दो दिन Lalit Rathod द्वारा यात्रा विशेष में हिंदी पीडीएफ

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दो दिन

गांव छूटे हुए चीज़ों से बचा हुआ है, जिसे कोई शहर ना ले जा सका वह यही रुका हुआ है। जैसे घर के बंदर आज भी वे उसी पेड़ से दोस्ती किए हुए है। उनकी दोस्ती से हम सालों से खुश हैं। कुए में तैरती मछलियां कभी शिकायत नहीं करती की उन्हें इस जीवन से मुक्त होना है। घर में पड़ी हुई दरार भी अब एक शक्ल ले चुकी है, जिसमें वह कई यादों को अपने साथ समेटा हुआ है। गाँव का जीवन आज भी वैसा का वैसा है जैसे सालों पहले छोड़ा था। बीत दो दिन गांव में बीते। मां-पिता और भईया उसका पूरा परिवार है। मां के पैरों की समस्या को काम की खुशी और व्यस्ता दोनों में वह नहीं भुल पाता। उसकी अनुपस्थिति में घर में बड़े भाई का होना उसे शहर लौटने को बेफिक्र कर देता है, की उसके जाने के बाद उन्हें अकेला महसूस नहीं हाेगा।


दिनभर घर में रहने के बाद वह शाम को अपने एकांत की जगहों पर निकल जाता है। पहले दिन स्कूल के पीछे तालाब में पहुंचा। पेड़ और मंदिर आज भी उसी जगह पर हैं। पेड़ के नीचे लकड़ी की आकृति लिए बनी कुर्सी देखकर अतीत याद आने लगा। जैसा शहर से गांव लौटना अपने अतित काे वर्तमान में जीने की तरह है। शायद आज भी पढ़ने वाले बच्चों को झुंड खाने की छुट्टी में यहां आते हाेंगे। जैसे स्कूल के दौरान हम भी करते थे। अतीत को पानी में बहाने तलाब में उसने पैरों डाला। रूका हुआ पानी पैरे को स्पर्श पर फिर लाैट गया जहां से वह आया था। मानों पानी उसकी उपस्थिति आज भी नहीं भुला है। कुछ समय शांत बैठने के बाद स्कूल के छुटे हुए दिन याद आने लगे। वह संबध जो उस समय साथ था। पास के खेतों में उसकी नजर गई। उसे खाली जगह पर चलते हुए दो लोगों को प्रेम में बात करते हुए देखा। जो उस बातचीत से अपने प्रेम संबध की नीव को मजबूूत कर रहे थे। इच्छा होने लगी उस जगह पर वह फिर जाए और छुटी हुई बातचीत को जारी रखे। लेकिन उस जगह में अब घास उग आई थी। और भीतर उस संबध की जगह खाली थी। अतीत में अगर उस सबंध से बातचीत अधिक हुई हाेती तो आज सब ठीक होता। यह एक इच्छा थी जो उस समय शाम को चलने वाली हवांओं में शुन्य की ओर देखते हुए उसने कहा था।


तालाब को भरा हुआ देख गर्मी का वह महीना याद आ गया। जब पूरा तालाब पानी के अभाव में था। क्या वह तलाब का अंत था? अब जो पानी है, क्या उसका नया जीवन है? शाम के 6 बज चुके थे। शाम होते ही आसमान में पिली धूप चारों तरह छाई हुई थी। उसे शाम का सूरज हमेशा बुजुर्ग की तरह लगता है। बिलकुल थका हुआ सा, उनकी दिनभर की मेहनत उसकी रोशनी में छिपी होती है। शाम को वह रोशनी मुझे हमेशा बुजुर्ग व्यक्ति के चेहरे में पड़ जाने वाली झुर्रिया की तरह लगती है, जिनके साथ रहने पर लगता है यह जीवन हमें भी चाहिए। वह बुजुर्ग से पूछता हूं आपका बचपन कैसे था? जवाब- सुबह की तरह था, जिसे हमने बड़ी खूबसूरती से जिया है। और आपकी जवानी? दोपहर में गुजर गई। आज का जीवन बहुत कठनाई से गुजरा। ऎसा क्यों? दोपहर में घने बादलों ने मुझे घेर लिया था। शायद यही मेरी जवानी का संघर्ष है। अब मैं बुजुर्ग हो चुका हूं मेरी रोशनी अंतिम तक पहुंच सकती है। मेरे इस एक दिन के जीवन में बहुत लोग साथ होते है जैसे हवा का चलना, चिड़िया का पश्चिम की ओर जाते हुए आवाज़ करना जिसमें लोग मुझे भी देख लेते है। उस देख लेने में पेड़ भी शामिल है।


शाम खत्म होती ही वह फिर घर लौट गया। घर में छोटे बच्चों के आने से घर गुलजार था। दफ्तर में पहली बार दो दिन की छुट्टी में वह घर पर था। एक दिन निकल जाने के बाद एक दिन बचे होने का सुख रात की नींद में शामिल था। सुबह उठते ही वह कमरे के उस कोने को देखने लगा, जो उसने कभी तक नहीं देखा था। बिस्तर में बैठ जाने के बाद वह सोचने लगा बचपन से इतने साल घर में रहने के बाद कभी इस कोने पर नजर नहीं गई? शायद मैंने कभी छुआ भी नहीं होगा इसे। ऐसे में जब कोई पुछता है, घर से आपका संबध कैसा है। यह सवाल का जवाब में कई सालों से झुट कहते हुआ आ रहा हूॅ। उसे आश्चर्य होने लगा। घर में ऐसे कितने कोने होंगे जहां उसकी अभी तक नजर ही नहीं गई होगी।


दूसरे दिन स्कूल के मित्र संजय, नागेश और संदीप के घर उनसे मिलने जाने का प्लान बनाया। उसके घर से मित्रों का घर 20 किलों मीटर की दूरी पर है। संजय के घर में जाे सम्मान उसे मिलता है। शायद ही और कही मिलता होगा। उसने संजय को फोन कर आने की सुचना दी। घर आने की खबर संजय ने ऐसी कही होगी जैसे कोई मेहमान आ रहा हो। तेज धूप गांव से निकलते वक्त मां का पिला चशमा लगा लिया था। चार बजे घर से निकलते ही अगले गांव में जाकर चश्मा पहना। वह कभी गांव में चश्मा पेहनकर नहीं पहनता। चश्मा लगाकर गांव में घूमना असाधारण कार्य है क्योकि कोई यहां चश्मा पहनकर नहीं घूमता। अगर ऐसा करेगा तो गांव के लाेगाें में वह लड़का बन जाएंगा जो शहर में रहकर पुरा शहरियां हो चुका है। गांव आकर वह उनकी संस्कृति से थिलवाड़ कर रहा। पिली चश्मा पहनने के बाद दोपहर चार बजे की धूप तीन बजे लगने लगी थी। ऐसा लगा जैसे यह चश्मा धूप की अधिक उम्र को कम कर देती है। चारों तरफ पिला आकाश और धूप दिखने लगी थी।


गर्मी के मौसम में जिस तालाब में पानी का अकाल पड़ जाता, बच्चे वही कुछ महीने के लिए अपने खेलने का अड्डा बना लेते। पुरा तालाब क्रिकेट के मिनी स्टेडियम में तब्दील हो जाता। दोस्त के घर जाते वक्त पास के गांव में उसे यह दृश्य बिलकुल वैसा ही था। बच्चे तालाब की तगहराई में भय मुक्त होकर खेल रहे थे। उन्हे याद है यह वही तालाब है जिससें पानी भरे होने से उन्हे गहराई में डूब जाने का भय सताता है। तैरना नहीं सिखे बच्चे एक छोर से दुसरे छोर तक पहुंचने की दौड़ लगा रहा है। मानों वे काल्पनिक तालाब में गोते लगा रहे हो। जैस उनके मित्र सचमुच के पानी में गाते लगाते हुए मस्ती करते है, जिसे देखकर बच्चे के भीतर एक चिरमिराई की इच्छा उठती है, मुझे भी तैराकी सीखना है। उसने गाड़ी रोकर उन बच्चों को देखने लगा। तालाब काे सुखा पड़ जाना भी एक तरह का श्राप है। जब अन्याय होने पर हम गुस्से में कह देता है, मेरा समय भी जल्द आएगा। शायद यह बच्चों का समय है, जिसकी उन्होने कल्पना की थी। उसके भय खत्म होने के उत्सव उस गांव के अधिकतर बच्चे शामिल थे।


कुछ बच्चे पेड़ की तहनी में बैठकर दुर से खेलते हुए अन्य बच्चे को देख रहे थे। उनके चेहरे मुस्कुराहट नहीं थी वे एकांत को खुद में समेटे हुए थे। मुझे लगा शायद वही तालाब है जो तेज धूप की मार खाकर पानी खत्म होने के बाद पेड़ों में आ छिपा है। जो बच्चों में अपने होने की मौजुदगी का वक्त तलाश रहा है। इस वक्त उसकी मनोदशा बच्चों की तरह हो चुकी होगी। उन वाक्यों को दोहरा रहा होगा। जब बहुत समय पहले बच्चों ने उनसे कहां था, की हमारा समय भी आएगा। अब तालाब बच्चों को देखते हुए अपने वक्त का इंतजार कर रहा है।

अब भी दोस्त का गांव 15 किलों मीटर दूर था। रोड़ के किनारे अमलतास के फूल बिखरे हुए थे और उससे अधिक पेड़ों में मौजुद थे। फूलों को देखने पर बारिश का मौसम प्रतित हो रहा था। एक सांत्वना जो तेज दूपहर में शांत रोड़ से गुजरते हुए ठंडकता का सुकून दे रही है। मई माह में गांव की जो नहरे पानी के अभाव में वियोग के दिन काट रही होती है। उसके लिए पानी संजीवनी बुट्टी की तरह होता है, जिससे वह फिर जीवित हो उठती है। एक गांव पार करते ही उसे नहर में कुछ बच्चे नहातेे हुए देखे लेकिन उससे पहले दौड़ लगाती हुई पानी की लहरे। जिसे अपने अंत पता नहीं। उसे पटकन में अपना लक्ष्य नजर आता है। वहां से जुगरते ही फिर तेज दौड लगाती है, मानों थाेड़ी ही दूरी में कई रातों की यात्रा खत्म हो जाएगी।


बच्चे रोड़ से नीचे नहर में छलांग लगा रहे थे। नीचे जाते ही पानी की आवाज आती बच्चे कहीं गायब हो जाते है। वह रूक पर पानी में उनकी उपस्थित को तलाश रहा था। उन बच्चों को देख ऐसा प्रतित हुआ मानों वह दूसरी दुनिया में प्रवेश कर रहे है। जहां पहुंचते वर्तमान जीवन से गायब हो जाते है। उस वक्त इच्छा हुई मुझे भी पानी में गोते लगाना चाहिए। लेकिन पानी से मेरी दोस्ती अभी उतनी गहरी नहीं है। अगर मैं डुबने लगा तो पानी मदद को नहीं आएगा। उस वक्त एहसास हुआ, तैरते हुए बच्चे और पानी की कितनी गहरी दोस्त है। जो सालों में कुछ दिन के लिए आया है। बच्चे उनसे मिलने शाम को यहां आते है। बच्चे पानी के भीतर जीवन में जाकर बातचीत करते है, जो बाहर के जीवन में खड़ा व्यक्ति बिलकुल सुन नहीं सुन सकता। वह केवल पानी में उनकी उपस्थित को दर्ज कर सकता है। वह नहर में बैठकर यही कर रहा था।

गांव में उस दिन शांति थी। शनिवार होने से कुछ दुकाने खुले हुए थे। संजय को फोन कर घर आने का पता पुछा । इतने में एक ट्रक धुल उड़ाते हुए ऐसी निकली जैसे पानी का फुहावरा निकलता है। आंखे मुं द का उसी जगह रूक गया जब धूल छट जाने के बाद आगे बढ़ा। फोन आते ही संजय ने सारा घर साफ कर लिया होता। जो पिता लुंगी पहने हुए होंगे। उन्हे कपड़े पहनने को कहा होगा। मेरा मित्र आ रहा है। तैयार हो जाए। संजय के घर जाते ही उसने यही देखा। उनके माता-पिता के पैर छुए और संजय के छाेटे भाई ने उसके। यह क्षण उसकी मित्रता और मधुर कर देती है। संजय के पिता 20 सालों से अधिक शिक्षक है। ईमारीदारी से काम करते हुए अपना घर चलाते है। संजय ने अपने परिवार को बहुत अच्छी तरह से रखा है।

संजय की तरह नागेश और संदीप उसके अच्छे मित्र है। जितनी बार वह उनके घर जा चूका हूँ। उतना शायद ही तीनों उसके घर आए होंगे। नागेश आज भी स्कूल के क्लास रूम की तरह लगा है जो आज बिलकुल बदला नहीं। शरीर देख ऐसा लगा मानों उसने स्कूल से निकले के बाद चार सालों में खुद उस जगह पर समेट कर रखा है। बातचीत की शुरुआत में पहला वाक्य उससे यही कहा। संदीप ने स्कूल के बाद पापा के व्यवसाय में पूरी तरह रम चूका है। उनके गाँव के बाद जंगल शुरू हो जाता है। कुछ महीने पहले गांव में हाथी आने से उनका गांव टूरिज्म क्षेत्र बन चुका था। लोग शहर में हाथी को देखने आने लगे थे। नागेश बता रहा था, हाथी का झूंड आने से सभी लोगाें चारों तरह से गांव को घेर लिया था। ताकि हाथी गांव ना आए। एक बार तो उसे हाथी ने दौड़ा भी दिया था। जंगल से जान बचाते हुए भागा था।


गांव से कुछ दूरी में महानदी है। जहां से कुछ दिनाें पहले नागेश ने नहाते हुए तस्वीर साझा की थी। शहर में कुछ दिन स्विमिंग सिखने बाद उसे खुद में थोड़ा विश्वास होने लगा था। वह अब पानी से जिंदा बच जाएगा। उसने संदीप से कहां, आज घाट में नहाने काे जाएंगे। उसने एक स्वर में हां.. कहा लेकिन दूसरे क्षण में डरा भी दिया। की परसों वहां एक शराबी की पानी में डुबने से मौत हुई है। यह सुनकर जो नहाने की खुशी उसके चहरे में थी। समुद्र की लहरों की तरह फिर लौट गई। शाम को चारों घाट में नहाने गए। दूर तक नदीं में पानी नजर आ रहा था। नागेश और संदीप ने पानी में छलांग लगा दी। वह अपनी बारी का इंतजार कर रहा था। पानी गहरा होने से पानी में जाने का भय लगने लगा। नागेश से पुछते हुए कहां, पानी कितना गहरा है? वह पानी के भीतर चला गया। बाहर आकर बताया, तेरे से दो गुना गहरा है अभी पानी। तैरने की इच्छा में वह पानी में खुद को देखने लगा। निर्णय करने लगा अब छलांग लगाऊंगा, फिर थाेड़ी देर में बस अब कुद रहा हूॅ। तीसरी बार में उसने सारा भय छाेड़कर पानी में चला आया। पानी में जाते ही वह जितना तैराना जानता था। सब भूल गया। वह भीतर जाने लगा था। दोस्तों ने से साइड किया। एक पल उसे लगा वह मौत से बचा हुआ व्यक्ति है। घंठों तक नहाते हुए स्कूल और वर्तमान की ढ़ेर सारी बाते हुई। शाम के वक्त सुरज अपनी खुबसुरती में था। एक गहर एकांत लिए। वह पेड़ के नीचे जाकर बैठक गया। शाम की अंतिम धूम में अपनी परछाई को देखते हुए सोचने लगा।


क्या दिन की शुरुआत इसलिए होती है की उसे शाम काे किसी एंकात में हमेशा के लिए खत्म किया जा सके? किसी को खत्म करने से आसान क्या दिन को खत्म करना होता है? शाम की पीली दूपहर में एक हवां केवल एकांत में बैठने से गुजरती है, जिसमें वह सभी फैसले लिए जा सकते है, जो अभी तक नहीं लेने के असफल कोशिशों में जीवित है। जैसे छुटे हुए संबधों के बारे में सोचा, वह लिखना जो कभी लिखा नहीं, अतित को फिर वर्तमान में शामिल करना। उस हवां में इन सभी फैसलों को साकार कर सकते है। उस समय आंखों में टीस आते ही हवां उसी तरह ओझल हो जाती है। जैसे छोटे बच्चे शर्माते हुए भीतर कमरें में चले जाते है। पिली धूप शाम के एकांत को जीवित रखती है।


पेड़ के नीचे बैठकर वह धूप में खुद के प्रतिबिब को एकांत समझकर सुबह के जीवन को तलाशने लगाता है। जैसे-जैसे शाम खत्म होने लगी है। जमीन में धूप से बनी उसकी प्रतिबिंब भी बिखरने लगती है। वह दिन के खत्म होने में खुद के प्रतिबिंब को देखता है। पहले उसके दोनों पैर, फिर हाथ और आधा शरीर कम होती धूप में प्रतिबिंब से खत्म हो गई। अब केवल उसका सर बचा हुआ था, जो बचे हुए शेष धूप में दूर दिखाई देने लगा था। वह सोचता है, क्या इसे ही दिन का खत्म होना कहते है। सुुबह का प्रतिबिंब जिसे वह स्वंय कहता था, वह अब अंधेरे में उसके साथ नहीं है। उसका शरीर खत्म होने के बाद बची हुई राख में जीवित है। वह अपने जिए हुए दिन को खत्म कर एक कतार में जमीन को देखते हुए भीतर के जीवन की ओर आगे बढ़ने लगता है।