होने से न होने तक - 38 Sumati Saxena Lal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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होने से न होने तक - 38

होने से न होने तक

38.

यूनिवर्सिटी की परीक्षाएं शुरु हो गई थीं और सभी काफी समय के लिए उसमें व्यस्त हो गए थे। कालेज आते हैं तो वहॉ मन नही लगता। घर जाते हैं तो वहॉ भी मन में बेचैनी बनी रहती है। ज़िदगी अजब तरह से उलझ गयी है। यश हर समय याद आते रहते हैं। यश से नाराज़ नही होना चाहती। उस नाराज़गी का कोई कारण भी नहीं है फिर भी हर क्षण अपने आप को आहत महसूस करती रहती हूं। फिर मीनाक्षी दिमाग में घूमती रहती है। उस पर कालेज का यह बदला हुआ माहौल। लगता रहता है हर तरफ से ज़िदगी ठहर गयी है...संभावनाओं से परे। आगे देख कर किसी सुख का इंतज़ार करने के लिये भी तो कुछ नही। काश कुछ चमत्कार हो पाता...काश बीच का बहुत कुछ बदल पाता...नही तो थोड़ा कुछ अनहुआ ही हो सकता। यश दो बार मुझसे मिलने के लिये आ चुके हैं। कुछ अजब सा इक्तफाक है कि मैं दोनो बार ही घर पर नही थी। दोनो ही बार मेरे घर पहुंचने की आहट पाते ही नीचे से शिवांगी और विनय मुझे बताने के लिये आये थे जैसे मेरी किसी ख़ुशी में शामिल हो रहे हों। और मैं ? समझ ही नही पायी थी कि यश के आने की बात सुन कर कैसा महसूस हुआ था। यश के आने पर मैं घर पर नही थी सोच कर शायद मेरे अवचेतन ने तसल्ली ही महसूस की थी। घर पर होती तो क्या बात करती यश से। अपने आप को पहले की तरह सहज बना कर रख पाना संभव हो पाता क्या?पहले की तरह क्या यश छोटी छोटी बात पर ठहाके लगा पाते और क्या मैं उन से बात बात पर उलझ पाती? रिश्तों में कितना कुछ दरक चुका है उसका हिसाब नही लगा पा रही। मन मे यह भी आता रहा था कि मेरे घर पर न मिलने से यश ने भी ऐसी ही राहत महसूस की होगी। कौन जाने...।

उस दिन न जाने क्यों कालेज के बाद घर जाने का मन ही नही किया था। सोचा बुआ के पास चली जाऊॅ, बहुत दिन से गयी भी नहीं हूं। पर अनायास ही मैंने कौशल्या दी के घर जाने का मन बना लिया था। नीता से पूछा था चलने के लिये और वह राज़ी हो गयी थी। पिछली बार काफी उलझी उखड़ी सी मिली थीं। तब से तो फोन तक पर बात करने का होश नही रहा। पहले कालेज का हंगामा...फिर मीनाक्षी का यह प्रकरण। उस के बाद मन इतना उदास और उलझा सा रहा कि कहीं जाने का या किसी से मिलने जुलने का मन ही नही किया। पर कौशल्या दीदी के पास तो जाना ही है।

करीब बारह बजे हम उनके घर पहुँचे थे। वे कोई लिस्ट बना रहीं थीं और बहुत सुस्त लग रही थीं, एकदम पराजित और पस्त हाल। मैंने पूछा था क्या लिख रही हैं दीदी तो धीमें से हँस कर उन्होंने कागज़ समेट लिये थे। उन्होंने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया था। फिर हमने भी कुछ नहीं पूछा था। वह बहुत धीमें स्वर में बात करती रही थीं, उखड़े ढंग से, जैसे कुछ और सोच रही हों। नीता ने उनसे सुस्त होने का कारण जानना चाहा था, ‘‘बहुत थकी सी और उदास लग रही हैं दीदी?’’

वे खिड़की के बाहर देखती रही थीं, जैसे किसी गहरे सोच में हों, जैसे अपनी बात का सूत्र पकड़ पाने में कठिनाई हो रही हो। उन्होंने नीता की तरफ देखा था और उनकी आवाज़ भर्रा गई थी,’’मैं चन्दर से अलग हो रही हूँ नीता।’’

हम दोनों एकदम स्तभिंत रह गये थे,‘‘मतलब’’ हम दोनो के मुह से एक साथ निकला था।

‘‘मतलब?’’ वे सुस्त सा मुस्कुराई थीं,’’आई एम लीविंग हिम।’’

’’मगर क्यों दीदी? ऐसा क्यों कह रही हैं। स्टाफ में कितने लोगों को कितना समझाती सम्हालती रहीं आप और आज आप खुद। वह भी अब, अब इस उम्र में। चन्दर भाई क्या रह सक हैं आपके बिना।’’नीता ने बहुत ज़ोर दे कर अपनी बात कही थी। मैं चुप ही थी। मेरे समझ ही नही आया था कि मैं क्या बोलूं।

’’क्यों नहीं रह सकते। रहना ही होगा। रहेंगे ही।’’ वह फिर चुप हो गई थीं और खिड़की की तरफ देखती रहीं थीं, ’’मुझे पता है जब तक पानी सिर के ऊपर से नहीं निकलता तब तक कोई भी औरत घर छोड़ने की बात नहीं सोचती। अनुश्री ने घर छोड़ा मैं उसकी तकलीफ समझती थी।उस के लिये घर छोड़ने के अलावा कोई रास्ता ही नही बचा था। केतकी ने घर छोड़ना चाहा उस की चोट भी जानती थी मैं। पर मैं तो हमेशा तूफान के भीतर सांसे लेती रही और कभी एक क्षण को भी घर छोड़ने की नहीं सोची। पर आज इस उम्र में,’’ उनकी आवाज भर्रा गयी थी। फिर वे चुप हो गयी थीं और बड़ी देर तक वैसे ही बैठी रही थीं।

‘‘केतकी ने घर छोड़ना चाहा’’ वाक्य पर मै और नीता दोनों एक साथ चौंके थे। केतकी ने हम लोगों को कभी इस बात का कोई आभास नही दिया था। फिर कौशल्या दी से ? मैंने कौशल्या दी की तरफ देखा था। वे एकदम थकी, अकेली और बहुत दुखी सी दिख रही हैं। केतकी को लेकर मन में बहुत से सवाल बने रहे थे। पर केतकी की बात करने का मौका नही है यह, इसलिये चुप ही रहे थे हम।

मैंने उनके कन्धें पर धीमें से हाथ रखा था ’’फिर दीदी आज क्यों।’’

‘‘जो भी हुआ भूल जाईए।’’नीता ने बहुत अपनेपन से कहा था,‘‘मैं ऐसा नहीं करने दूंगी आपको। न जाने कितनी बार आपने औरों को रोका था। आज मैं...’’

उन्होंने हम लोगों की बात बीच में काट दी थी,’’इस रिश्ते के ढोंग को मैं कब तक निभातीं रहूँ नीता?’’ उन्होने हमारी तरफ देखा था। उनकी आखों में आंसू हैं,’’फिर क्यों? किसलिए? किस के लिए?’’वे कुछ क्षण मौन रही थीं,‘‘व्हाई शुड आई?’’ उनके थके स्वर मे एक रोष, एक झुंझलाहट है।

हम दोनों उस दिन लगभग पूरे दिन ही उनके पास रहे थे। धीरे-धीरे वे खुली थीं। चन्दर भाई हवेली के मुकदमें के सिलसिले में अपने शहर गए थे। अपने मित्र के घर ठहरे थे। यहाँ आकर अपने मित्र को पत्र लिखा था...उसमें मित्र पत्नी की सुन्दरता की, उनकी योग्यता की, उनके अच्छे स्वभाव की भरपूर प्रशंसा की थी। अन्त में लिखा था कि ’’तुम कितने किस्मत वाले हो दोस्त कि तुम्हें ऐसी पत्नी मिली जिसने तुम्हें दो प्यारे प्यारे बच्चों का पिता बनाया।’’

इस अन्तिम वाक्य ने कौशल्या दी को पूरी तरह से तोड़ कर रख दिया था। बताते हुए उनकी आखों से आंसू गिरने लगे थे,’’मैंने तो सबके बीच में रहकर भी अपनी पूरी ज़िन्दगी सन्यासिनी जैसी काट दी बेटा। शादी के चालीस साल बाद भी मैं तो’’ कुछ अटपटा कर उन्होने अपना वाक्य आधा ही छोड़ दिया था। थोड़ी देर बाद बोलीं तो उनकी आवाज़ कॉपने लगी थी,‘‘चन्दर की जिस कमी को मैं कभी अपने मुंह पर नहीं लाई....घर वालों को, बाहर वालों को कभी अनुमान तक लगाने का मौका नहीं दिया। चन्दर ने कितनी आसानी से उसका दोष मेरे सिर मढ़ दिया। वैसा करते समय चन्दर ने एक बार कुछ नही सोचा। हाऊ कुड ही?’’ उनकी आवाज़ गले में फंसने लगी थी,’’टैल मी व्हाई शुड आई टालरेट द फार्स आफ दिस रिलेशनशिप एनी मोर।’’

मेरे कुछ समझ नहीं आया था कि मैं क्या कहूँ ’’आपने चन्दर भाई से इस विषय में कुछ बात की ?’’ नीता के मुॅह से अनायास निकला था।

’’नहीं’’ वे बहुत दृढ़ भाव से बोली थीं। मैं इस बारे में कोई बात, कोई सफाई, कोई डायलॅाग नहीं चाहती। इट इज़ ओवर नाऊ।’’

वे हमारी तरफ देखती रही थीं,‘‘आज लॉकर जाकर गहनों का हिसाब कर आई हूँ।’’ उन्होंने पास में रख्ो कागज उठाए थे,’’लिस्ट बना दी है। चन्दर के तरफ के गहनों में कौन-कौन से किसको देना है यह लिख दिया है। अपनी तरफ के गहने मैं अपने साथं ले जाऊँगी। इधर के बच्चों में देने के लिए।’’

’’साथ ले जाऊँगी मतलब?’’ हम चौंके थें। हमें पता था कि इस घर में दीदी की मौसी रहती थीं और उन के निधन के बाद यह घर दीदी के नाम एलॉट हो गया था,’’यह घर तो आपके नाम ही एलाटेड है न?’’नीता ने पूछा था।

’’हाँ है। पर मुझे ही जाना होगा नीता। एक तो मैं चन्दर को जाने के लिए नहीं कह पाऊॅगी। फिर वे जाएंगे कहाँ। इस शहर में उनका है कौन।’’उन्होंने अजब सी हताश मुद्रा में बारी बारी से हम दोनो की तरफ देखा था।

घर आने के बाद भी सारे समय दिमाग में कौशल्या दी और केतकी घूमते रहे थे। केतकी की वह दार्शनिक सी अल्हड़ मुद्रा याद आती रही थी। स्टाफ में कभी किसी के दुख दर्द के चर्चे होते हैं तो वह अजब तरह से हॅस कर पूरी बात को टाल देती है। हर बार एक ही वाक्य बोलती है,‘‘कभी किसी को मुक्कमल जहॉ नहीं मिलता,कभी ज़मी तो कभी आसमॉ नही मिलता।’’ केतकी को ज़मीन और आसमॉ में से क्या नहीं मिला था। क्या चाहिये था उसे? कौन सा दुख है उसके मन में? केतकी ने तो अपने मन की पीड़ा मुझ से और नीता से कभी बॉटी ही नहीं थी। कभी उसका आभास तक नहीं होने दिया। मन की बात एकदम मुह तक ले आने वाली केतकी अपने आप को लेकर ऐसे मौन कैसे रह सकी और कहा भी तो किससे? कौशल्या दी से? क्यों? क्या उन्हे वह अपने मन के सब से निकट पाती है ? उन पर भरोसा कर पाती है या उन में मदर फिगर ढूॅडती है वह या उनकी सोच की आधुनिकता पर भरोसा है उसे, जैसा भरोसा हम पर नही है उस को ? मुझसे और नीता से इतनी दूर है केतकी यह तो हम दोनो कभी समझ ही नही पाये थे। हम लोग तो अपने आप को उसका अंतरंग समझते थे। मीनाक्षी के चले जाने से क्या एकदम अकेली हो गयी है वह? केतकी के अकेलेपन को ले कर मैं और नीता अजब तरह से अपने आप को अपराधी महसूस करते रहे थे। पर उस विषय में केतकी से कुछ पूछ पाने का, या बात कर पाने का कोई उपाय नही है। बस आने वाले दिनों में हम दोनों उसके प्रति अधिक संवेदनशील और अधिक सहृदय हो गये थे, अधिक आत्मीय भी।

दो दिन बाद ही कौशल्या दी के घर से फोन मिला था कि चन्दर भाई नही रहे।

हमारे मन मे उलझन बनी रही थी। क्या चन्दर भाई उस आघात को नही झेल सके? उस भीड़ भाड़, बात चीत, आने जाने वालों के बीच भी मैं कौशल्या दी से पूछे बिना नही रह सकी थीं, ‘‘दीदी आपने चन्दर भाई से उस विषय में कोई बात की थी क्या?’’

कौशल्या दी ने मेरी तरफ देखा था,‘‘नही बेटा। ऐसी बातें फोन पर कहॉ की जाती हैं और आमने सामने?’’ वे सूखा सा मुस्कुरायी थीं, ‘‘चन्दर जी ने बात करने का मौका ही कहॉ दिया। उससे पहले ही चले गए। घर पहुचने से पहले ही पेट में दर्द उठा था और एयरपोर्ट से सीधे अस्पताल ले जाए गए थे। शायद अल्सर थे जो फट गए थे। हम लोग चन्दर जी की देह ही तो ले कर घर में लौटे थे।’’ वे फीका सा मुस्कुरायी थीं,‘‘चन्दर को अगर जाना ही था तो बात नही हो पायी सो भला ही हुआ। नही तो मेरे मन में तकलीफ रह जाती। चन्दर भी तो क्लेश ले कर जाते।’’ वे कुछ क्षण के लिए चुप रही थीं, फिर फीका सा मुस्कुरायी थीं,’’चलो कट गयी। चन्दर की भी और मेरी भी।’’

मैं और नीता बहुत समय तक चंदर भाई और कौशल्या दी की ही बातें करते रहे थे। हमें लगा था कि शायद बहुत भाग्यशाली थे चन्दर भाई। उन की एक बड़ी सी तस्वीर दीदी के कमरे में लग गई थी। दीदी पहले की तरह रहती रही थीं, लोगों के सुख दुख में शरीक होती रही थीं, रिश्त्ोदारों में,मित्रों में संबधों का दायित्व निभाती रही थीं। आना जाना पूर्ववत बना रहा था। वे पहले की तरह सर्कुलेशन में बनी रही थीं।

Sumati Saxena Lal.

Sumati1944@gmail.com