सोलहवाँ साल (1) ramgopal bhavuk द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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सोलहवाँ साल (1)

उपन्यास

सोलहवाँ साल

रामगोपाल भावुक

सम्पर्क सूत्र-

कमलेश्वर कॉलोनी (डबरा) भवभूति नगर, जिला ग्वालियर म.प्र. 475110

मो 0 -094257157Email:- tiwariramgopal5@gmai.com

भाग एक

अभी मैं अपने कमरे में ही थी कि सुमन ने मुझे आवाज दी-‘ सुगन्धा ऊपर आना। ’

मैं उसकी आवाज सुनकर अपने कमरे के पिछले दरवाजे से उनके आंगन में पहुँची । हम उनके मकान में किराये से रहने आये थे। पहली बार उनके घर में जाना हो रहा था। आंगन से ऊपर जाने के लिए सकुचाते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगी। पापा जी के परिचित सेठ नाथूराम गुप्त जी के मकान शिव कालोनी में रहने को कमरा मिला तो मेरे साथ किसी अभिभावक के रहने की समस्या थी और यह समस्या हल की थी नानी ने। मेरी नानी मेरे साथ रहने को आ गई।

सेठ नाथूराम गुप्त जी की लड़की इस सुमन गुप्ता ने भी मेरे साथ ही कन्या विद्यालय से इन्टर किया था। उन दिनों में उसके मैं इतने निकट नहीं आ पाई थी। सुमन ने भी बी. ए. भाग प्रथम में प्रवेश लिया था, अब हम में दोस्ती बढ़ रही थी।

दो महीने पहले मेरा इन्टर का परीक्षा परिणाम घोषित हुआ था, जिसमें मैं प्रथम श्रेणी के साठ प्रतिशत से आगे के अंकों की यानि प्रावीण्यता श्रेणी के अंक पाने की कल्पना कर रही थी, किन्तु मुझे प्रथम श्रेणी के अंको में ही संतोष करना पड़ा। कम अंकों का कारण हमने जिससे भी पूछा हरेक ने एक ही कारण बताया कि मेरा गांव से आना जाना इसका बड़ा करण रहा होगा क्योंकि रोज आने जाने वालों के मन में एक बैचेनी सी बनी रहती है जिससे पढ़ाई में एकाग्रता नहीं रह पाती। इसीलिये इस बार यह सिलसिला बदल दिया है। पढ़ाई की उधेड़बुन चलने लगी। संत कवरराम महाविद्यालय डबरा में बी. ए. भाग प्रथम में प्रवेश ले लिया था। मैं अपने इस कॉलेज की लायब्रेरी से उपन्यास व कहानियों की पुस्तकें लाकर पढ़ने लगी। इस बीच कुछ साहित्यिक कृतियाँ पढ़ डाली थीं। बीच में गांव जाना हआ तो किताबें साथ ही ले गयी और वहां भी साहित्य पढ़ती रही। मम्मी ने मेरी साहित्य की तरफ रुचि देखकर पूछा कि क्या मुझे भी लेखक बनना है, जो इतनी मोटी किताबें पढ़ती हूं । उनकी बात मैंने हंसी में उड़ा दी लेकिन अनजाने में मम्मी ने मुझे कविता, कहानी लिखने की ओर प्रेरित कर दिया।

उस दिन से मैं कुछ तुकान्त-अतुकान्त कविताए लिखने का प्रयास भी करने लगी। कुछ दोहे रट लिये, उन्हीं के आधार पर दोहे लिखने का प्रयास भी किया। अपनी अब तक की जिन्दगी की घटनाओं को ही रोज की डायरी की तरह लिखने लगी।

कल मेरे कमरे में आई तो सुमन ने मेरी डायरी में मेरे लिखे दोहे और दिन प्रतिदिन के विवरण देखे तो पूछा था- कैसे लिखती हो? मैने कहा कि जब लेखन शुरू होता है, सदा मन में अनेक भाव उमड़-घुमड़ रहे होते हैं । एक नये तरीके से सोचना शुरू हो जाता है। रचना किस तरह शुरू की जाये, रूप रेखा मन में स्थायी रूप से सामने नहीं आ पाती। बडे सोच-विचार के पश्चात पात्र के आधार पर कहानी, कलम के सहारे साकार होकर उतरती है ।

मैने उसे बताया -अपनी बात को ठीक से समझाने के लिए एक समस्या सबसे बड़ी है कि कथ्य का विकास कैसे करें ? इस सवाल को लेकर मन ही मन विभिन्न प्रकार की अवधारणायें बनने- बिगड़ने लगती है । कभी-कभी कई विकल्प एक साथ दरवाजे पर आकर दस्तक देने लगते हैं । उनमें से किसी उत्तम भाव, पूर्ण विकल्प को चुनना उतना ही कठिन कार्य है जितना चौराहे पर पहुँचकर सही मार्ग चुनना।

मैं भी कैसी हूँ ? जो इस तरह सोचने लगती हूँ। मैं तो जीवन के अनुभवों को व्यक्त करना चाहती हूँ। मैं जानती हूँ अपनी बातों को लेखकों की तरह नहीं कह पाऊँगी। इसकेलिए तो जीवन भर की सतत् साधना आवश्यक है, तभी लेखकों की तरह मन की बातें लिखना सहज हो पाता है।

जब कोई चुभन हो रचना तभी फूटती है। उस स्थिति में कोई रचना स्वतः निस्सृत होने लगती है।

देखा, मैं कैसी-कैसी बातें करने लगी! जैसे, कोई बड़ी भारी लेखिका होऊँ।

मैंने कुछ दिनों तक तो इन्टर की तरह गाँव से बस से ही जाना- आना रखा था तब मुझे कई तरह के अनुभव हुये। अब मैं यह समझ रही थी कि इस तरह आने-जाने से ग्रेजुएसन की पढ़़ाई में व्यवधान उत्पन्न होगा इसीलिए यह मकान लिया गया था।

जब सुमन के कमरे में मैं ऊपर पहुँची तो देखा कि सुमन अपने पलंग पर बेठी हुई अपनी पुरानी सुन्दर सी गुडियाँ को हाथ में उठाये ध्यान से देख रही है। मुझे देखते ही बोली -‘ री! मैं तुझे अपनी यह सुन्दर गुडिया दिखाना चाहती थी। मम्मी कहतीं हैं मैं छोटे में इसी तरह की दिखती थी। ये मुझे गुड़िया बहुत प्यारी लगती है।’

‘मैंने सुमन से कहा-‘ तुम्हारी गुडिया बहुत प्यारी है । आंटी ने सही कहा, तुम बचपन में ऐसी ही लगती होगी। मेरे जीवन से भी गुड़ियों की एक विचित्र कहानी जुड़ी है।’

वह बोली-‘ तो तुम भी सुनाओ ना मुझे अपनी कहानी।’

उसकी उत्सुकता देखकर मैंने अपनी बात कहना शुरू करदी- मेरा बचपना था तब। मम्मी-पापा कहते थे-‘‘वाह ! मेरी बिटिया कितनी सुन्दर है मानो प्लास्टिक की कोई खुबसूरत गुड़िया, जो देखता है इससे खेलने का जी चाहता है। मैं इसके लिए इतना ही सुन्दर दूल्हा भी देखूँगी ।’’

मैं कहती- ‘‘सच मम्मी! ’’

मम्मी मेरी बात सुनकर ठहाका मार कर हँसतीं ।

एक दिन मेले से खरीद कर मम्मी ने मिट्टी की बनी, एक सजी-सँवरी सुन्दर गुडिया हाथ में दे दी । मैंने कौतूहल से खेल खेल में उस गुड़िया की बिन्दी हटा दी, चूडियाँ और नथुनी उतार ली कि देखें बिना सजी हुयी यह कैसी लगती है? तो वह बे रूप सी लगने लगी। उसका अवरूप देखकर मुझे गुस्सा आगया तो झल्लाते हुए मैंने गुड़िया जमीन पर पटक दी। वह टूक-टूक होकर बिखर गई। यह देख मम्मी को क्रोध आ गया।उन्होंने मेरे एक थप्पड जमा दी और बोलीं, ‘‘सुन्दर चीजें सँभालकर रखना पडती हैं। ‘‘

मैं रोने लगी।

पापा यह सब देख रहे थे। पापा ने मुझे पुचकारते हुए मम्मी से कहा ‘‘ बच्चे खिलौने तोड़कर भी सीखते हैं, इसे सीखने दो ।’’

पापा की यह बात सुनकर मैं चुप हो गयी। मैंने उसके टुकड़े इकट्ठे किये और उन्हें जोड़ने का प्रयास करने लगी। लेकिन गुड़िया नही जुड़ी तो पापा एक और गुड़िया ले आये जो प्लास्टिक की बारबी डॉल थी जिससे कि जमीन पर गिरे तो टूटे नहीं।

देखा गया है कि बच्चे बड़ों का जैसा व्यवहार देखते हैं, वैसा व्यवहार करने लगते हैं। उनमें अनुकरण की विशेष क्षमताऐं होती हैं। लडका खेल में हमेशा पापा बनकर देखता है ........और लड़की हुई तो मम्मी या मैंडम बनकर । गुड्डे-गुड़ियों को अपने शिशु की तरह आदेश देती है -‘‘ अच्छा बच्चा है , अभी सोते रहना । मुझे बहुत सारा काम निपटाना है, मुझे परेशान किया तो मार पड़ेगी ।’’

आज किसी बच्ची को दर्पण के सामने देखती हूँ तो मुझे दर्पण के सामने अपने खड़े होने के अल्हड़पन पर हँसी आती है। कजरारी आँखें आकर्षक गोल चेहरा और गोरा रंग देखकर मैं अपनी सुन्दरता पर मुग्ध हो जाया करती थी ।

पाँच वर्ष की उम्र में यह जान गई कि मम्मी और पापा के शरीर और काम-काज में भिन्नता है ।

बचपन की यह कहानी सुनकर सुमन बोली-‘ सुगन्धा तुम कहानी कहने में बड़ी चतुर हो। ऐसी कहानी सुनने में मुझे बड़ा मजा आता है। मुझे गाँव की बातें बहुत अच्छी लगतीं हैं। तुम तो जब भी तुम्हें समय मिले मेरे पास आकर अपनी कहानी सुना जाया करो।

इस घटना के बाद तो जब भी उसे समय मिलता मुझ से मेरी कहानी सुनने बैठ जाती।

अगले दिन तो वह समय निकाल कर मेरे पास आ गई। नानी सुमन की माँ के पास बैठने चलीं गई थीं। उसके बार बार अनुनय करने पर मैं उसे अपनी यह कहानी सुनाने लगी-

मुझे उन दिनों की बातें याद आ रही हैं जब मैं विद्यालय जाने लगी थी। अब विद्यालय के बच्चों के साथ खेलना, घूमना- फिरना प्रारम्भ हो गया।

इधर विद्यालय के बड़े छात्रों एवं शिक्षकों का लाड़ मेरी सुन्दरता और चुलबुलेपन के कारण मेरे ऊपर रहने लगा। हँसमुख चेहरा और भोली-भाली बातों के कारण मैं सबके मन का खिलौना बन गई। विद्यालय के शिक्षक मुझे गोद में उठा लेते। इस प्रकार वे पढ़ाने की अपेक्षा मुझ खिलौने का उपयोग अपना मन बहलाने के लिए करने लगे। इसी कारण प्रारम्भ के दो तीन माह तक तो अक्षर ज्ञान बिल्कुल नहीं हो पाया ।

मुझे शिक्षकों से फुर्सत मिलती तो विद्यालय के बडी कक्षाओं के लड़के- लड़कियाँ घेर लेते । कोई मुझे मेरे लाल-लाल होंठ देखकर कहता-‘‘ अरे ! ये तो चूहे खाकर आई है ।’’

कोई मेरे गालों की लालिमा देखकर मेरे गालों पर हाथ फेरते हुए प्यार से कहता - ‘‘......... लाल टमाटर ऽऽ! ’’

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