फ़लक तक चल... साथ मेरे ! - 1 Nidhi Agrawal द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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फ़लक तक चल... साथ मेरे ! - 1

फ़लक तक चल... साथ मेरे !

1

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पर्दों के बीच की झिरी से सूरज की किरणें वनिता के चेहरे पर ऐसे पड़ रही थी जैसे किसी मंच पर प्रमुख किरदार के चेहरे पर स्पॉटलाइट डालकर उसके चेहरे के भावों को उभारा जाए । रूखे बिखरे काले बालों में से कुछ जगह बना झांकते हुये उज्जवल चेहरे पर मुंदी हुई दो बड़ी-बड़ी पलकें बीच-बीच में कुछ हिलती- सी प्रतीत होती और उन गुलाबी अधरों पर एक स्मित तैर जाती।

“वनिता...वनिता... उठ आठ बज गए। कोई बताये भला इस लड़की का क्या होगा?”, यह नानी का स्वर था।


“अब उठ, सौ बार कहा है कि इस उम्र में मुझसे अब इतना नहीं होता । इतनी बड़ी हो गई लेकिन मजाल है कि मदद कर दे...”, नानी का बड़बड़ाना जारी था। इतने में वनिता की मामी सुलक्षणा कमरे में आई। उन्होंने खिड़की पर फैले पर्दों को हटा कर एक किनारे किया और वनिता की चादर खींची। उन्होंने उसे भी खींच कर बिस्तर से नीचे लटका दिया। वनिता गिरते गिरते बची। अचकचा कर उठ खड़ी हुई।

“जा चाय चढ़ा... मैं स्कूल जा रही हूं। बच्चों का टिफिन अच्छे से पैक करियो। कल परांठे बहुत मोटे थे... समझी!”, सुलक्षणा की खासियत है कितना भी कड़वा बोले ,वह आवाज कभी ऊंची नहीं करती, लेकिन वनिता जानती है कि उनके बोलने से उनका ना बोलना सदा उसके लिए अधिक घातक सिद्ध हुआ है।

“तुझ से ही संभलती है... मेरी तो सुनती ही नहीं” ,कहती हुई नानी वनिता के उठने पर खाली हुए बिस्तर पर बैठ अपने पैर दबाने लगी।

दो कमरों के इस घर में यह कमरा दिन में मेहमानों के लिए और रात में बच्चों, नानी और वनिता के हिस्से आता था। यूँ अनीता के हिस्से तो बस एक जंग लगा संदूक था जिसमें उसके चार जोड़ी कपड़े और जरूरत भर का सामान रहता। बाकी घर की हर चीज हर जगह से वह यूं सकुचा कर निकलती, या इस्तेमाल करती कि कभी गलती से भी वह अपने मेहनताने से कुछ ज्यादा न वसूल ले। कभी गहरी सांस लेने पर भी वह डर जाती। लगता कि अब सुलक्षणा मामी बोलेंगी कि वनिता तू जानती है न... कि बिन मां-बाप की लड़कियों का क्या हाल होता है ! वह संगीता... अखबार में फोटो आयी थी तेरे गांव की ही थी न! तुझ पर तरस खा तेरे मां-बाप के मरने के बाद सिर्फ इसलिए ले आई कि लड़की जात है कुछ ऊंच-नीच हो गई तो नाम तो अपने खानदान का ही डूबेगा न। लेकिन यह मतलब तो नहीं कि तू मेरे बच्चों के हिस्से की ऑक्सीजन भी खींच डाले!

वनिता ने बाल बांधे, कुल्ला किया और सीधे रसोई का रुख किया। बच्चों के टिफिन तैयार कर उनके बैग में रखे, दादी के लिए भी चाय-नाश्ता तैयार कर उन्हें कमरे में पकड़ा आई। बच्चों को बस स्टॉप पर छोड़ कर आने की जिम्मेदारी भी वनिता की ही है। बच्चों को छोड़ने आए अन्य लोगों की तरह बच्चों के बस में चढ़ने पर वनिता का हाथ भी ‘बाय’ करने अपने आप ही उठ जाता लेकिन दोनों बच्चे इसे अपनी तौहीन समझ मुँह फेर लेते।

‘हर दिन अपनी बेइज्जती कराना जरूरी है क्या ?’

यह आभास की आवाज थी। वनिता का दिल हुआ दौड़कर उसके गले लग जाए और जी भर कर रो ले। उसको कहे कि तुम जहां ले चलो मैं वहां चलने को तैयार हूं। जैसा रखोगे वैसा रह लूंगी। कम से कम हर पल मिलने वाली इस बेइज्जती से तो मुक्ति दिला दो लेकिन वह बस कातर दृष्टि से एकबारगी उसकी ओर देखती है और सधे हुए कदमों से वापस घर लौटने लगती है।

आभास उसके साथ साथ चल रहा है उसके चेहरे से लगता है कि वनिता से अधिक वह आहत है। अब यह रोज का नियम है। आभास कुछ नहीं कहता... बस चलता रहता है। उससे कुछ दूरी बना, लेकिन साथ-साथ। घर पहुंच कर वनिता ने एक बार पलट कर आभास को देखा। उसने आंखों से ही उसे आश्वस्त किया। वनिता जानती है कि वह रसोई की खिड़की पर जरूर मिलेगा। बाहर के कमरे में ही नानी बैठी टीवी देख रही है...कोई धार्मिक प्रवचन!

“नानी क्या बनाना है?”, वनिता ने पूछा।

नानी ने मुंह पर अंगुली रख चुप रहने का इशारा किया और टीवी के नीचे स्टूल पर रखी तेल की शीशी से पैरों की मालिश करने के लिए भी। वनिता का मन रसोई में पड़ा है। नानी के घुटने मलते-मलते सोच रही है कि क्या आभास अभी भी रुका होगा? अचानक उसे लगा जैसे रसोई की ओर खुलने वाले दरवाजे की ओर से झांककर आभास उसकी बेचैनी पर हंस रहा हो। वह डर गई। कहीं नानी ने देख लिया तो! वह उठ खड़ी हुई।

“नानी...कपड़े धो लूं क्या पहले? ठंड के दिन हैं, सूख नहीं पाते फिर...”, कहा वनिता ने।

“हां-हां, तू जा यहां से”, नानी उसे कुछ धकेलती-सी बोली। सुलक्षणा मामी बिल्कुल सही कहती है कि बिन मां-बाप की लड़की की जिंदगी वनिता से अधिक भला कौन समझता है।


“बाहर आंगन में धोइयो कपड़े... नहीं तो नल की आवाज में टीवी और नहीं सुनता”, उन्होंने फरमान भी सुना दिया था।

“ठीक है नानी”, कह वनिता ने सब कपड़े और साबुन-बाल्टी बाहर ले जाने के लिए उठा लिए। यूं भी तीन गुणा तीन फीट के छोटे से बाथरूम की अपेक्षा यहां खुले आंगन में कपड़े धोना उसे अधिक भाता था लेकिन सुलक्षणा मामी को इस पर सख्त ऐतराज़ था। वनिता ने कपड़े धोने शुरू किए। चार बड़े और दो बच्चों के इस परिवार में न जाने कहां से रोज एक कपड़ों का पहाड़ तैयार हो जाता था। चार बड़े और दो बच्चे.... वह खुद पर ही हंस पड़ी! मां-बाप की सड़क हादसे में मृत्यु के साथ ही वह अचानक से बड़ी होकर वयस्कों में शामिल जो हो गई थी। जहां मां ने कभी उस से पानी का एक गिलास नहीं भरवाया था वहीं इस घर में आते ही पहले ही दिन उसे हैंडपंप की लाइन में लगा दिया गया। वह तो शुक्र हो सरकार का कि इस साल हर घर में पानी की पाइप लाइन बिछा दी गई है, और उसकी जिंदगी थोड़ी तो आसान हो गई थी ।

“ले मेरी यह साड़ी भी धो दे, ज्यादा सा नीला साबुन लगा दियो...”, अचानक आई नानी की आवाज से वह चौंकी, नल बंद कर खड़ी हुई, साड़ी पकड़ने के लिए ।

“अरे, जल्दी कर... शुरू हो गया प्रवचन”, नानी एक भी लाइन नहीं छोड़ना चाहती। क्या पता उसी लाइन में महाराज स्वर्ग की राह बता दें। हड़बड़ी में वनिता का पैर गीले साबुन पर पड़ गया और फिसल कर गिर गई वह। कपड़े धोने के लिए घोला गया सर्फ का पानी भी गिरा और लोहे की बाल्टी का हैंडल उसके हाथ में आ लगा। इस घटनाक्रम में उसका सिर नल से जा टकराया।

“हे भगवान! पहाड़ सी बड़ी होती जा रही है पर एक काम सही नहीं होता इससे...अब सुलक्षणा अलग चिल्लाएगी इतनी बर्बादी देख! मर यहीं ...मैं क्या- क्या करूं”, साड़ी वहीं फेंक नानी वापस टीवी के सामने जा बैठी!

वनिता की आंखों के सामने एकबारगी पूरा ब्रह्मांड घूम गया। ऐसा लगा कि जैसे पूरे शरीर का खून उसके मुंह में भर गया हो। पीड़ा के इन आंसुओं को रोकने की क्षमता सत्रह साल की इस निर्बल लड़की में नहीं थी। प्रबल वेग से बहते आंसू पहाड़ गलाने लगे….. एक पहाड़ जो कपड़ो का था…. एक पहाड़ बर्तनों का… एक पहाड़ जो उसके सीने पर रखा था… एक पहाड़ जो नानी को दिखता था… एक पहाड़ जिंदगी का जो उसके आगे था… इन दुर्गम पहाड़ों के समक्ष उसके आंसूओं का कोई अस्तित्व था क्या?

आभास जो अभी तक दूर खड़ा सब देख रहा था,अब बिलकुल नजदीक चला आया। वनिता को उठाकर पटरे पर बिठाया... नल खोल मग में पानी भर उसे कुल्ला करने के लिए कहा।

“आभास..... !!”,

वनिता ने कहा और न चाहते हुए भी उसके आंसू बह निकले। एक भय ने दस्तक दी,'दादी ने सुन लिया तो?' होठों को भींच उसने सिसकने की आवाज रोक ली।

‘मैं मर क्यों नहीं जाती?’, दोनों हाथों से सिर पर निकल आये गुमट को दबाते हुए वह बुदबुदाई।

‘फिर मेरा क्या होगा?’, आभास ने कोमलता से कहा और उसका हाथ हटा स्वयं उसका सिर दबाने लगा। एक अदम्य हिलोर उठी और वनिता ने चाहा कि आभास उसे अपने आगोश में भर ले, वैसे ही जैसे बाबा भर लिया करते थे मां के डांटने पर!

‘पड़े रहने दो यह कपड़े…. जाओ, हाथ-मुंह धो सूखे कपड़े पहन लो। बीमार हो जाओगी’, आभास के स्वर में अपनापन था।

‘मामी गुस्सा होगी... धोने तो होंगे ही !’, वनिता ने बात रखी.

‘हम्म... तब भी, बदल तो आओ ही’, आभास ने उसे सहारा दे कर उठाया।

वनिता कपड़े बदल कर आई। पोर-पोर दु:ख रहा था। तब तक आभास ने वाइपर से साबुन का पानी हटा दिया था और टब में कपड़े भिगोने के लिए डाल दिए थे। बहुत कहने पर भी वह गया नहीं। वनिता का दिल जोरों से धड़कता रहा। किसी ने देख लिया तो?

‘ध्यान रखना अपना’, उसके हाथ पर उभर आई सूजन को सहलाते हुए आभास ने कहा। वह दोनों उस वक्त चुंबक के विपरीत ध्रुवों के समान खिंचाव महसूस कर रहे थे।

‘एक चाय तो बना ही लेना अपने लिए, और भी सब काम करोगी ही न’, आभास ने कहा।


वनिता के आंसू बह चले। यही वह पल था जब समाज की सभी लक्ष्मण रेखायें मानो एक साथ मिट गई ।आभास की बांहों में एक अबोध बालक-सी वह सिसकती रही।

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