गवाक्ष
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वे बात करते-करते जैसे बार-बार अपने वर्तमान से भूत में प्रवेश कर जाते थे । अपने क्षेत्र में प्रवेशकर उन्होंने राजनीति की वास्तविकता को समझा था । समाज के लिए कुछ व्यवहारिक कार्य करने का उनका उत्साह इस क्षेत्र में प्रवेश करने के पश्चात कुछ ही दिनों में फीका पड़ गया था । उन्होंने राजनीति को पवित्र कार्य-स्थल माना था । अपनी पत्नी स्वाति से चर्चा करने पर उन्हें यह समझ में आया था कि यदि मनुष्य वास्तव में सेवा करना चाहे तो राजनीति जैसा क्षेत्र और कोई हो ही नहीं सकता । समाज से जुड़ना, सभी लोगों की समस्याओं को जानना और उनके लिए समाधान देने का प्रयत्न संतुष्टि-प्रदायक होता है।
"राजनीति एक पवित्र कार्य -क्षेत्र है जो हमारी कार्य-क्षमता को उन्नत करता है, विविधता को बढ़ावा देता है। संपर्क के माध्यम से हमें प्रगति की ओर अग्रसर करता है । राजनीति हमें आत्म-केंद्रित होना सिखाती है, वास्तव में राजनीति वैराग्य की भावना का मंच है । स्वीकारोक्ति की क्षमता देकर यह हमारी सहनशक्ति बढ़ाती है। "स्वाति कुछ इस प्रकार से अपनी बात प्रस्तुत करती थी कि उसकी बात गलत नहीं लगती थी वरन चिंतन के लिए एक मंच प्रदान करती थी ।
इस अजनबी से बात करते हुए उनकी आँखें भीग गईं ; स्व.पत्नी के साथ किए गए संवाद स्मृति-पटल पर आकर टहोके मारने लगे |
"मुझे तो आज की राजनीति एक खेल लगती है और तुम राजनीति में दर्शन खोजती हो ---" सत्यव्रत पत्नी से चुहल करते ।
" हाँ, सत्य ---आप ठीक कह रहे हैं। लेकिन राजनीति ही क्या जीवन मंच पर खेल नहीं करता है, नाटक ही कर रहे हैं न हम सब? फिर अगर राजनीति के मंच पर खेल किया तो क्या गज़ब हुआ ? !अपने-अपने चरित्रों को निभाना खेल नहीं है क्या? इसी प्रकार राजनीति भी एक मंच ही है न ? राजनीति में पदार्पण भी एक खेल है और उसमें से निकलना भी एक खेल ही है । "
" राजनीति की दहलीज़ पर करके ईश्वर की दहलीज़ पर पहुँचने का अहसास ही दर्शन है । "एक दिन पति से वार्तालाप करते समय स्वाति ने गंभीर स्वर में पति से कहा था ।
" ठीक है, माना लेकिन कहाँ है दर्शन और ईश्वर की दहलीज़ ? मैं भी तुम्हारे साथ राजनीति में दर्शन खोजने के लिए तत्पर हूँ ---"सत्यव्रत खिलखिलाकर हँस दिए थे ।
" मैं तो आपका प्रत्येक परिस्थिति में साथ देने के लिए सदा से ही तैयार हूँ ---राजनीति में भी आपके साथ उतर पडूँगी । "उसने पति की बात का मुस्कुराकर उत्तर दिया था ।
स्वाति के साथ अपना विस्तृत व्यवसाय सँभालते हुए सत्यव्रत ने निम्न वर्गों की मन लगाकर सेवा करने का निश्चय कर लिया था और दोनों मिलकर समाज में प्रेरणा-स्त्रोत बन रहे थे ।
अब पत्नी स्वाति के बिना वह कमज़ोर पड़ रहे थे, और किसीको क्या कहें उनके अपने पुत्र ही उनसे ऐसे कार्य करवाना चाहते थे जिनके लिए उनका ह्रदय कभी तत्पर न होता, यदि वे इंकार करते तो उनके पुत्र किसी के माध्यम से अपने कार्य निकलवाने की चेष्टा में संलग्न हो जाते। इस समय भी वे ऎसी ही किसी पीड़ा से व्यथित थे। वे स्वयं को हल्का महसूस करने स्नान-गृह में गए थे किन्तु वहां पर भी तकनीकी के इस यंत्र ने उनका पीछा न छोड़ा, अंत में उन्हें अपना यंत्र बंद करना पड़ा | अब ये न जाने कौन देश का वासी उसे प्रभावित कर रहा है !
सत्यव्रत कहीं खो से गए, जीवन कितना बड़ा उपहास बन जाता है कभी-कभी ! मनुष्य कितने मुखौटे चिपकाकर जीता है ! आज सर्वत्र उनकी प्रशंसा के पुल बाँधे जा रहे हैं, उनसे कितनी अपेक्षाएँ की जा रही हैं किन्तु किसी समय अपने जीवन के इतिहास के पृष्ठ पर उनकी कहानी कितनी अशोभनीय थी, यह तो वे ही जानते थे। क्या आज जिस स्थानपर वे सुशोभित हैं उसका श्रेय उन्हें जाता है?छद्म जीवन का समय बहुत छोटा सा होता है, अंत में उसे अनावृत होना ही पड़ता है ।
क्रमश..