अपने–अपने ईश्वर Vandana Bajpai द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अपने–अपने ईश्वर

अपने–अपने ईश्वर

उस समय मैं शायद ढाई या तीन साल की बच्ची थी| जब घर के मंदिर में माँ को पूजा करते देख पूछती थी| मंदिर में रखी मूर्तियों को माँ स्नान करातीं, भोग लगा तीं, धूप –दीप दिखाती, और भजन गातीं तो मुझे बहुत अच्छा लगता| माँ के पास बैठ कर तोतली बोली से पूछती, " माँ ये कौन हैं?" और माँ मेरे सर पर हाथ फेर कर बताती थी, कि श्रेष्ठा ये भगवान् हैं, ये ही दुनिया में सब को सबकुछ देते हैं | “अच्छा माँ, टॉफी भी देते हैं” मैं माँ से पूछती | क्योंकि उस समय तक मेरी दुनिया टॉफी तक ही सीमित थी| माँ ने हँस कर कहतीं, “बेटा हाथ जोड़ कर ईश्वर से माँगो तो वो टॉफी जरूर देंगे|” अक्सर माएं ऐसे ही तो समझातीं हैं| माँ के कहने पर टॉफी के लालच में मैं हाथ जोड़ लिए लेती, लगता कोई है, दूर पर इतना शक्तिशाली कि उससे जो माँगों वो मिलेगा| वो दाता है सर्वग्य है पर मांगने पर देता है, जो नहीं माँगेगा वो जिंदगी की दौड़ में पीछे छूट जाएगा |

उस दिन मुझे टॉफी मिल भी गयी |शायद माँ ने ही लाकर मंदिर में रख दी थी| पर उस दिन के बाद ईश्वर से माँगने के लिए मेरे हाथ सदा जुड़े ही रहे, कभी खुले ही नहीं | जुबान पर रखते ही मेरे मुँह में मिठास घोलने वाली टाफियाँ बड़ी होती गयी, कभी फ्रॉक, कभी मनचाहा खिलौना,कभी फलाना स्कूल में दाखिला, कभी क्लास में फर्स्ट आना,.. और मेरे ईश्वर, मेरे भगवान् हर बार मुझे देते ही चले गए | इतना ही तो जाना था मैंने ईश्वर को| यही रिश्ता था हमारे बीच|

कक्षा एक में जब स्कूल में मेरी दोस्ती फरजाना और सैम से हुई | तब मुझे पता चला कि हम सब की फरमाइशे पूरी करने वाला ईश्वर भी अलग-अलग है| जैसे-जैसे मैं बड़ी हुई मुझे बहुत सारे ईश्वरों के बारे में पता चला | सब की फरमाइशें पूरी करने वाले ईश्वर अलग थे, जो शायद वहाँ यानि दूसरी दुनिया में प्यार से रहते थे पर हम् क्लास में इस डिबेट में उलझे रहते कि किसका ईश्वर बड़ा है | हमारे ईश्वर का बड़ा होना हमारे बड़े होने का सबूत था| और हमें दूसरों से ज्यादा मिल पाने का आसरा भी|

समय बढ़ता गया | हम सब अपने-अपने ईश्वरों के साथ बड़े होते गए और साथ में बड़ी होती गयीं हमारी फरमाइशें और हमारे अहंकार भी| हम सब खुश थे | अपने - अपने ईश्वर के साथ, उनसे मांग कर और उनसे पा कर |

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समय बदला| वो दंगों का दौर था| पूरा देश उन्मादी हो गया था| स्वास्तिक ऑफिस से नहीं लौटे थे| फोन भी नहीं उठा रहे थे| मेरे दोनों हाथ ईश्वर के आगे जुड़े थे, “ हे ईश्वर ! स्वास्तिक, मेरे सुहाग की रक्षा करना| आप तो सर्व शक्तिशाली हो| हमेशा उन लोगों की फ़रियाद सुनते हो जो आप से कुछ मांगते हैं | मैंने जब –जब माँगा है आपने दिया है | इस बार फिर से मेरी पुकार सुन कर मेरी कामना पूरी करो |”

मुझे अपने ईश्वर पर यकीन था, पर स्वास्तिक नहीं आये| उनकी खबर आई | मैं बदहवास सी हॉस्पिटल पहुँची | कर्फ्यू की वजह से किसी को साथ भी नहीं ले जा सकी | अकेले रोती-कलपती किस हाल में पहुँची पता नहीं| वहाँ स्वस्तिक, बुरी तरह घायल एक बिस्तर पर कराह रहे थे| कल ही तो स्वास्तिक कह रहे थे कि माहौल बहुत खराब है वो लोग कभी भी कुछ कर सकते हैं | मैं जोर-जोर से चीखने लगी ... “सही कह रहे थे स्वास्तिक, उन लोगों की फितरत का कोई भरोसा नहीं| हे ईश्वर! आज तुमने भी सहारा नहीं दिया|” काफी देर रोने चीखने के बाद जब एक पल का मौन आया तो मुझे लगा मेरी चीखों में कई और चीखें शामिल हैं | जो अपने किसी परिजन को खो चुकी थी या उनके घायल शरीरों के पास बैठ तड़प रहीं थी| उन्हीं चीखों में से एक चीख जानी पहचानी लगी |

ओह ! ये फरजाना थी | घायल वसीम के पैताने बैठ कर जोर - जोर से चीख रही थी, “ सही कह रहे थे तुम वसीम ... वो लोग कुछ भी कर सकते हैं| क्या बिगाड़ा था तुमने उनका .... या अल्लाह तूने भी मदद नहीं की|”

मैं फरजाना की ओर बढ़ चली | मैंने उसके कंधे पर हाथ रखा ......और दर्द ने दर्द से बात कर ली | वहां कितने ही लोग थे जो घायल थे, जिन्होंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा था, बस एक उन्माद की भेंट चढ़ गए थे | ना जाने कितनी श्रेष्ठा और फरजाना थीं जो आँसू बहाती हुई दूसरे के आँसू पोछ रहीं थी | कितने जनाजों को कंधा देने के लिए पहुँचे विकास और सूरज छाती पीट रहे थे | कितनी अर्थियों के आगे मुख्तार और अहमद फूट –फूट कर रो रहे थे| दो पल पहले की हिंसा से कितना अलग था ये दृश्य| यहाँ नारों से और धर्म की पताकाओं से अपने ईश्वर की श्रेष्ठता सिद्ध नहीं करनी थी| इस इंसानियत का दामन थाम कर ईश्वर खुद उनकी रूहों में उतर आया था |

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दंगों का राक्षस कई लोगों का लहू पी कर शांत हो चुका था पर दर्द की खरोंचे जेहन में जिन्दा रह गयीं थी| इस चोट ने मेरी आस्तिकता पर भी प्रश्न लगा दिए | माँगने और पाने का रिश्ता ही शायद हमें स्वार्थी बना रहा था | अपने अपने ईश्वर को बड़ा सिद्ध करते –करते ना जाने कब हम अपने –अपने धर्म को बड़ा सिद्ध करने लगे थे | ये स्वार्थ की इन्तहां ही तो थी कि अपने –अपने ईश्वर के पक्ष में खड़े हम इंसानियत का कत्ल करने में एक पल भी नहीं सोचते | दूर फरजाना का भी यही हाल था | हमारी फोन पर बात होती | हम दोनों धर्म के मूल तत्व की और बढ़ चुके थे | जहाँ ईश्वर अगर थे भी तो इस कदर मेरे –तेरे ईश्वर के रूप में बंटे हुए नहीं | काश की हम समझ पाते कि अपने –अपने ईश्वर को बड़ा सिद्ध करने में हम जीतते नहीं सिर्फ हारते हैं |

सवास्तिक और वसीम को चोटों से उबरने में बहुत समय लगा| जिंदगी तो चलानी ही थी| हम दोनों ने अलग-अलग स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया| धीरे –धीरे जख्मों के निशान के साथ जिन्दगी की गाडी पटरी पर आने लगी| वो दिसंबर की सर्द शाम थी | जब इंटरस्कूल कल्चरल प्रोग्राम था | मेरी और फरजाना दोनों की ड्यूटी बच्चों को सँभालने में लगी थी | हम दोनों साथ-साथ ही बच्चों को सँभालने का काम कर रहे थे | इसी बहाने कुछ बात भी कर पा रहे थे | फिर एक दूसरे के पास होने का अहसास तो था | जो हमारे दर्द को कुछ हल्का कर रहा था |

तभी हमारी नज़र दो बच्चियों पर ठिठक गयी | जो आपस में अपने-अपने ईश्वर को श्रेष्ठ साबित करने में लगीं थी | पूरे दावे के साथ अपने - अपने ईश्वर के पक्ष में अपने पॉइंट्स रखती उन दो बच्चियों में हमें बचपन की श्रेष्ठा और फरजाना नज़र आई |

लाख कोशिशों के बाद भी हमारी आँखें नम हो गयी | अपने-अपने ईश्वर के पक्ष में नहीं, उनके नाम पर मानवता को बांटने की साजिशों पर | जिसका पता बहुत देर बाद चलता है |

वंदना बाजपेयी