आधा आदमी
अध्याय-17
पीछे-पीछे टीकली अम्मा भी चली गयी।
‘‘लगता हैं नया-नया बिगड़ा हैं.‘‘ दुकान में बैठे एक सज्जन ने अपने बगल वाले से कहा। ‘‘कुछ भी कहो माल मस्त हैं.‘‘ उसने भी अपनी टिप्पणी व्यक्त की।
‘‘बड़ी टाइट होती होगी इन लोगों की?‘‘
‘‘मैंने भी सुना हैं.‘‘
‘‘सही बताना क्या कभी इनकी ली हैं.‘‘
‘‘अबे लड़कियो से फुर्सत मिले तो इनकी सोचूँ.‘‘
‘‘यही हाल तो अपना भी हैं। पर यार, सुना हैं जितना मजा इन हिजड़ो से पा जाओंगे उतना औरतों से नहीं पाओंगे.‘‘
ज्ञानदीप चाय का भुगतान करके रिपयेरिंग की दुकान पर आया और पैसे देकर साइकिल लेकर चल पड़ा। अभी कुछ दूर चला ही था कि पीछे से जानी-पहचानी आवाज़ ज्ञानदीप के कानों में पड़ी। उसने पलटकर देखा, तो दीपिकामाई थी।
उन्हांेने अपने परिचित की दुकान पर ज्ञानदीप की साइकिल खड़ी करायी। और अपने साथ उसे रिक्शे पर बैठा लिया।
‘‘कैसे हो?‘‘
‘‘ठीक हैं, आप अपना सुनाइए?‘‘
‘‘हमारा क्या, अल्लाताला जिस हाल में रखें हैं रह रही हूँ.‘‘ दीपिकामाई चाहकर भी अपना ग़म छुपा नहीं पायी। उनकी फीकी मुस्कान में उनका दर्द साफ-साफ झलक रहा था।
ज्ञानदीप को समझते जरा भी देर नहीं लगी, ‘‘क्या बात हैं माई, आप बहुत उदास लग रही हैं?‘‘
‘‘एक परेशानी हो तो बताऊँ बेटा, एक हटती नहीं दूसरी सामने खड़ी हो जाती हैं। क्या पता था कि उस दिन पायल से हमारी आखरी मुलाकात होगी.‘‘ दीपिकामाई खामोश हो गई जैसे शब्दों ने उनका साथ छोड़ दिया हो।
रिक्शा बायीं तरफ मुड़ गया। उबड़-खाबड़ रोड होने के कारण रिक्शे की गति धीमी हो गई।
‘‘आखिर यह सब किया किसने, कुछ पता चला...?‘‘
‘‘इहीं तो पता नाय चल पावा हय बेटा, मगर जहाँ तक हमरा अंदाजा हय ई सबके पीछे उके गिरिये का ही हाथ हय। जबकि हमने कई बार पायल को समझाया था कि ई आदमी मुझे ठीक नयी लग रहा, पर उसने तो हमरी बात को कुकूरइयां की पाद की तरह उड़ा दिया। न जाने ऊ कमीना का घोल के पायल का पिलाये दीस राहैं। जब देखव उही की माला जपैं, अगर इक दिन भी उ न आये तो जईसे पगलाये जात राहैं.‘‘ कहकर दीपिकामाई ने मसाले की पुड़िया मुँह में फाँकी और अपनी बात आगे बढ़ाती बोली, ‘‘एक दिन हमरे घर पैं दोनों खूब लड़ाई-झगड़ा कीन, बात ही बात में ऊ कमीना इका जान से मारैं कहिस। सुवर चौदे ने बड़ी बेरहमी से उसे जलाया, ल्हास कोइला होय गई राहैं.‘‘
‘‘रिर्पोट लिखवाया.‘‘
‘‘का लिखायी, वइसे भी हिजड़ो की सुनता ही कौन हय?‘‘
‘‘क्यों नही सुनेगा, क्या आप लोग इंसान नहीं हैं?‘‘
‘‘हमसे अच्छे तो जानवर, पेड़-पौधे, पत्थर, नदी, कुआँ, जीव-जन्तु जो पूजे तो जाते हैं। पर हम लोगों का तो समाज नाम लेना भी गंवारा नहीं समझता हैं। न तो हम मतदाता पहचान पत्र बनवा सकते हैं, न ड्राइविंग लाइसेंस बनवा सकते हैं, न ही वोट डाल सकते हैं, न मोबाइल फोन खरीद सकते हैं। न बैंक में खाता खोल सकते हैं। आज देश को आजा़द हुए उन्हत्तर साल हो गए। का हमरी सरकार अन्धी-पागल हैं, उन्हें समझ में नहीं आता कि हम भी इंसान हैं और हमारे मानवाधिकारों की बात भी उठानी चाहिए। सच तो यह हैं कि हम कोई बहुत बड़ा वोट बैंक नहीं.‘‘
‘‘हन्ड्रेड परसेंट आप सही कह रही हैं.‘‘
‘‘तुम तो जानते हो बेटा, हर क्षेत्र में प्रवेश के दस्तावेज पर मात्र दो ही काँलम रहते हैं-स्त्री या पुरूष। सबसे बड़ी हैरत की बात यह हैं कि हमारी तादाद इस देश में साठ लाख से भी ज्यादा हैं। उसके बावजूद भी हमें राष्ट्रीय जनगणना से नज़र किया गया। क्या हम देश के नागरिक नहीं हैं?‘‘ दीपिकामाई ने अपनी पीड़ा व्यक्त की।
‘‘पर माई, अभी मैंने कहीं जल्दी पढ़ा था कि चुनाव आयोग ने निर्णय लिया कि पहचान पत्र के लिंग वाले कॉलम में महिला और पुरूष के अलावा किन्नरों के लिए ‘अन्य‘ का भी विकल्प होगा.‘‘
‘‘यह सब फाइलो तक ही सीमित रहेगा। राजनीतिक दल और नेता बखूबी जानते हैं कि किन्नरों को बढ़ावा दिया तो उनकी खटिया खड़ी हो जायेगी। दलित, महिला, विकलांग सब राजनीति के मोहरे हैं जिनसे ये नेता शंतरज खेलते हैं। हमे किसी से कोई उंमीद नही हैं। कुछ नहीं बदलेगा.....।‘‘
‘‘क्यों नहीं बदलेगा, एक दिन आयेगा जब सब कुछ बदलेगा.‘‘
‘‘हम तो यही चाहते हैं बेटा, कि हमें सरकार से जीवन-यापन के लिए गुज़ार भत्ता और नौकरियों में ओ बी, सी एस टी, एस सी से अधिक वरीयता दी जाए। साथ ही सरकार की तरफ़ से मुफ्त लिंग निर्धारण परीक्षण का अधिकार दिया जाए। जिससे हारमोन्स तक का परीक्षण कराया जाए, ताकि हमारे समाज पर लगाये गये अपराधिक आरोपों से हम अपना बचाव कर सके.‘‘ दीपिकामाई ने पीक की।
‘‘कौन-सा आरोप?‘‘
‘‘तुम नहीं जानते बेटा, अगर तुम भी सुनते तो शायद हमारे हिजड़ा समाज से नफ़रत करने लगते.‘‘
‘‘आख़िर ऐसी क्या बात हैं माई?‘‘
‘‘पता नहीं किस हरामी ने किन्नर का भेष बनाकर एक महिला के साथ बलात्कार करने की कोशिश की। उसके बाद पुलिस ने थाने में सरेआम सैकड़ों किन्नरों को नंगाकर पीटा गया। उन्हें परेड कराई। करीना नामक किन्नर के साथ-साथ कई पुलिस वालों ने सामूहिक बलात्कार किया। क्या तुमने, किसी चैनल्स या अख़बार में ऐसी ख़बर पढ़ी? नहीं! ये तो अपने चैनल्स और अख़बारों को चलाने के लिए ऐसी सनसनीख़ेज खबर बनाते हैं.‘‘
‘‘यह तो बहुत गलत हुआ। ऐसे पुलिसवालों को तो बीच चैराहे फाँसी पर लटका देना चाहिए.
‘‘सही कह रहे हो बेटा, पर ऐसा होता कहाँ हैं?‘‘
‘‘मेरी समझ में नहीं आ रहा है इतनी संस्थाएँ इस देश में काम कर रही हैं। तरह-तरह के मुद्दे उठा रही है। मगर इस ओर इन लोगों का ध्यान क्यों नही जा रहा हैं?‘‘ ज्ञानदीप ने कड़े लहजें में निंदा की।
‘‘ऐसा है बेटा, हमका तो किसी भी व्यक्ति या संस्था से कोई उंमीद नहीं हैं। असल में देखा जाए तो राजनीतिज्ञ भी एक तरह से हमारी श्रेणी में आते है.‘‘ दीपिकामाई ने ताली बजाई।
बातों ही बातों में घर कब आ गया यह पता ही नहीं चला। दीपिकामाई ने रिक्शे वाले को पैसा दिया और अंदर आ गयी।
‘‘इसराइल कहाँ है?‘‘ दीपिकामाई ने पूछा।
‘‘पापा! बताई के नाय गैं हय.‘‘ शोभा ने बताया।
‘‘आवें दो आज इका तब बताई, जब देखव तब गाँड़ उठाईन अउर चल पड़े.‘‘ दीपिकामाई का लहज़ा सख़्त था। वह उगलदान उठाकर पलंग पर लेट गई।
ज्ञानदीप ने कुर्सी पर बैठते ही पूछा, ‘‘यह शोभा, इसराइल भाईजान को पापा क्यों कहती हैं?‘‘
‘‘जब मैं उसकी मइया हूँ तो सीधी सी बात हैं ,ड्राइवर और इसराइल उसके पापा हुए.‘‘
ज्ञानदीप एक के बाद एक सवाल किये जा रहा था, ‘‘माई! आपने अपनी डायरी में बोल- चाल में तो जनानी भाषा का इस्तमाल किया हैं। मगर लिखते वक्त आपने मर्दाना भाषा का प्रयोग किया हैं। इसका क्या मतलब हैं?‘‘
दीपिकामाई मुस्करायी, ‘‘तुम कब क्या पूछ बैठोंगे यह किसी को पता नहीं.‘‘
‘‘क्या करूँ माई, आप ने लिखा ही ऐसा हैं.‘‘ ज्ञानदीप मुस्कराया।
उन्होंने पान की गिलौरी मुँह में रखी, ‘‘मैंने लिखते समय मरदाना भाषा का इस्तेमाल इसलिए किया, क्योंकि हम उस समय ‘कड़ेताल‘[जनाना], था.‘‘
‘‘कड़ेताल! मतलब?‘‘
‘‘इसका अर्थ होता है लिंग सहित, आपरेशन कराने के बाद हमने जनानी भाषा का इस्तमाल किया हैं.‘‘
‘‘वहीं तो मैं सोच रहा था.....।” ज्ञानदीप ने छुटते ही दूसरा सवाल किया, ‘‘माई! जब उस रात आप को वह आदमी स्टेज से लेकर भागा था और पूरी रात आप को पैरें में भूखे-प्यासे गुजारनी पड़ी थी। उस वक्त आप की स्थिति क्या थी...?‘‘
‘‘आज भी वह काली रात हमें भुलाये नहीं भुलती, सोचती हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। अल्लाह! किसी दुश्मन को भी इतनी भयानक रात न दिखाये। भगवान का शुक्र था जो हम बच गई। वरना वे लोखनडें हमारी ज़िस्म को नोच डालते.‘‘ दीपिकामाई सीरियस हो गयी।
‘‘ऐसे तो हर जगह प्रोग्राम में होता होगा?‘‘
‘‘कहीं-कहीं तो अच्छे लोग भी मिलते थे पर अधिकतर परोगाम में लोखनडे ही मिलते थे.‘‘
‘‘लोखनडे का मतलब?‘‘
‘‘बदमाश.‘‘
‘‘मइया, ई फोटव उहाँ पड़ी थी.‘‘ शोभा ने आकर दी।
दीपिकामाई फोटो पर ऐसे झपटी जैसे राइटर्स पुरस्कार पर, एक्टर्स अवॉर्ड पर, लीडर कुर्सी पर।
‘‘मगर वहाँ गई कैसे?‘‘ दीपिकामाई ने आवेश में पूछा।
‘‘हम्में का पता.‘‘ कहकर शोभा चली गयी।
‘‘दीपिकामाई फोटों को ऐसे देखने लगी जैसे अभी रो पड़ेगी।
ज्ञानदीप समझ गया कि जरूर इस फोटो से माई का कोई गहरा संबंध हैं। अंततः उसने हिम्मत करके पूछ ही लिया, ‘‘माई! यह किसकी फोटो हैं?‘‘
‘‘मेरी बेटी की.‘‘कहकर दीपिकामाई ने आँसू पोछा।
‘‘बहुत सुंदर हैं क्या नाम हैं?‘‘
‘‘इसकी माँ ने तो इसका नाम गौरी रखा पर हम इसे रानी पुकारती हूँ.‘‘
‘‘कितने साल पुरानी फोटो हैं?”
‘‘अठाइस साल पुरानी.‘‘
‘‘अब कहाँ हैं?‘‘
तभी इसराइल ने आकर पूछा, ‘‘सड़क तक जा रहा हूँ। अगर कुछ लाना हैं तो बताओं.”
इसराइल को देखते ही दीपिकामाई के तन-बदन में जैसे आग लग गई, ‘‘यह क्यों नहीं कहते कि तुम्हें खिलवा टाकने के लिए झलके चाहिए.‘‘
तुमैं तो सोते-जागते इही लगा करत हय.‘‘
‘‘हमरा तो सारा झलका तुम जुआ और खिलवा में उड़ायें दिहव.‘‘
‘‘बकचैदी से कोई फाइदा नाय हय, हम्म जाइत हय.‘‘ इसराइल चला गया।
‘‘जात हव तो कान खोल के सुन लेव, अगर दूबारा ई चौखट पे आई गेव तो हमसे बुरा कोई न होइय्हे। ज़ींदगी भर तो लूट-लूट के खाईस अब बुढ़ापे में भी हमरा खून चूसैं हय। अल्ला इकी मिट्टी नसीब न करें, जहन्नुम की आग में जले....अरे हिजड़े की बद्दुवा तो अल्ला भी माफ न करें.‘‘
‘‘चुप हो जाइए माई.‘‘
‘‘तुम नहीं जानते बेटा, इन लोगों के लिए मैंने क्या नहीं किया.‘‘
कमरे में कुछ देर के लिए सन्नाटा छाया। पर ज्ञानदीप के पूछते ही सन्नाटा भंग हुआ, ‘‘माई! अब आप की बेटी कहाँ हैं?‘‘
‘‘अब तो अपने घर पर हैं.‘‘ दीपिकामाई सीरियस हो गयी, ‘‘उसकी भी कहानी बड़ी अज़ीब हैं। न जाने किन जन्मों का पाप झेल रही हैं.‘‘
‘‘क्यों माई, क्या हो गया उन्हें?‘‘
दीपिकामाई आँख बंद किये लेटी थी जैसे किसी बड़ी उलझन में फँसी हो और उसमंे से निकलने का सिरा दूर-दूर तक दिखाई न पड़ रहा हो। उनके अन्र्तमन की पीड़ा साफ-साफ चेहरे पर झलक रही थी। जैसे वह अभी दहाड़ मार कर रो पड़ेगी।
‘‘माई! आपने बताया नहीं कि आपकी बेटी को हुआ क्या था?‘‘
दीपिकामाई खामोश थी। न जाने किस गहरी चिन्ता में डूबी थी।
ज्ञानदीप एकटक उन्हें देखे जा रहा था।
इससे पहले दीपिकामाई अपनी बेटी के बारे में बताती, गुल्लीबाई और रिहाना आ गयी। वे दोनों दुआ-सलाम करके बैठ गयी।
रिहाना टुकूर-टुकूर ज्ञानदीप को देखे जा रही थी। पर वह लिखने में मशगूल था।
‘‘का देख रही हय.‘‘ गुल्लीबाई ने उसके सिर पर चपत लगायी।
‘‘सर पैं हात न मारना, हमरे बरहमदेव आवत हय.”
उनकी बातें सुनते ही ज्ञानदीप उनकी तरफ़ मुख़ातिब हुआ और उनसे नज़रे बचा कर जल्दी-जल्दी डायरी में उनकी बातें नोट करने लगा।
‘‘अईसे बरहमदेव हमरे नीचे लटके राहत हय। हम्म तीसरी देवी हूँ.‘‘ गुल्लीबाई ने ताली बजाई।
‘‘बरी आई हय तीसरी देवी बन के.‘‘
‘‘चुप्प री मेहरे! सती तो हम्म हय, हम्म हिजड़ो पैं हात उठाईगी तो नरक में भी जगह न मिलेगी.‘‘
‘‘हम्म तो फरा [धूल], हूँ चाहे जहाँ भी जाऊँ, हमरी तो एज्ज़त हय। हम्म तो इंसान हय पर तुम तो सईतान हव.‘‘ रिहाना मुँह बना के बड़ी स्टाइल से बोली।
दीपिकामाई मसाले की पुड़िया मुँह में फाँकती हुई अंदर आयी। गुल्लीबाई उन्हें देखती बोली, ‘‘गुरू भाई! देखव ई गान्डू का कह रही हय.....खुद को इंसान बता रही हय अउर हिजड़ो को सईतान.‘‘
दीपिकामाई ताली बजाकर बोली, ‘‘ऐ बेटा, हिजड़ो का खाईगी अउर हिजड़ो की ही गीली करेगी। अगर हिजड़ो में हम्म कह देगी तो खालपी (चप्पल) से नापी जाईगी.‘‘
‘‘अरी गुरू! मजाक करित राहैं। हमरी इनकी चला करत हय.‘‘ रिहाना खिसयायी।
‘‘मज़ाक की भी अपनी इक सीमा होत हय.‘‘ दीपिकामाई ने डाँटा।
‘‘अच्छा गुरूभाई चलित हय अम्मा की तबयत ठीक नाय हय.‘‘ गुल्लीबाई ने अपना दर्द बयां किया।
‘‘काहें का हुआ, ठीक नाय होई?‘‘
‘‘एक बीमारी हो तो ठीक होय हजार बीमारी हय, सब हम्में ही देखना पड़ता हय। भावलेन (भाइयों) से कोई मतलब नाय हय.‘‘
‘‘कहत हय न, ई दुनिया में सब कुच्छ मिल सकत हय पर माँ नाय मिल सकत हय.‘‘ दीपिकामाई सीरियस हो गई थी।
ट्यूशन का टाईम होने के कारण ज्ञानदीप उठा और दीपिकामाई के चरण-स्पर्श करके चला गया।
ज्ञानदीप को घर पहुँचते-पहुँचते देर हो गई थी। वह खाना खाने के बाद दीपिकामाई की डायरी पढ़ने बैठ गया-
2-8-1980
इसराइल हमेशा-हमेशा के लिए अपना घर छोड़कर मेरे पास आ गया था। मैंने माँ-पिताजी को बता दिया था। लेकिन मेरी बीबी को यह जरा भी पंसद नहीं था कि इसराइल यहाँ रहे। मगर मेरे आगे उसकी एक भी नहीं चली थी।
फिर क्या था, इसराइल हम लोगों के साथ रहने लगा। जो भी कमाता मेरे हाथ पर रख देता।
6-11-1981
कोई भी चीज कब तक छुप सकती हैं? धीरे-धीरे मेरी पत्नी को सब कुछ पता चल गया था कि मैं क्या करता हूँ? और कहाँ से लाता हूँ? किसके साथ उठता-बैठता हूँ और क्या पेशा हैं मेरा? आए दिन इस बात को लेकर पत्नी से मेरा झगड़ा होता।
उस दिन तो हद ही हो गई थी। पत्नी मेरी सारी सीमा लाँघ गई थी, ‘‘अगर मुझे जरा भी पता होता कि तुम नाचते-गाते हो और यह सब करते हो तो मैं तुमसे शादी न करती.‘‘
‘‘अब तो जान गई हो, रही बात नाचने-गाने की तो कौन नहीं नाचता?’’
‘‘हाँ नाचते हैं, मगर तुम्हारी तरह कोई वो सब नहीं करता.....।’’
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