढ़ने पर मां उसे अपनी गोदी में लिटा सिर दबाया करती थी। बाबा तलवे सहलाते थे। मधुर स्मृतियों से उसके आंसुओं की धार बह चली। उन्हीं अश्रुपूरित आंखों से उसने आभास को जंगले पर लगा ताला खोल अंदर आते देखा, उसकी अंगुलियों का स्पर्श अपने गालों पर महसूस किया। आभास उसका सिर अपनी गोदी में रख दबाने लगा और रात के किसी पहर वह आभास के आगोश में वैसे ही समा सो गई जैसे मां उसे खुद से सटा लिया करती थी… कभी नींद में डर जाने पर। सुबह उठी तो आभास और बुखार दोनों जा चुके थे।