Hone se n hone tak - 39 books and stories free download online pdf in Hindi

होने से न होने तक - 39

होने से न होने तक

39

फरवरी के अन्तिम सप्ताह में अध्यक्षा मिसेज चौधरी का जिनयर से ले कर डिग्री तक सभी विभागों के लिए ‘‘महिला दिवस’’ के उपलक्ष्य में कार्यक्रम आयोजित करने का सर्कुलर मिला था और सप्ताह के अन्त में उस संदर्भ में समीति के कार्यालय में आयोजित मीटिंग में सभी सैक्शन्स के प्राचार्यों को दो टीचर्स के साथ आने के आदेश दिए गए थे।

हम सब ने दीपा दी से पूछा था ‘‘अब?’’ परीक्षाए निकट आ चुकी थीं-अध्ययन और अध्यापन दोनो ही तेज़ी पर थे। पढ़ाई को बहुत गंभीरता से न लेने वाले स्टूडैन्ट्स और टीचर्स भी इस समय व्यस्त थे। कक्षाओं को स्थगित करना या लड़कियो से किसी भी और काम के लिए कहा जा सकना संभव नहीं था इसलिए उस सर्कुलर की बात सुन कर हम सब ही परेशान हो गये थे सो हमने पूछा था,‘‘अब ?’’

दीपा दी परेशान दिख रही थीं साथ ही शॉत भी जैसे किसी कठिन निर्णय पर पहुच चुकी हों। उसी शॉत मुद्रा में उन्होंने हम सब को तसल्ली दी थी कि‘‘अब कुछ नहीं, उस कार्यक्रम में हमारे सैक्शन को कुछ नहीं करना है। ग्यारह बजे मीटिंग है। हम चाहते हैं कि तुम में से एक दो लोग हमारे साथ चलो,’’ उन्होंने अपनी बात स्पष्ट की थी,‘‘जिसके क्लास न हों या जो अपने क्लास को किसी दूसरे से एडजस्ट कर सके,’’ उन्होने नीता की तरफ देखा था,‘‘तुम चल सकती हो नीता?’’ उन्होने पूछा था।

नीता और मैं दीपा दी के साथ मीटिंग में गये थे। सब से पहले मिसेज़ चौधरी उस फंक्शन के बारे में विस्तार से बताती रही थीं। हम सब ही चुप बैठे रहे थे। हमारे लिए बोलने को कुछ था भी नहीं। फिर उन्होने हर सैक्शन से अलग अलग बात की थी। सबसे पहले डिग्री से। पर दीपा दी ने परीक्षाएॅ निकट आ जाने के कारण इसमे अपनी भागीदारी कर पाने में असमर्थता जता दी थी। उस समय वे बिल्कुल शॉत थीं। उनके स्वर में कोई उतार चढ़ाव नहीं था। टीचर्स ख़ाली पीरिएड में व क्लास हो जाने के बाद वहॉ रहेंगी। किन्तु छात्राए न तो कोई आइटम ही दे पाऐंगी और न सुबह से शाम तक टीचर्स ही आ पाऐंगी।

मिसेज़ चौधरी को न सुनने की आदत नही है। वे उस न के कारण भी सुनना नही चाहतीं थीं। सभी विभागों के प्राचार्यो के सामने मीटिंग में दीपा दी के मुह से साफ न सुन कर वे बौखला गयी थीं। शायद अपनी बात कहने के उनके साफ और शॉत लहज़े से वे और अधिक चिढ़ गयी थीं। इण्टर कालेज की परीक्षाएॅ तो एकदम सिर पर हैं। वहॉ प्रैक्टिकल चल रहे हैं। उनकी प्रिंसिपल मिसेज़ चटर्जी नें अटकते हुए अपनी कठिनाई रखी थी पर मिसेज़ चौधरी की तेज़ निगाहों के सामने वे देर तक टिक नहीं पायी थीं और शीघ्र ही नाइन्थ और इलैवैन्थ के बच्चों की भागीदारी के लिए तैयार हो गयी थीं।

मिसेज़ चौधरी के स्वर में झुंझलाहट थी,‘‘अभी तो आपके यहॉं एग्ज़ाम्स को डेढ़ महीने से अधिक समय है। मैने हर सैक्शन से केवल एक आइटम मॉगा है। मेरे लिए भी आपकी टीचर्स और स्टूडैन्ट्स के पास समय नही है। आपके पास तैयार आइटम भी होंगे ही। वही करा सकती हैं आप। सच बात यह है कि आप और आपका सैक्शन कोआपरेट ही करना नही चाहता।’’

पर दीपा दी अपनी बात पर अड़ी रही थीं,‘‘नहीं मैडम। तैयार आइटम को भी चार छ बार प्रैक्टिस कराना होगा। ड्रैसेस का इंतज़ाम करना होगा। हर काम में भाग दौड़ होती है। समय बर्बाद होता है...फिर पढ़ाई का पूरा मुमैन्टम ही पटरी से उतर जाता है। वह रिस्क मैं नही ले सकती। वह मैं नही कर पाऊॅगी। इस समय न मैं स्टूडैन्ट्स से कह सकती हॅू कुछ करने को न टीचर्स से।’’

दीपा दी का यह निश्चयात्मक स्वर हम लोगों को अच्छा लगा था। शायद यह उन का नया अवतार था।

मिसेज़ चौधरी चुप हो गयीं थीं पर उनके चेहरे पर गुस्सा साफ दिखता रहा था। फिर उस दिन के बाद तो प्रबंधतंत्र और दीपा दी के बीच आए दिन तनाव पलने और बढ़ने लगा था। प्रबंधक और अध्यक्षा एक तरफ और दीपा दी अकेली दूसरी तरफ। उनके चारों तरफ शिकंजे कसे जाने लगे थे। बात बात में उनसे लिखित जवाब मांगे जाने लगे थे। आए दिन आने वाले उन पत्रों में न जाने कितनों के जवाब हम लोग बना रहे थे। लगा था सारा समय ंनियम और कानून की लड़ाई लड़ने में ही बीत रहा है। कागज़ो पर मनमाने ढंग से उनसे दस्तख़त न करा पाने के कारण वे लोग दीपा दी से वैसे ही चिढ़े हुए थे। दीपा दी और भी अधिक सतर्क हो गयी थीं। वे अक्सर राम सहाय जी की बात याद करतीं,‘‘अड़ जाइए या फिर कालेज छोड़ दीजिए।’’ हिसाब किताब से जुड़े कागज़ों पर उन्होने अपनी पकड़ मज़बूत कर ली थी। बहुत देख सोंच कर दस्तख़्त करतीं और बड़े व्यय से पहले प्रायः प्रबंधतंत्र की लिखित अनुमति ले लेतीं। कालेज के कागज़ो की कालेज से अलग उन्होने एक पर्सनल फाइल भी तैयार कर ली थी। न जाने कब ज़रूरत पड़ जाए। पर शह और मात के इस खेल में नौकरी का आनन्द ख़तम हो चुका था और दीपा दी थक रही थीं। तन से अधिक मन से। कई बार उनकी बातों में उनकी हताशा और थकान साफ झलकने लगी है।

उस दिन प्रबंधक गुप्ता के कमरे में लाइब्रेरी कमेटी की मीटिंग थी। हम पॉच टीचर्स और दीपा दी वहॉ बैठे थे। पुस्तकालय भवन की थोड़ी बहुत मरम्मत और पुताई आदि के बारे में बात होती रही थी। वे बात कर ही रही थीं कि स्टाफ रूम की अटैन्डैन्ट नीरजा कोई कागज़ ले कर आयी थी। उसने कमरे के बाहर से झांका था और दीपा दी ने उसे भीतर आने का इशारा किया था। वह अन्दर आ गयी थी। नीरजा सुन्दर और स्मार्ट है। उसमे यौवन और बंगाल दोनो ही लावण्य है। वह किसी भी कोण से क्लास फोर नहीं लगती। पर जिस ढंग से उसने दोनो हाथों को जोड़ कर और उन्हे माथे से छुआ कर प्रणाम किया था उससे संभवतः गुप्ता को जिज्ञासा हुयी थी, ‘‘हू इज़ शी’’ उन्होने धीरे से पूछा था।

नीरजा के सामने उसे चपरासी कहना शायद मिस वर्मा को अच्छा नहीं लगा था,‘‘नीरजा है।’’उन्होने धीरे से जवाब दिया था और नीरजा को जाने का इशारा किया था। वह कागज़ ले कर चली गयी थी।

‘‘इस शी अ क्लास फोर?’’उन्होने फिर पूछा था।

‘‘जी हॉ’’ मिस वर्मा ने जवाब दिया था। वे फिर से बिल्डिंग के रिपेयर वर्क के बारे में बात करने लगी थीं। बात पूरी होने के बाद वे और हम सब जाने के लिए उठ कर खड़े हो गये थे।

गुप्ता कुछ सोचते हुए से बड़ी देर से पैन से खेल रहे हैं। वे वैसे ही हाथ में पैन को घुमाते नचाते रहे थे। वे चलने लगीं तो गुप्ता ने पैन पर से निगाह हटा कर उनकी तरफ देखा था,‘‘दीपा जी यह जो मेरे कमरे मे आपने इस चपरासी की ड्यूटी लगायी है-क्या नाम है इसका?’’

वे जब तक कुछ बोलतीं तब तक वे स्वयं ही बोले थे,‘‘हॉ बिहारी लाल। बेहद बेवकूफ टाइप का आदमी है। बहुत ही डल।’’

‘‘ठीक है मैं देख लूंगी। मैं आपके कमरे में किसी दूसरे चपरासी की ड्यूटी लगा दूंगी ।’’ मिस वर्मा ने कहा था।

गुप्ता ने बेझिझक सीधे उनकी तरफ देखा था,‘‘ऐसा करिए यह लड़की ठीक ठाक लगती है आप इसकी ड्यूटी इधर लगा दीजिए।’’

वह किसकी बात कर रहे हैं यह हम सभी फौरन ही समझ गये थे। फिर भी शुभा दी के मुह से निकला था,‘‘कौन?’’

‘‘वही लड़की जो अभी थोड़ी देर पहले आयी थी। क्या नाम बताया था आपने? हॉ वो नीरजा।’’

हम सभी स्तब्ध रह गये थे। लगा था दीपा दी एकदम अचकचा गयी थीं पर उन्होने अपने आप को संयत रखा था। क्षण भर सोचा था और अपने आप को संभाला था,‘‘वह नहीं हो पाएगा।’’

‘‘क्यों?’’गुप्ता के स्वर में तेज़ी है।

मिस वर्मा शॉत रही थीं। उन्होने अपने स्वर मे कोई विकार नही आने दिया था,‘‘स्टाफ रूम में करीब तीस टीचर्स एक साथ बैठती हैं। उनकी किताबें और सामान ऐसे ही रखा रहता है। वहॉ के लिए मुझे साफ सुथरी लेडी पियोन ही चाहिए और कालेज में ज़्यादातर मेल क्लास फोर हैं। लेडीस जो हैं भी वे कुछ को छोड़ कर सब कम्पैशनेट वाली हैं। सो वे उतनी होशियार नही हैं। किन्तु आप परेशान न हों, आपके कमरे में मै किसी दूसरे होशियार मेल चपरासी को लगा दूंगी।’’उन्होने सपाट स्वर में कहा था।

‘‘देख लीजिएगा।’’उन्होंने धीरे से कहा था। लगा था जैसे उन्होने अपनी मॉग दोहरायी है और हाथ का पैन सामने रख दिया था और चेहरे पर हल्की सी झुंझलाहट आ गयी थी।

उनके कमरे से बाहर आ कर हम सब ही हैरान होने लगे थे। दीपा दी ने हम में से किसी से उस बारे में कोई बात नहीं की थी। वे बेहद खिन्न और थकी सी लगने लगी थीं।

रात के करीब नौ बजे आण्टी का फोन मिला था,‘‘अम्बिका कल गौरी और उसके घर वाले आ रहे हैं। मैंने लॅच रखा है। तुम भी आना।’’ उनकी आवाज़ से लगा था जैसे बहुत हड़बड़ी में हों। मुझे समझ नहीं आया था कि मैं क्या कहू या मुझे क्या कहना चाहिए,‘‘ऑटी कल मुझे कालेज जाना है।’’मैंने धीमें से कहा था जैसे अपने न आ पाने की कोई सफाई सी दी हो।

‘‘तब? तब क्या हुआ?’’आण्टी ने जैसे बहुत ही अपनेपन से झिड़का था,‘‘अम्बिका यश की फियान्से आ रही है उस से मिलोगी नहीं? ऐसा कैसे हो सकता है।’’ उन्होने अपनी बात का समापन किया था,‘‘क्लासेस के बाद आ जाना। नही तो कल कालेज से छुट्टी ले लो। आना ज़रूर।’’ आण्टी के स्वर में आदेश है।

‘‘जी आण्टी।’’मैंने अपने स्वर को भरसक सहज रखा था।

‘‘अच्छा अम्बिका फिर कल मिलेंगे।’’ आण्टी ने उसी हड़बड़ी में फोन रख दिया था।

जॉऊ या न जाऊॅ ? मैं सारी रात उहापोह में रही थी। मन में बार बार यह भी आता रहा था कि यश मुझ से क्यों बच रहे हैं। मैं घर पर नही मिली तो यश फोन कर के मुझ से मिलने का समय तय कर सकते थे। फिर मैं ही अपनी तरफ से जा कर क्यो मिलूं। मुझे पता है कि यश भी तो आए ही होंगे। गौरी क्या, मेरे मन में तो यश से मिलने की भी इच्छा नहीं है। यह तो बहुत बाद में समझ आया था कि यश शायद मेरा सामना करने का साहस नही कर पा रहे थे। पर क्यों? मन वैसे ही इतना दुखा हुआ है कि मैं उसे कोई और तकलीफ नही देना चाहती। पर मेरे लिए आण्टी के आदेश को यूं अनसुना करना संभव है क्या। फिर मेरे न जाने के बहुत से अर्थ निकाले जा सकते हैं। वैसे भी आण्टी,यश और अब गौरी से भी कैसे बच सकती हूं मैं? फिर कब तब? मुझे पता है कि कभी न कभी तो मुझे अपने आप को इस साक्षात्कार के लिए तत्पर करना ही था। फिर अभी ही क्यो नहीं।

अशोक मार्ग पर सीधे चलते हुए रिक्शा अनायास ही बॉई तरफ की लेन में मुड़ गया था। रिक्शे वाला पुराना है, उन सभी जगहों के पते ठिकाने अच्छी तरह से जानता है जहॉ मैं कभी भी जाती हूं। अन्दर मुड़ते ही लेन कुछ बदली हुयी सी लगी थी। शायद एक साथ बहुत सी कारें खड़ी हैं...इसलिए। पर मैंने उस तरफ अधिक ध्यान नही दिया था। रिक्शे वाले ने यश के घर के बाहर लगे बड़े से फाटक से कुछ पहले ही रिक्शा रोक दिया था। उसे पैसे दे कर मैं उस तरफ बढ़ी थी तो देखा था कि हमेशा के विपरीत फाटक पूरा खुला हुआ है। घर के अन्दर काफी रौनक है। पीले और सफेद के मिले जुले रंग में यश के घर का बहुत बड़ा सा लॉन सजा हुआ है। गोल मेज़ो के चारों तरफ पॉच छः कुर्सियो के घेरे थोड़ी थोड़ी दूर पर लगे हुए हैं। हर मेज़ के बीच में रखे हुए ताज़े फूलों के गुलदस्ते। सफेद साटिन के मेज़ और कुर्सियों के कवर और उनके बीचोबीच गोलाई में बधें पीले रिबन। मैं कुछ क्षणों के लिए अचकचाई सी गेट पर ही खड़ी रह गयी थी। आण्टी ने तो कहा था कि गौरी लॅच पर आ रही है। पर यहॉ तो भव्य आयोजन है। एक अच्छी भली शादी जैसा। तब..?तब क्या? इतना तो मुझे पहले ही समझ लेना चाहिए था कि आण्टी के बेटे की बहू पहली बार उनके घर आ रही है। वह कोई साधारण बात नही है। फिर आण्टी के घर का तो हर आयोजन भव्य ही होता है। इस लॅच को तो ख़ास होना ही चाहिए था।

Sumati Saxena Lal.

sumati1944@gmail.com

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