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दूसरा फैसला

दूसरा फैसला

मीरा ने नंबर देखा, माँ का फोन था, एक बार होठों पर मुस्कराहट तैर गयी, ये नंबर उसके लिए कितना कितना खास रहा है, उसके जीवन का संबल रहा है. तभी एक झटका सा महसूस हुआ, कुछ तल्ख़ यादें कानों में शोर मचाने लगीं.

गाँव का वो सूखा, पिताजी का साया सर से उठ जाना और फिर माँ का सभी दो भाई व् एक बहन को लेकर काम की तलाश में दिल्ली शहर आ जाना. दिल्ली शहर, जो सबको अपना लेता है. जहाँ बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएं भी है तो छोटी-छोटी झुग्गी बस्तियां भी. हाथ-पाँव बस जरा सा चलते रहे तो सबका पेट भर ही जाता है. माँ ने भी कुछ जान –पहचान वालों के पास यमुना पार एक झुग्गी ले ली थी. दीपा चाची के कहने पर शुरू में एक घर मिला फिर चार-छ: घर मिल गए. जीवन की गाडी घसिटने लगी. मीरा घर में सबसे बड़ी थी. गाँव से बस अक्षर पहचानना ही सीख पायी थी. पाँच साल की नन्हीं उम्र में माँ के साथ काम पर जाने लगी थी. नन्हें हाथों से कभी झाड़ू सँभालने की कोशिश करती तो कभी माँ के माजे हुए बर्तनों को पानी से धोने की कोशिश. परिस्थितियाँ सब सिखा देती हैं. जीवन की पाठशाला ने नौ साल तक आते –आते सब घरेलु कामों में दक्ष कर दिया. अब झाडू सरपट दौड़ती तो बर्तन उसकी आकार लेती रेखाओं की चमक फीकी कर चमक उठते. सब लोग उसके काम की तारीफ़ करने लगे पर अब वो माँ के साथ नहीं जाती बल्कि माँ ने उसे और घरों में काम पर लगा दिया.

उम्र जैसे –जैसे बचपन का भोलापन पार कर किशोरावस्था की ओर सरकने लगी, उसे ढेरों काम मिलने लगे. कहीं सफाई, कहीं बर्तन, कहीं डस्टिंग और कहीं सब्जी काटना से लेकर खाना पकाने के भी काम मिलने लग गए. घर आ कर भी वो माँ के साथ रसोई व् छोटे भाई बहनों की देखभाल में माँ के साथ लगी रहती. घर में चार पैसों की बरक्कत हुई तो भाइयों की पढाई के बारे में सोचा गया. उसके लाख कहने के बावजूद स्कूल के नाम पर पार्कों में इधर-उधर बैठ कर समय काटते भाइयों के साथ पढने की तीव्र इच्छा रखने वाली छोटी को माँ ने स्कूल नहीं भेजा. उस पर बेकार सा तर्क कि लड़की है, जमाना खराब है, हम तो काम पर निकल जाते हैं कुछ ऊँच नीच हो गयी तो. कई बार वो सोचती कि ऊँच-नीच क्या उसके साथ काम पर नहीं हो सकती. कितनी बार जब मेमसाहब लोग घर में नहीं होतीं तो पोंछा लगाते हुए साहब लोगों की लोलुप लपलपाती जीभ को उसने अपनी देह पर महसूस किया था. माँ से कहा भी था, तो उनका तर्क यही होता, अभी काम करे रहो जब बात बिगड़ेगी तब देखा जाएगा, वैसे भी हम गरीब काम नहीं करेंगे तो खायेंगे क्या? और वो निरुत्तर हो जाती.

माँ कहतीं हैं तो सही ही होगा.नन्हीं उम्र ये कहाँ समझ पायी कि माँ की ममता भी उसकी संतानों के लिए अलग –अलग हो सकती है. उसने अपने नसीब से समझौता कर लिया था. मेहनत और अपने हाथ –पैरों पर भरोसा भी. तब से शादी तक सुबह से ले कर -देर शाम तक घर-घर सफाई -बर्तन करके न जाने कितना कमा-कमा कर दिया था माँ को घर खर्च के लिए. कभी खुद के लिए दो पैसे भी नहीं रखे. कभी कोई शौक जाना ही नहीं था, भाई -पढ़ जाएँ, बहन की अच्छे घर शादी हो जाए, माँ ठीक से रहे यही उसकी मेहनत का सबसे बड़ा पारिश्रमिक था. हाँ बड़े घरों से कपड़े-लत्ते मिल जाते, कभी-कभी कुछ क्रीम और शैम्पू भी. वो उतने में ही खुश थी .फिर माँ भी तो कितना लाड़ करती थीं. मेरे घर की लक्ष्मी कहते-कहते नहीं अघाती थीं. घर में भाइयों के बाद उसकी बात ही चलती. वो इसी पर न्योछावर रहती.

उम्र पर जब वसंत लगा तो उसके लिए वर की खोज होने लगी. माँ ने अपनी तरफ से समझ कर सही लड़का देख हाथ पीले कर दिए और वो हाथों में मेहँदी लगा, आँखों में सपने सजा पी के घर चली आई. यमुनापार से सीमापुरी की झुग्गियों में उसका तबादला हो गया. नयी शादी का नशा कपूर की तरह उड़ गया. पति दिनेश शराबी निकला. जितना कमाता उड़ा देता.किसी –किसी दिन तो घर में खाने को भी नहीं होता. उसने आस –पास के घरों में काम करने का फैसला किया. चार सालों में दो बच्चे और चार प्राणियों का पेट भरना उसकी जिम्मेदारी थी. जिन्दगी एक बार फिर रेल बन गयी. मायके जाना भी कम ही होता. जब सबके लिए कुछ उपहार लेने लायक पैसे हो जाते तब जाती. माँ खुश हों जातीं. ढेरों आशीष देतीं भाई –बहन आगे पीछे घूमते. उसके स्थान को छोटी बहन ने भर दिया था. अब उसकी जगह उसकी छोटी बहन काम पर लग गयी. अब वो घर की लक्ष्मी थी.

शराबी के साथ गुज़ारा आसान नहीं होता. जीवन चूल्हे की हांडी पर चढ़ी दाल सा उबल रहा था. पति गृह में दो बच्चे और पति की मार के सिवा कुछ भी तो नहीं मिला उसे. घरों का काम तो यहाँ भी करती थी पर माँ की तरह पति इज्ज़त नहीं देता था. अक्सर माँ का घर की लक्ष्मी कहना याद आता. हाड़ –तोड़ कर कमाए गए महीने के पैसे भी घर के काम ना आ पाते. चाहे जितना छुपा के रखो, शराब में उड़ा देता. बच्चों की पढाई के लिए कुछ कहने पर जबाब में मार मिलती. कभी –कभी तो जहाँ काम करती वहीँ छुपा कर रखने को कहती पर शराबी दिनेश वहां भी जा कर लड़ाई –झगड़ा करता. देने ही पड़ते. शीना मैडम उसे कितना प्यार देती थी. स्कूल में पढ़ातीं थी. उन्होंने ने ही उसे पैसे बैंक में रखने को कहा था. साथ जा कर बड़े मन से अकाउंट खुलवाया. जाने कहाँ से उसके पति को भनक पड़ गयी. शीना मैडम के घर के बाहर ही शराब पी कर चिल्लाने लगा. उन्होंने बीच-बचाव किया तो मार कुटाई की नौबत तो नहीं आई पर बैंक ले जाकर सारे पैसे निकलवा लिए. उसने ही शीना मैडम को आगे से बैंक में डलवाने के लिए मना कर दिया. “क्या फायदा मैडम, भाग्य ही खोंटा है, हम तो अपने नसीब का ढो ही रहे हैं, आप मत बीच में पड़िए. मुहल्ले-समाज में आप की इज्ज़त है, उस आदमी का कोई भरोसा नहीं.” शीना मैडम भी चुप रह गयीं. फिर वही आटे के कनस्तर में या तकियों, गद्दों के नीचे छिपाना शुरू किया और फिर वही मार-पीट के बाद सारा घर खखोरकर चुरा लेना चलता रहा.

वर्ष दर वर्ष बीत रहे थे. भाईयों की शादी हो चुकी थी. बड़ा भाई अपने परिवार के साथ अलग हो चुका था और माँ छोटे बेटे और बहु के साथ जीवन गुज़ार रही थी. छोटी बहु और बहन भी काम पर जाती थी. छोटे बच्चे की मान होने के कारण भौजाई को कम ही काम मिलते. छोटी बहन ही कमाऊ पूत थी. जो घर खर्च और अपने लिए दहेज़ वही जुटा रही थी. वो सोचती खुद की चिंता क्या बताना. वैसे भी जीवन भर दूसरों के घरों में माँ ने बर्तन रगड़े हैं, कम से कम बुढापे में तो सुकून की साँस लें. पर सहने की एक सीमा थी. आज भी उसकी आँखों के आगे दर्द सी खिंची रहती है जनवरी की वो सर्द रात जब पति ने जानवरों की तरह इतना पीटा कि कि उठने की ताकत भी न रही, बच्चे भूख से व्याकुल तड़प रहे थे, नौबत इलाज़ की आ गयी थी. किसी तरह से भाई को फोन करके ले जाने को कहा.

कितना रोई थीं माँ उस दिन उसकी हालत देखकर. इलाज के लिए उसने अपनी पायलें बेच दें थीं थोड़ा बहुत पैसा माँ ने भी लगाया था. इस कारण भाइयों की सुनी भी थी, फिर भी वो उसे बचा लेना चाहतीं थी. इसी से उसको संबल मिला था और माँ के पास आ कर उसने फैसला कर लिया अब वो यहीं कमरा किराए पर ले कर रहेगी, बच्चों को पढ़ाएगी. अपना जीवन खराब हुआ तो क्या बच्चों का जीवन ख़राब नहीं होने देगी. इतने लड़ाई झगडे में रहना उनके लिए ठीक नहीं. माँ ने फैसले में साथ दिया. फिर वो बचपन से बहुत हिम्मती थी, जीवन ने उसे मजबूत बना दिया था. जल्दी ही कालोनी में दो काम मिल भी गए. पर दो कामों से तो किराया भी नहीं पूरा पड़ता. उम्मीद थी कि जल्दी ही और काम मिल जायेंगे. माँ कभी दो –चार पैसे की मदद कर देंती पर भाई तो उसे देखते ही मुंह फेर लेते कि कहीं कुछ माँग न ले. वो स्वाभिमाननी मन ही मन हँसती, जिन्हें बचपन में कमा -कमा कर खिलाया है उनसे पैसे थोड़ी ही लेगी, नाहक ही डरते हैं. वो तो भावनात्मक संबल और सुरक्षा के लिए यहाँ रह रही है, वरना अकेली औरत... किस –किस से जान छुटायेगी. अपनी जिंदगी के दर्द तो उसे खुद ही सहने हैं पर यहाँ कम से कम अपनापन तो है. कट ही जायेगी जिन्दगी की रात इन जुगनुओं की चमक से.

इन जुगनुओं की चमक बहुत जल्दी मद्धिम पड़ने लगी. पास रहते हुए भी भाई दूर -बहुत दूर होते जा रहे थे. बड़ी भाभी ने कन्या खिलाई थी इन नवरात्रों में, पूरी बस्ती में प्रसाद बांटा, पर उसके यहाँ चम्मच भर हलुआ भी नहीं भेजा. दिल दुखता था तो कोठियों में जहाँ वो काम करती थी वहाँ बड़बड़ाकर मन का गुबार निकाल देती. कोठी की मालकिने भी मन से सुनती. कभी-कभी सलाह भी देतीं , "अरे क्यों चिंता करती है, तुम लोग हो या हम लोग, जब घरवाला नहीं पूछता तो किसके भाई पूंछते हैं ? तू तो बस अपने बच्चों पर ध्यान दे." वो भी इस नसीहत को मान चाय सुडकते हुए अपना दर्द सुड़क जाती. कामवाली भले ही थी पर वो जानती थी कि औरत अमीर हो या गरीब दोनों का दर्द एक ही होता है, डाल से टूटे पत्ते की तरह उसकी पीड़ा एक ही होती है. शुक्र है माँ का हाथ तो उसके सर पर है. वो हर मुसीबत से टकरा जायेगी.

शांति जीजी समझातीं, “मेट्रो पकड कर नॉएडा चली जाओ. वहां तलाश करो. वहां महंगे काम मिलते हैं. बड़े-बड़े घर है. ड्यटी तगड़ी है. छुट्टी नहीं ले सकतीं.मेरी बहन करती है वहाँ काम, शुरू में एक आध घर बता देगी.” वो मना कर देती. मन ही मन सोचती कि पचास का तो रोज का मेट्रो का किराया ही हो जाएगा. फिर यहाँ दोपहर में अपने बच्चे भी देख आती है.” कुछ लोग अपनी कामवाली हटा कर उसे लगाने को कहते तो भी वो मना कर देती. किसी के पेट पर क्या लात मारनी. फिर पूरानी लगी हुई काम वालियां जल्दी हटती भी तो नहीं. बचपन से देखा है कि मैडम लोग हटा भी दें तो कामवाली घर छोड़ने को तैयार नहीं. अक्सर पार्क में पेड़ों के झुरमुट के पीछे बैठ कर गाली गलौज के साथ, “ तूने मेरा घर कैसे ले लिया कि घंटों तू –तू, मैं-मैं होती रहती. बचपन से ही उसे इससे बहुत कोफ़्त होती थी.

तभी सुखद संयोग से छोटी भाभी गर्भवती हो गयी. चक्कर और उल्टियों वजह से उसे अपने काम छोड़ने पड़ें. उसने मीरा को 156 नम्बर वाली भाभी का काम सौंपते हुए कहा, " दीदी बच्चा होने के एक महीने बाद मेरा काम वापस कर देना". उसने हामी भर दी.वह बड़ी ही लगन से काम करने लगी. सभी कोठियों की मालकिने उसके काम से खुश थीं. दिन बीतते -बीतते उसकी चिंता बढती जा रही थी. लाख कोशिश के बाद भी उसे नए काम मिले नहीं थे, इधर भाभी के नौ महीने पूरे होने वाले थे. उसने तय कर लिया था कि बच्चों को पूरा पड़े या न पड़े, भले ही पढाई छूट जाए पर भाभी जब काम मांगेंगी तो उनके काम उसे सौप देंगीं. आखिर काम के पीछे रिश्ते थोड़ी न बिगाड़ने हैं. सुख -दुःख में यही लोग तो काम आते हैं.

पर चिंता ने उसके शरीर को कमजोर कर दिया था. मुहल्ले के कोने वाली भाभी ने आज बुलाया था. कामवालियों के बीच में उनका काम बहुत तगड़ा माना जाता था. ज्यादातर उनके काम से बचतीं थी. पर उसने तय कर लिया था कि जब तक कोई और काम नहीं मिल जाता, उसी काम को पकड लेगी. सुबह हलकी हरारत थी. देर से उठी और देर से ही काम पर आई. कोने वाली भाभी से बात करने में और देर हो गयी. तेजी से भागते हुए 156 नंबर की कोठी में पहुँची. भागते –भागते सीढियाँ चढ़ीं. घंटी बजाने ही वाली थी कि देखा दरवाजा खुला हुआ है. मैडम से किसी के बात करने की आवाजें आ रहीं थी. उसने गौर किया ये तो माँ की आवाज़ थी. माँ यहाँ क्या कर रहीं हैं?उसने बातों पर कान लगा दिए.

माँ मालकिन से कह रहीं थीं, " छोटी बिटिया की भी शादी तय हो गयी है. आप तो जानती ही हैं , दौड़ - दौड़ कर कई घर कर लेती थी उसी से हमारा घर चल रहा था. अब बड़ी मुश्किल आएगी, बेटा तो वैसे ही कुछ करता धर्ता नहीं है. बड़ा पहले से ही अलग अपने बीबी बच्चों के साथ रहता हैं हमें दो कौर को भी नहीं पूछता. हमारी भी उम्र हो गयी है कोई सफाई का काम देता ही नहीं. ये बहु ही है जो साथ निभा रही है. समझदार है, जानती है निखट्टू आदमी के साथ अकेले कैसे बच्चे पालेगी. बच्चा हो जाए तो फिर काम पर आएगी. आप मीरा से कह देना बहु ही काम करेगी, उसी का तो काम था. फिर थोडा रुक कर बोली, “अब मीरा करेगी तो अपने बच्चों के लिए करेगी, बहु करेगी तो हमारा भी कुछ इंतजाम हो जाएगा बुढापे में. सब सोचना पड़ता है”.

इससे आगे मीरा से नहीं सुना गया. आँखे डबडबा उठी. जल्दी से बाहर खुली हवा में आ गयी .वो तो खुद भाभी को काम देने वाली थी, माँ उसी से साफ़ -साफ़ बात तो कर के देखती . क्या स्वार्थ ही सब कुछ है, जी में आया माँ से आज उन पैसे का हिसाब माँगे जो उसने बचपन में कमा कर दिए थे. पर क्या फायदा ... अब माँ परायी जो हो गयीं थी. माँ का स्वार्थ बहु से था, बेटी से नहीं. दो दिन तक वो काम पर नहीं गयी. भूखी -प्यासी बुखार में तपती बिस्तर पर पड़ी रही. रिश्तों के मरने से भूख भी मर गयी थी. पर बच्चों को भूखा कैसे मरने देती. हिम्मत कर के उठी ही थी माँ का फोन आ गया.

मीरा वर्तमान में लौटी ... घंटी अब भी बज रही थी. उसके फोन उठाया. माँ की आवाज थी, "बहु को फिर लड़की हुई है. क्या भाग्य है, दूसरी भी लड़की ही हो गयी. दहेज़ जुटाना पड़ेगा, माँ की आवाज़ में परेशानी साफ़ -साफ़ झलक रही थी.

मीरा ने बीच में बात काटते हुए कहा, " ये तो ख़ुशी की बात है माँ, बस आठ -नौ साल खिला दो , फिर तो वो कमा कर खिलाएगी और दहेज़ का इंतजाम भी खुद ही तो कर लेगी, फिर दुःख काहे का. हाँ माँ , एक बात और कहनी थी मैं अभी नहीं छठी पर आउंगी, नेग में भाभी का 156 नंबर वाला काम उन्हें सौंप दूंगी" कहकर उसने फोन काट दिया.

आज उसने दूसरा फैसला भी ले लिया. औरत अकेली नहीं होती उसके साथ उसकी हिम्मत होती है. उसने तय कर लिया था, अब वो यहाँ नहीं रहेगी. जिस अपनेपन की तलाश में वो यहाँ आई थी, जब वो ही नहीं तो यहाँ क्यों रुके. जब तक हाथ -पैर चलेंगे, कहीं भी काम कर खा लेगी. वह फोन पर शांति जीजी की नॉएडा वाली बहन का नंबर खोजने लगी.

वंदना बाजपेयी

मौलिक व् अप्रकाशित

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