हां.. मैं नारी ही तो थी।। Saroj Verma द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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हां.. मैं नारी ही तो थी।।

हां..मैं नारी ही तो थी..!!

मैं वही असहाय सुनैना ही तो हूँ जो राम को ये ना कह सकीं कि हे राम! तुमने मेरी पुत्री को वन क्यों भेजा,उसका क्या दोष था,उसने तो कभी अपने पतिकर्तव्य से कभी मुख नहीं मोड़ा,हाय मेरी सीता महलों मे पली,तुम्हारे साथ वन वन भटकी,उसने कभी भी तुम्हारा विरोध नहीं किया, सदैव अपने पत्नी धर्म का पालन किया,तुमने उससे अग्नि परीक्षा लेकर उसके सतीत्व का प्रमाण मांगा,ये सब करके भी तुम्हारा जी ना भरा और तुमने उसे बिना बताएं, गर्भावस्था मे वन भेज दिया,तुम कबसे इतने पाषाण हृदय हो गए राम!
मैं तुमसे ये भी कहना चाहती थी कि अब कभी भी कोई भी मिथिला से अयोध्या अपनी पुत्रियों को ब्याहने का साहस नहीं करेगा, मैं तब भी मौन ही तो रहीं भला! मै क्या कह सकती थी क्योंकि मैं एक नारी ही तो थी।।
प्रश्न तो बहुत थे मेरे मन में किन्तु पूछ ना सकीं हे!अयोध्या नरेश, संकोच था मेरा या तुम्हारे प्रति आदर क्योंकि तुम मेरी पुत्री के पति हो मैं तुम्हारा अपमान कैसे कर सकतीं थी,ये अधिकार तो केवल पुरूषों को मिला हैं कि वे किसी से कोई भी प्रश्न पूछ सकते हैं और किसी को भी दण्डित कर सकते हैं और जब भी मन किया तो पत्नी का भी त्याग कर सकतें हैं जिस प्रकार लक्ष्मण ने उर्मिला का त्याग किया था,उसके लिए अग्रज सेवा ही सबसे बड़ा धर्म था,पत्नी के प्रति कैसा धर्म, बस उसे तो कहा गया उर्मिला चौदह वर्षों तक मेरी प्रतीक्षा करना और उर्मिला कर भी क्या सकतीं थीं, वो एक नारी ही तो थीं, पति का आदेश उसके लिए सर्वोपरि था।।
और रहीं माण्डवी वो तो एक अलग ही चक्रव्यूह मे फंस गई थी बेचारी,जो राम के वनवास के उपरांत भरत नगर के बाहर कुटिया मे निवास करने लगे,उनके लिए तो अग्रज भक्ति ही सबसे बड़ा धर्म था,उन्होंने कहा मुझे भी राम भइया की भांति कुटिया मे रहना स्वीकार हैं,मुझे भोगविलास नहीं चाहिए और ना ही तुम माण्डवी!
उस समय उसका हृदय पाषाण हो चुका होगा, क्या वो भरत को वनवास के उपरांत हृदय से स्वीकार पाई होगी,कदाचित् जो बातें भरत के लिए सामान्य रही हो,हो सकता हैं वो माण्डवीं के लिए असामान्य रहीं हो,माण्डवी भरत के सुख दु:ख की सहभागिनी थीं और वो पतिपरायणता,सेवाभावना और त्याग मे कभी भी पीछे नहीं हटी,उसने भी तो अपने जीवन के चौदह वर्ष एक साध्वीं के रूप मे बिताएं थे,उसके मन मे भी तो चौदह वर्ष अनुराग-विराग एवं आशा-निराशा का विचित्र द्वन्द चला होगा, वो संयोगिनी होकर भी वियोगिनी का जीवन जीती रही,वह मार्यादानुरुप आचरण करती रही, वह भरत से एकनिष्ठ एवं समर्पण भाव से प्रेम करती रही और कर भी क्या सकती थीं बेचारी एक नारी ही तो थी।।
मैं एक मां थी परन्तु मुझे कैकैयी कुमाता के रूप में विख्यात कर दिया गया, इसमें मेरा क्या दोष था मैंने तो केवल अपने पुत्र का भला ही चाहा था ना! परन्तु भरत को भी मेरी ममता में खोट दिखाई दिया, मैं ने ये सब तो पुत्र मोह में किया था परन्तु इतिहास ने मुझे कुमाता के रूप में प्रसिद्ध कर दिया, मैं क्या करती भला एक नारी ही तो थी।।
एक वो अहिल्या थीं,एक पुरुष ने तिरस्कार कर श्राप दिया तो दूसरे पुरुष ने ही श्राप से मुक्त किया,वाह रे!ये पुरूषों की माया और पुरूषों का संसार,एक रूप बदल कर अपवित्र करने चला जाता है,दूसरा श्राप देने और तीसरा श्राप से मुक्त करने,कर भी क्या सकती थीं बेचारी,नारी ही तो थी।।
एक थी मंदोदरी, कितना समझाया पति को कि बैर मत लो पराई स्त्री केवल अपयश और मृत्यु का ही कारण बन सकती है परन्तु उसकी किसी ने भी नहीं सुनी,नारी ही तो थी बेचारी।।
सुलोचना भी अपने पति के साथ सती हो गई क्या कर सकती थीं, नारी ही तो थीं।।
THE END__
Saroj verma__