फुलवा Vandana Bajpai द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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फुलवा

फुलवा

उफ़ ! अभी तक महारानी नहीं आयीं, घडी देखते हुए मेरे मुँह से स्वत: निकल गया | सुबह का समय वैसे भी कामकाजी औरतों के लिए बहुत कठिन होता है, एक हाथ और दस काम, क्या –क्या करें? आखिर इंसान हैं या मशीन, ऊपर से कामवाली का ना आना | सिंक में पड़े हुए बर्तन मुँह चिढ़ा रहे थे | करना तो पड़ेगा ही, सोचते हुए मैंने स्वेटर की बाँहें ऊपर चढाते हुए बर्तन माँजने का जून उठा लिया | तभी डोर बेल बजी | “अरे ! कोई गेट तो खोल दो या ये जिम्मेदारू भी मेरी ही है,”मैंने बडबडाते हुए कहा और बर्तन धोने में लग गयी |

“आंटी, माँ गाँव गयीं हैं | फसल को लेकर झगड़ा हो गया है | महीना भर काम पर नहीं आयेंगी, उनकी जगह मैं काम करुँगी |” मीठी सी ये आवाज़ मेरे कानों में पड़ी तो मैंने पलट कर देखा | करीब १३ -१४ साल की बच्ची, माध्यम कद, साँवला रंग, सलोनी सी सूरत और उन सब से ऊपर बिल्लौरी आँखें ....और आँखों में अजीब सी चमक | मेरे हाथ दो पल के लिए रुक गए | “क्या ... नाम क्या है तुम्हारा?” मैंने हकलाते हुए सा पूंछा | “फुलवा”, कहते हुए सचमें उसका मुँह गेंदे के फूल की तरह खिल गया | मैंने फिर कहा, “ पर तुम्हारी उम्र तो कम है, मैं तुमसे काम कैसे करवा लूँ, ये तो कानून के खिलाफ है | मैं खुद इस बात का विरोध करती हूँ | फिर मैं तो एक अध्यापिका भी हूँ, मेरे लिए सिद्धांतों का पालन जरूरी है |”मैंने ऐसे कहा जैसे स्वयं कही हुई बात से पूर्णतया सहमत न हो पायी हूँ |

“तो क्या हुआ आंटी, मैं तो कई घरों में काम करती हूँ | काम करे बिना घर का खर्च कैसे चलेगा | अब माँ गयीं हैं तो उनके भी एक दो घर करने हैं | माँ खास तौर पर आप के घर का काम करने को कह गयीं हैं क्योंकि आप पढाने भी जाती हैं | आपके पास तो समय भी कम है”, वो एक साँस में कह गयी | पर ....मैंने अनिर्णय की स्थिति में कहा | “करवा लो न आंटी, प्लीज, एक महीने की ही तो बात है | माँ ने कहा है तुम खुद पैसे रख लेना | वैसे भी मैं पैसे जोड़ रही हूँ, मेरा मोबाइल आ जाएगा ...प्लीज आंटी |” उसकी मासूम सी बात पर मुझसे मुस्कुराए बैगैर न रहा जा सका | मैंने पलट कर उसकी ओर देखा .... वही बिल्लौरी आँखें ....और आँखों में अजीब सी चमक | “ठीक है, ठीक है पर एक महीने से ज्यादा नहीं” कहकर मैंने उसे जूना पकड़ा दिया | यह स्वीकृति मेरा स्वार्थ थी या उसके प्रति एक अजीब सी कशिश जिसे मैं आज तक नहीं समझ पायी हूँ |

फुलवा बर्तन मलने लगी और मैं हाथ धो कर पराठे सेंकने में व्यस्त हो गयी | फुलवा ने बर्तन मलते –मलते पूंछा,” आंटी आप तो टीचर हैं, बहुत बच्चे पढ़ते होंगे आपके स्कूल में, बैग ले कर बोतल ले कर स्कूल के प्रेस करे हुए कपड़ों में आते होंगे ... है ना आंटी ?” उसके मासूम सवाल दरकिनार करते हुए मैंने कहा, “ बातें बाद में जल्दी काम करो देर हो रही है, हां सफाई के लिए दोपहर बाद आना, जब मैं स्कूल से आ जाऊं | दरअसल मैं पहले दिन से उसकी ज्यादा बात करने की आदत नहीं डालना चाहती थी | कितनी कामवालियों को मैं जानती हूँ, एक बार शुरू हो जाएँ तो चुप होने का नाम ही नहीं लेती | इसके उसके कितने किस्से होते हैं उनके पास | वहां की बात यहाँ, यहाँ की बात वहां, खाली दिमाग शैतान का घर |

दोपहर को मेरे घर आते ही फुलवा चहकती हुई आ गयी और बोली,” आंटी सफाई कर दूँ ?”

अरे, थोड़ी देर सांस तो ले लेने दो | अभी तो स्कूल से आई हूँ, आधे घंटे बाद आना कहकर मैं बच्चों की कापियाँ मेज पर रखने लगी | फुलवा झाड़ू लिए –लिए मेरे पास आ कर खड़ी हो गयी |

फुलवा : आंटी ये बच्चों की कापियां हैं

हूँ, मैंने सर झुकाए –झुकाए उत्तर दिया |

फुलवा : आंटी ये बड़े बच्चों की कापियाँ हैं ना जो पेन से लिखते हैं, छोटे बच्चे तो पेंसिल से लिखते हैं ... हैं ना !

तुझे बड़ा पता है, मैंने मुस्कुरा कर कहा |

फुलवा : वो आंटी .... मेरे दोनों भाई पढ़ते हैं ना, बड़े होकर दोनों नौकरी करेंगे कहते हुए उसकी आँखों में वही अजीब सी चमक आ गयी |

तो तू क्यों नहीं पढ़ती फुलवा, उसकी स्थिति-परिस्थिति जानते हुए भी मुँह से अचानक ये निकल ही गया |

फुलवा विचलित हुए बिना बोली,” आंटी अगर मैं पढूंगी तो घर का खर्च, माकन का किराया भाड़ा, बापू की दवाई सब रुक जाएगा | मेरा एक ही सपना है मेरे भाई पढ़ जाएँ ... वो बड़ी –बड़ी मोटी –मोती किताबें, फिर एक दिन उस साहूकार का हिसाब भी, जिसका ब्याज चुकाने के लिए हमें शहर आना पड़ा और बापू को लकवा मार गया | आंटी, ऐसा हो सकता है ना ...वही बिल्लौरी आँखें और ...आँखों में अजीब सी चमक |

मैं हतप्रभ थी, दुःख को एक झटके में झटक आशा का दामन थाम लेना | उफ़, ये नन्ही बच्ची, कितना कुछ सीखना है मुझे इससे | ये मोटी –मोटी किताबें ... हाँ कितनी मोटी-मोती किताबें पढ़ी हैं मैंने, फिर ... फिर क्यों अटक जाती हूँ अपने किसी दुःख पर, नाचती रहती हूँ उसी के चरों ओर, जैसे धरती नाचती है सूर्य के चारों ओर ... अनवरत |

अब तो फुलवा का रोज का कर्म हो गया था | मेरे स्कूल से आने के टाइम पर गेट पर ही खड़ी मिलती | मेरे हाथों से कापियों का बण्डल उठाकर ऊपर लाती उन्हें मेज पर रखती | जितनी देर मैं हाथ मुँह धोकर कपडे बदलती वह उन किताबों को उल्ट –पुलट कर देखती रहती | मैं इसे बाल मन की जिज्ञासा मान कर देखकर भी अनदेखा करती रहती | फुलवा हर दिन मुझसे स्कूल, स्कूल के बच्चे उनकी पढाई के किस्से सुनना चाहती | मेरे बच्चे जब स्कूल से लौटते तो उन्हें देखकर कहती, “ आंटी, दीदी, भैया स्कूल के कपड़ों में कितने सुंदर लग रहे हैं, इनकी फोटो खींच लो| मैं हंसकर टाल देती |

उस दिन की बात है, मैं बहुत थक गयी थी | स्कूल से आकर मैं जल्दी खाना पीना खत्म कर आराम करना चाहती थी | मैं अपने काम निपटा कर बेड रूम की तरफ बढ़ी .... पर ये क्या फुलवा तो अभी तक झाड़ू लिए हुए स्कूल के बच्चों की कापियां उलटने –पलटने में लगी थी | कुछ पन्ने खोल कर अंगुली ऐसे चला रही थी जैसे सब पढ़ लेगी | मैंने लगभग डांटते हुए कहा, “ फुलवा जल्दी काम करो, मुझे गेट बंद करके लेटना भी है |

जी आंटी ... पर आंटी एक बात बताइए जो बच्चे पढ़ते हैं उन्हें कित्नाक अच्छा लगता होगा ना | उन्हें किसी से कुछ पूछना नहीं पड़ता होगा | कौन से नंबर की बीएस में बैठना हैं?, ये कौन सा प्लेटफ़ॉर्म है ?, सामने बोर्ड पर क्या लिखा है ?, और दवाई ... दवाई कौन से देनी है ... चिलचिला देखकर नहीं नाम पढ़कर ... हैं ना आंटी |

मैं उसके उतरे चेहरे से भीतर से कहीं टूट गयी | तुरंत उसे कोई उत्तर न दे सकी | बेरहम जिंदगी के इस मासूम सवाल के आगे मेरा सारा ज्ञान जवाब दे गया | फिर भी हिम्मत करके बोली, “ पढने की कोई उम्र नहीं होती फुलवा, तुम जब चाहे पढाई शुरू कर सकती हो | कम से कम इतना तो जान ही सकती हो कि कौन से बस है, प्लेटफ़ॉर्म का क्या नंबर है | जिसका जीवन ज्ञान मुझसे कहीं आगे था, मैं उसे आशावाद का उपदेशात्मक ज्ञान देने में लगी थी |

तो क्या आंटी मैं कभी भी पढ़ सकती हूँ ? फुलवा ने पूछा |

हाँ, हाँ क्यों नहीं, मैंने यूँही उसका मन रखने के लिए कह दिया |

तो ... तो क्या आंटी आप मुझे पढ़ाएंगी ? उसने मेरी ओर देखकर पूंछा | बिल्लौरी आँखें ... आँखों में अजीब सी चमक, मैं न नहीं कर सकी | साढ़े तीन से साढ़े चार का समय तय हुआ | अ, आ, इ ई की किताब, कॉपी, पेंसिल मैंने ही लाकर दी |

शुरू –शुरू में मुझे ऐसा लगता कि जैसे मैंने अपने ही पैरों परकुल्हाड़ी मार ली है | स्कूल से थक कर आओ तो लगता कि थोड़ी देर लेट कर कमर सीढ़ी करने का मौका मिलेगा पर अब ये नयी जिम्मेदारी पाल ली | फिर ये अ, आ, इ ई, पढ़ना आसान नहीं होता | बोलते –बोलते मुँह थक जाता कि ये छठा अ है या बड़ा आ | मुझे लगता था रोज नहीं आएगी, जल्दी ही ऊब जायेगी, घरों का काम भी तो करना है | पर फुलवा नियत समय पर आ जाती | उसकी लगन देखकर मुझे अपनी थकन खलने नहीं लगी | महीना भर बाद ही फुलवा की माँ काम पर आ गयी पर फुलवा का आना बदस्तूर जारी रहा | इधर घडी के कांटे साढ़े तीन पर आये उधर फुलवा डोर बेल बजाती |

फुलवा कुशाग्र बुद्धि थी | जल्दी ही अ ... आ ... इ ... ई खत्म कर जोड़ –जोड़ कर शब्द फिर वाक्य पढने लगी | शिष्य अच्छा हो तो गुरु के पढ़ने का आनंद ही कुछ और होता है | उन दिनों मेरी हर बात में फुलवा का जिक्र होता | फुलवा का ये, फुलवा का वो | यहाँ तक्ल की मेरे अपने बच्चे भी चिढने लगे, मम्मी फुलवा ही आप की बच्ची है, उसे अपने साथ ही रख लो | अगर कभी फुलवा की बात न करती तो पतिदेव कहते, “ तबियत तो ठीक है, बुखार –वुखर तो नहीं है ?” मेरे क्यों पूंछने पर कहते,” अरे २४ घंटे हो गए आज फुलवा की कोई बात नहीं की |”

जब मैंने पढ़ना शुरू किया था तो फुलवा जमीन पर बैठती थी, फिर स्टूल पर, फिर सोफे पर मेरे बगल में बैठने लगी थी | अक्सर मैं उससे पूछती, तुम्हे खाने में क्या पसंद है ? जब तक वो लिखने का अभ्यास करती मैं उसे गर्म –गर्म बना कर खिलाती | और उस दिन तो सबके साथ मैं भी आश्चर्य में पद गयी जब फुलवा ने अपने मैले –कुचैले थैले से एक डिब्बा निकल कर उसमें रखा एक लड्डू मुझे खाने को बड़े प्यार से यह कहते हुए दिया, “ खा कर बताओ आंटी, मैंने बनाया है ?” मैं जो हाइजीन का इतना ख्याल रखती थी कि छोटे –मोटे रेस्ट्रोंन की चाय तक नहीं पीती थी, यंत्रवत सी स्नेह विभोर हो कर वह लड्डू खाने लगी थी | प्रेम कितनी व्रज्नायें, कित्न्वे बंधन, कितनी जंजीरें तोड़ देता है यह उस दिन मैंने पहली बार जाना था |

एक दिन उसकी कॉपी चेक करते हुए मैंने कहा था, “ फुलवा तुम वास्तव में कुशाग्र बुद्धि हो | तुम झाड़ू करकट करने के लिए नहीं बनी हो | तुम अपनी पढाई जारी रखना | कैसे आंटी, लड़की की जिन्दगी उसकी अपनी थोड़ी ही होती है, उसने उदास चेहरे के साथ कहा | उसकी बात की गहराई में न जाते हुए मैंने बीच में ही बात काटते हुए कहा, “ फुलवा मैं तुम्हारी माँ से बात करुँगी | मैं सरकारी स्कूल की प्रिंसिपल को जानती हूँ | मैं अगले साल बात कर के तुम्हारा दाखिला वहां करवा दूंगी | सरकार शिक्षा, खासकर लड़कियों की शिक्षा के लिए कितना कुछ कर रही है, सब मुफ्त है ... बस तुम्हें हिम्मत करनी है और पढ़ते जाना है | मैं तुम्हारी विद्वता व् धैर्य देखकर कह रही हूँ कि तुम कर सकती हो |

क्या सच आंटी, उसने चहक कर कहा ... वही बिल्लौरी आँखें और ....आँखों में अजीब सी चमक |

दो –तीन दिन बीत गए | उसके बाद फुलवा व उसकी माँ नहीं आये | फोन भी नहीं लग रहा था | पड़ोस की कामवाली से पता चला कि सरकार ३५ -३५ हज़ार रुपये गरीबों को माकन बनाने के लिए दे रही है | फुलवा की माँ को देर से खबर हुई कि उसे भी पैसा मिला है तो रातों –रात पति बच्चों सामन सब ले कर गाँव चली गयी | अब वो पैसे वाली हो गयी है, अब क्यों आएगी, कामवाली ने इर्ष्य भाव से कहा | मेरे ऊपर वज्रपात सा हुआ, क्या अब फुलवा को फिर कभी नहीं देख पाउंगी, भावनाएं उमड़ पड़ीं और शब्द गीले हो गए | पड़ोस की कामवाली तुरंत बोली, “ आयेगी, मेमसाहब, जरूर आएगी, आएगी नहीं तो जायेगी कहाँ, बिना काम के कितने दिन गुज़ारा होगा, गरीबों को भगवान् पेट भी बड़े देता है |

इस घटना को घटे हुए दो साल बीत गए | शायद ही कोई दिन गया हो जिस दिन मैंने फुलवा को याद न किया हो | पर... उस दिन सब्जी खरीदते हुए वो ... लगा ये शायद फुलवा ही है ... गौर से देखा, हां ये तो फुलवा ही है ... पर ... पर ये क्या ? ...माथे पर सिंदूरी बिंदी, कलाई भरी चूडियाँ, आलता और ... और गोद में साल भर का बच्चा | तभी फुलवा की नज़रें मुझसे टकरा गयीं | वो एकदम पलट कर जाने लगी | फुलवा ... फुलवा, मेरे आवाज़ देने पर ठिठकी | वहीँ चुपचाप कड़ी हो गयी | मैं उसके पास पहुंची | फुलवा शादी कब कर ली, गाँव से वापस आ गयीं, कोई खबर भी नहीं | मेरे प्रश्नों के ऊतर में वो सर झुकाए –झुकाए धीरे से बोली, “मकान बनाने के लिए जो पैसे मिले थे, उससे माँ ने मेरी शादी कर दी | बापू टूटी फूटी जुबान में बोले हम तो टीन छप्पर में भी रह लेंगे, बस सर से ये बोझ उतर जाए, आगे तो दोनों लड़के हैं, मर भी गया तो डर नहीं, प्राण का क्या भरोसा |

लड़का है या लड़की ? माहौलकी गंभीरता को कम करने की कोशिश करते हुए मैंने पूंछा | लड़की, फुलवा ने सर झुकाए –झुकाए उत्तर दिया |

कुछ समय के लिए हम दोनों के बीच एक गहरी चुप्पी पसर गयी |

अचानक से फुलवा ने झटके के साथ मुँह ऊपर उठाते हुए कहा,” आंटी देखना मैं मैं इसे जरूर पढ़ाऊँगी, और ये पढ़ लिख कर आपकी तरह बड़ी मास्टरनी बनेगी, झाड़ू –कटका नहीं करेगी |

उफ़ ... वही बिल्लौरी आँखें और ...आँखों में अजीब सी चमक |

वंदना बाजपेयी

वंदना बाजपेयी