गवाक्ष
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माता -पिता की एकमात्र संतान का नाम सत्यव्रत इसलिए रखा गया था कि एक सदाचारी, सरल किन्तु ऐश्वर्यपूर्ण परिवार में जिस बाल-पुष्प का जन्म हुआ, वह न जाने कितनी मिन्नतों, प्रार्थनाओं के पश्चात उस घर के आँगन में खिला था । जीवन में जितनी भी खुशियाँ, सुविधाएं हो सकती हैं, वे सब इस बालक को प्राप्त हुई। बालपन पर जिस वस्तु पर भी वह हाथ रख देता, वह कहीं से भी उसके पास पहुँचा दी जाती । परिणाम वही हुआ जो आवश्यकता से अधिक लाड़-दुलार पाने वाले बच्चों का होता है। सत्यव्रत कभी अपने सत्य के व्रत में नहीं रह सका।
प्रत्येक वस्तु की माँग पहले उसकी ज़िद तथा बाद में उसका आदेश बनता गया । कॉलेज के प्रांगण में प्रवेश करने पर उसके पँख और ऊँची उड़ान भरने लगे। बनावटी वाह-वाह करने वाले मित्रों की सोहबत में पड़कर वह 'सत्य' के अतिरिक्त बहुत कुछ सीख चुका था । सरल व शांत पिता बेटे के इस रूप को सह सकने में जब असमर्थ होने लगे तब ह्रदय के दौरे ने उन्हें इस संसार से विदा कर दिया |
पिता का लंबा-चौड़ा व्यापार अब सत्यव्रत के हाथों में था । माँ अत्यधिक लाड़ के कारण उसी समय बेटे का पथ-प्रदर्शन नहीं कर पाईं थीं जब वह उनके हाथ में था । अब तो उसकी पहुँच बहुत दूर हो गई थी। बेशुमार दौलत और कोई रोकने, टोकने वाला नहीं ! जेबें लबालब धन से भरी हुईं! अधिक धनवान के संबंधी व मित्र बाढ़ से उभरने लगते हैं, यह जीवन का सत्य है ।
सत्यव्रत ने किसी प्रकार बी.ए पास किया और अपने व्यवसाय में जुड़ गया। वह भाग्यशाली था कि उसके पिता के साथ व्यवसाय में काम करने वाले पुराने कर्मचारियों के मन में अपने स्वामी के व उनके परिवार के प्रति संवेदनाएं थीं, वे उनके व्यवसाय व परिवार के प्रति सदा ईमानदार बने रहे थे। उन्होंने सत्यव्रत को अपने सामने बड़ा होते हुए देखा था, उसे अपने स्वयं के बच्चे की भाँति गोद में खिलाया था । वे किसी भी प्रकार अपने स्व.मालिक के परिवार के साथ विश्वासघात नहीं कर सकते थे। सत्यव्रत के पिता के विभिन्न व्यवसाय थे जिनको संभालने वाले विभिन्न अधिकारी, कर्मचारी व सेवक थे। एक बात और उसके हित में थी कि सत्यव्रत अपने व्यवसाय के उच्च अधिकारियों को पिता के समान घर के सदस्य का सा मान देता था। वह यह भी भली प्रकार जानता व समझता था कि उनके न रहने से उसका व्यवसाय चौपट हो जाएगा अत: उनके साथ विनम्रता व सम्मान का नाटक करना उसकी विवशता थी ।
सत्यव्रत कोई नाम है भला ! मित्रों ने जब उसको सैवी के नाम से पुकारना शुरू किया और सैवी ने अपना देश, अपना आचरण, अपनी तहज़ीब, अपने संस्कार भूलकर अंग्रेज़ियत का जामा पहना तब वह भूल गया माँ की कोख !एक बार क्षुधा बढ़ती है तो बढ़ती ही जाती है, सैवी की अहं रूपी क्षुधा का किनारा ही नहीं था ।
वह उस प्रत्येक वस्तु अथवा व्यक्ति को पा लेना चाहता था जो उसे आकर्षित करती थी । उसके साथ मित्रता करने के लिए लड़के, लड़कियों में होड़ लगी रहती । अपने बड़े से बँगले के 'आऊट-हाऊस' को सैवी ने अपनी इच्छा व आवश्यकतानुसार सजवा लिया था । माँ तो पिता के जाते ही अधमरी हो गईं थीं, सेवकों की भीड़ की कमी न थी । सैवी सुबह-शाम माँ के पास एक चक्कर काटकर अपने कर्तव्य की पूर्ति कर देता ।
उसकी अपनी ज़िंदगी में शोर-शराबा, विदेशी मदिरा, विदेशी संगीत, देशी-विदेशी लड़के-लड़कियों का जमघट –- और बेइंतिहा धन ! उसके शुभेच्छुओं ने उसे कई बार समझाने का प्रयास किया परन्तु उस समय धन की अधिकता ने उसकी दुनिया को सात रंगों व सात सुरों से भर दिया था। किसी को कुछ न मानना, समझना, उसका शगल हो गया था । हाँ, दिन में एक बार वह अपने व्यवसाय की मुख्य शाखा में जाता अवश्य था संभवत:यह महसूस करने के लिए कि वह इतने बड़े 'साम्राज्य' का एकमात्र मालिक है ।
वह बिना इधर-उधर देखे सीधा अपने 'चैंबर' में जाता, कुछ देर वहाँ की व्यवस्था देखता, मैनेजरों की टोली, कर्मचारियों का हुजूम, क्लर्क, चपरासी से लेकर'सी.ए' तक की सुव्यवस्था उसके पिता के समय से चल रही थीं । अपने गर्व व अकड़ में जकड़ा वह कर्मचारियों से कुछ समय वार्तालाप करता, उन महत्वूर्ण अधिकारियों से चर्चा करता जिनके कंधों पर व्यवसाय का संपूर्ण उत्तरदायित्व था और जितना धन उसे निकालना होता, लेकर आ जाता । वह भली प्रकार जानता था उसके सभी व्यवसाय लाभ में चल रहे हैं । पिता की अनुपस्थिति में अब उसके लिए कोई व्यवधान नहीं था।
क्रमश..