तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 13 - सपनों की मंजिल Medha Jha द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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तुम ना जाने किस जहां में खो गए..... - 13 - सपनों की मंजिल



"आ भी जा, आ भी जा....." लकी अली का स्वर गूंजता कहीं भी और छोटे रिशी की याद बेचैन कर देती मुझे। हर सुबह लगता कि आंखे खोलने पर छुटकी सामने होगी - "दीदी, चाय पियोगी। " और वासु जिससे खूब लड़ाई होती रहती थी घर में, उसकी खूब याद आती थी मुझे। बार - बार मम्मी - पापा का चेहरा याद आता, कुछ नहीं अच्छा लग रहा था मुझे यहां। मेरी रूम मेट और हॉस्टल के अन्य बैच मेट सब खुश नजर आते। नए शहर , नई स्वतंत्रता का सब भरपूर आनंद ले रहे थे। मौसीमां चौक पर स्थित हमारे संस्थान के हॉस्टल के उपरी भाग में लड़कियों के रहने की व्यवस्था थी और नीचे लड़कों की। लगभग सभी के जोड़े बन गए थे। जिनके नहीं बने थे, वो प्रयासरत थे।

सदा की वाचाल मैं , अचानक इस शहर में आकर शांत हो गई थी। प्रत्येक दिन लगता कि कहीं गलती तो नहीं कर दी मैंने ।मुझे सब लोग अपने से अलग लगते। कोई भी मुझे अपने दोस्तों जैसा नजर नहीं आता। ना ही हमारी सोच मिलती थी ना ही हमारे शौक। बस मेरा यहां दो ही सहारा था - हमारी वॉर्डन प्रभाती मैम और स्वयंभू लिंगराज।

15 दिन हो गए थे मुझे यहां आए और अभी तक असहज थी मैं इस नए परिवेश में और अचानक किसी ने पुकारा है फोन आया है आपका। दूसरी तरफ छुटकी थी।

"दीदी, मेरा सिलेक्शन हो गया निफ्ट कोलकाता में।"

खुशी से उसकी आवाज कांप रही थी और मेरे हाथ में पकड़ा फोन भी थरथरा उठा था। निफ्ट - छुटकी का ड्रीम। पिछले ३सालों से यही स्वप्न देखा था उसने उठते बैठते और आज वो जा रही थी वहां। मैं साथ होना चाहती थी उसके इस पल में। पर डर था मम्मी नाराज़ होगी कि अभी तो गई हो भुवनेश्वर और तभी मम्मी ने फोन छीना।

"हमलोग आ रहे कोलकाता। कितने दिन हो गए तुमको देखे बिना। तुम भी आ जाओ, बेटा अगले सप्ताह। "

मम्मी भी उतनी ही बेचैन थी जितनी मैं।

अगला पूरा सप्ताह बस प्रतीक्षा में बीता और उस दिन सुबह ४बजे कोरोमण्डल एक्सप्रेस से निकल पड़ी मैं। कोलकाता स्टेशन पर मम्मी और छुटकी को देखते ही लिपट पड़ी थी मैं। अगले तीन दिन जीवन के सुंदरतम दिनों में से एक थे। मेरे साथ मेरे सबसे प्रिय लोग और हम सब छुटकी के ड्रीम डेस्टीनेशन पर।

३दिन कैसे निकल गए, पता नहीं चला और आज मम्मी पटना निकलती, मैं भुवनेश्वर और छुटकी वहीं कोलकाता में।

मम्मी की आंखों में आंसू थे - " दोनों बेटियां विदा हो गई मेरी एक साथ। अब पहले जैसे साथ थोड़े रह पाओगी तुम दोनों मेरे।"

भारी मन से भुवनेश्वर को निकली मैं। रास्ते भर छुटकी और मम्मी को याद करते हुए। खुशी सिर्फ इस बात की थी कि कोलकाता सिर्फ ७घंटे की दूरी पर था तो कभी भी आ सकती थी मैं।

भुवनेश्वर पहुंच कर, फिर वही दिन - रात। कुछ जुनून सा छाया था मुझ पर उन दिनों।उस समय सिर्फ एक ही जगह सुकून मिलता था मुझे, संस्थान से लौटते ही मैं दौड़ लगा देती थी लिंगराज मंदिर की तरफ। मौसीमां चौक से मंदिर पहुंचने में मुझे 25 मिनट लगते थे पैदल। वहीं पर मैं बैठी रहती थी जब तक की शेष नहीं रह जाते थे 25 मिनट , हमारे हॉस्टल के गेट बंद होने का समय।

हमेशा तुम्हें पाने की आकांक्षा की थी मैंने। पर अब पता नहीं जब भी लिंगराज के समक्ष होती हमेशा घर के सारे लोग याद आते मुझे और मन में आता -'जो सही हो, मुझे रास्ता दिखाना, प्रभु।'

मन में कहीं निश्चिंत थी तुम तो जीवन में स्थायी रूप से हो ही मेरे।

यही वो समय था जब समुद्र से निरंतर साक्षात्कार करने का मौका मिलता रहा मुझे। समुद्र की लहरें सम्मोहित सी करती रहीं हैं मुझे। एक बार जब मैं प्रवेश कर जाती तो सबसे अंत में ही निकलना होता था मेरा। जगन्नाथ पुरी का समुद्र तट है भी भारत के कुछ स्वच्छतम तटों में से एक।

और नजदीक में था विश्व की अद्भुत विरासत कोणार्क का सूर्य मंदिर। उन्हीं दिनों पुरी महोत्सव और कोणार्क महोत्सव देखने का अवसर मिला। देश के कोने - कोने से एक से एक कलाकार पहुंचते थे प्रदर्शन के लिए। एक नई सभ्यता से परिचित हो रही थी मैं। उड़ीसा के लोग भी उतने ही सरल और तीक्ष्ण बुद्धि वाले थे।

पहली बार देखा था उसने समुद्र जगन्नाथ पुरी में। अथाह जल राशि जो कि क्षितिज तक चली जाती प्रतीत होती। चांदी की तरह चमकता समुद्र तट और स्वच्छ नीली जल राशि - लगता आमंत्रण दे रहे होते उसे और अचानक उद्दाम लहरें तन मन को भिगों देती। समुद्र उसे बेहद आकर्षित करता था। यही वजह थी कि वह खिंची चली जाती समुद्र की तरफ जब भी यह आकर्षण तीव्र होता। वैसे भी भुवनेश्वर से पुरी की दूरी अधिक नहीं थी।

पुरी से प्रारंभ हुए इस अलौकिक प्रेम ने कहां - कहां घुमा दिया था उसे। यायावर प्रवृति की तो हमेशा से रही थी वो। जब जी चाहा, जहां निकल लिए। उसके इसी प्रेम और घुमक्कड़ी ने उसे कभी केरल के कोवलम तट पर पहुंचाया तो कभी गोवा के।

पहली बार समुद्र से उसका साक्षात्कार भी तो उसी दिन हुआ था जिस दिन उसने पुरी महोत्सव देखा था। उस दिन की कहानी भी बड़ी मजेदार थी। उस दिन मार्केटिंग वाले सर ने टेस्ट रखा था। कोशिश के बावजूद तैयारी नहीं हो पाई थी उसकी। क्या करती वह भी, वह पीरियड होता भी था प्रत्येक दिन लंच के ठीक बाद और भुवनेश्वर हरेक समुद्र तट के निकटस्थ प्रदेश की तरह दिन में पर्याप्त गर्म होता था हालांकि शामें अच्छी होती थी। गर्मी की उन दोपहरियों में खाना खाने के बाद उसे बहुत ज्यादा नींद आती थी। कितनी बार कितनी कोशिश की उसने कि सर क्या बता रहें, ध्यान दे सकें। लेकिन नींद महाशय ने कभी उसकी एक न चलने दी। उसकी आंखें स्थिर होती व्हाइट बोर्ड पर और दिमाग सो रहा होता। आज परिणाम सामने था।सारे चप्टर्स नये लग रहे थे उसे। बहुत डरते हुए अन्य मित्रों से उनकी तैयारी के बारे में पूछा। पता चला, सबका वही हाल था। बहुत खुशी हुई जानकर उसे ।

तभी किसी ने याद दिलाया - पुरी महोत्सव चल रहा है। फिर क्या था, फटाफट कार्यक्रम तैयार था। हमलोग पर्यटन के छात्र - छात्राएं हैं। किसी भी कीमत पर यह आयोजन में हमें शामिल होना ही चाहिए। कहां अभी तक सबके चेहरे उतरे हुए थे परीक्षा के नाम पर, कहां सब चहक रहे थे पुरी जाने के नाम पर। डायरेक्टर साहब के नाम अनुरोध पत्र लिखा गया - पुरी महोत्सव जाने की आवश्यकता एवम् संस्थान के बस को उपलब्ध कराने के लिए। उसे एवम् एक अन्य मित्र को भेजा गया डायरेक्टर सर के चैम्बर में। अपनी बातें मजबूती से रखी उन्होंने। और सर ने अनुमति दे दी। उनके चैम्बर में ही लगा उछल पड़ेंगे वो लोग। बाहर विजयी भाव से निकले तो सारे मित्र वहीं खड़े थे। सूचना के साथ सब के चेहरे चमक उठे और साथ ही विजयी उल्लास भी। और जब वो लोग बस में बैठ रहे थे उनके मार्केटिंग वाले सर बाइक से प्रवेश कर रहे थे संस्थान। उसने मुंह छिपा लिया और शायद औरों ने भी। पता तो सबको था कि उन्होंने बदमाशी की है। पर सबका ये पश्चाताप ज्यादा क्षण नहीं टिका। बस निकल पड़ी अपने गंतव्य की तरफ और सबका मन भी उड़ चला उस अनदेखे महोत्सव की तरफ - जहां सुना था देश के विभिन्न भागों से कलाकार आते हैं।

जब सब पहुंचे पुरी, दिन के १२ बज चुके थे। बस से उतर कर सब दौड़ पड़े समुद्र तट पर। अपने समक्ष उज्ज्वल वेग से मचलती मदमस्त लहरों को देख कर एक क्षण तो मंत्र मुग्ध रह गई वह, फिर मित्रों का हाथ पकड़ प्रवेश कर गई देश के कुछ स्वच्छतम तटों में से एक वाले इस समुद्र में। लगा समुद्र स्वयं व्यग्र था उससे मिलने के लिए और अगले ही क्षण तीव्रता से आती लहरों ने ले लिया सबको अपने आलिंगन में। उस प्रथम आलिंगन की स्मृति भी कितनी जीवंत है मन में। लगता है कल की ही बात हो ये। घंटों तक फिर कोई निकला ही नहीं समुद्र से। सब जल - क्रीड़ा में मग्न थे। एक - दूसरे को भिगा रहे थे और वह आकंठ डूबी थी इन स्वर्णिम क्षणों में, कितनी कहानियों की स्मृतियां कौंध रही थी उसके मन में - पत्रिकाओं में पढ़े, बाबा के द्वारा सुनाए - " स्वयं भगवान श्री विष्णु कच्छप अवतार लेकर मन्दराचल पर्वत को अपने पीठ पर रखकर समुद्र मंथन का आधार बन गये। भगवान नारायण ने दानव रूप से दानवों में और देवता रूप से देवताओं में शक्ति का संचार किया। मंथन में निकले विष को महादेव ने ग्रहण किया और हलाहल ग्रहण करने के बाद नीलकंठ कहलाए।" तभी पीछे से किसी ने झकझोरा उसे - " निकलो हम लोग लेट हो रहे हैं। "

वहां से निकल कर जगन्नाथ जी के दर्शन किए सबने। अंदर प्रवेश करते ही एक अलग ही दैवीय अनुभव हुआ। चारों तरफ सब तरह के लोग भरे थे। बहुत सारे विदेशी सैलानी भारतीय पोशाक में नजर आ रहे थे। सबका अपना - अपना समूह बना हुआ था। सैलानियों की कुछ टोली को मंदिर के पंडित जी वहां जा इतिहास समझा रहे थे, कुछ टोलियां वहीं जमीन पर बैठ कीर्तन कर रहे लोगों के समूह में शामिल हो गए थे। समय कम था उनके पास। दर्शन कर निकले वो लोग, पुरी समुद्र - तट महोत्सव में शामिल भी होना था।

नवंबर का महीना था। देश विदेश से सैलानी आए हुए थे। प्रत्येक साल अक्टूबर महीने के अंतिम तिथिओं या फिर नवंबर में इस कार्यक्रम का आयोजन किया जाता है। पूरे देश भर से कलाकार आते हैं इस पांच दिवसीय कार्यक्रम में भाग लेने। उड़ीसा पर्यटन द्वारा इस महोत्सव को बढ़ावा की खूब दिया जाता है। नृत्य संगीत का अद्भुत आयोजन किया जाता है समुद्र तट पर ही। सबसे विशिष्ट कला, जिसने उसका ध्यान आकृष्ट किया, वह था पुरी तट का प्रसिद्ध रेत कला (सेन्ड आर्ट)। समुद्र तट के रेत से कलाकारों ने वहीं अद्भुत विशालकाय आकृति बना दी थी। इतना सुंदर, इतना भव्य था वह आकृति कि सारे लोग देर तक निहारते रहे इस अद्भुत कला को। वहीं से कुछ दूरी पर बहुत सारे स्टॉल नजर आए जहां हस्तशिल्प , खाद्य पदार्थ के अलावे उड़ीसा पर्यटन का स्टाल लगा हुआ था। जहां निकटवर्ती विशिष्ट जगह - कोणार्क, पुरी, भुवनेश्वर, कटक, एवं अन्य स्थलों के बारे में विस्तृत जानकारियां उपलब्ध थी। अद्भुत है पुरी - एक साथ देश का सुंदरतम स्थापत्य, स्वच्छतम समुद्र तट, अद्भुत समुद्र तटीय महोत्सव, लुभावन हस्त शिल्प और चित्ताकर्षक रेत कला।
एक सुंदर संध्या बिता के वहां से विदा हुई यह वादा करते हुए ख़ुद से कि अगली बार तुम जरूर साथ होंगे।