खोटा सिक्का Dr Narendra Shukl द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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खोटा सिक्का

‘....ऑटो !‘ बस से उतरकर , कंधे पर लटके बैग को संभालते हुये बस अडडे के सामने , चैराहे पर खड़े ऑटोवाले को मैंने हाथ के इशारे से बुलाया ।

ऑटोवाला बस से उतरती सवारियों की ओर ही देख रहा था । इशारा पाकर वह चौराहे से यू टर्न लेकर सीधा मेरी ओर आ गया । ड्राइविंग सीट पर बैठे - बैठे , ऑटो की खिड़की से बाहर सिर निकालकर बोला , ‘जी साहब , कहां चलना है ?‘ मैंने उस पर सरसरी नज़र डाली । वह छरहरे बदन का लगभग 25-30 वर्ष का युवक होगा । रंग सांवला था लेकिन , चेहरे की गढ़न सुघड़ थी । काले रंग की जींस व पीले रंग की टी-शर्ट उस पर बेहद फ़ब रही थी ।

‘उद्योग भवन तक ले चलागे ।‘ मैंने दायें हाथ से ऑटो में सामने की ओर लगी छड़ को पकड़ते हुये , थोड़ा झुककर भीतर झांकते हुये पूछा ।

‘हां सर , क्यों नहीं ले चलेंगे । हमारा तो काम ही यही है ।‘ वह होंठों पर मुस्कान लाते हुये बोला ।

‘पैसे क्या लोगे ?‘

‘अस्सी रूपये सर ।‘

‘अस्सी रूपये ! यहॉं से आधे घंटे का तो रास्ता है ।‘ मैंने यों ही रास्ते की सही स्थिति व किराये का अंदाज़ा लगाने के लिये कह दिया । मैं दिल्ली पहली बार आया था । दिल्ली में ऑटोवाले सवारियों से पैसा लूटते हैं । नज़दीक स्थान को भी घुमा - फिराकर दूर बना देते हैं ऐसा मैंने सुन रखा था । उसने हैरानी से मेरी ओर देखा और बोला, ‘आधा घंटा सर ! क्या बात कर रहें हैं । इंडिया गेट के पास है । किसी से भी पूछ लीजिये । यहां से पूरे एक घंटे का रास्ता है ।‘

मैंने उसे गौर से देखा । उसके चेहरे पर अजी़ब - सी मासूमियत आ गई थी । न जाने क्यों मुझे उस पर विश्वास हो गया । आटो पर बैठते हुये मैंने कहा , ‘अच्छा ठीक है , चलो . . . पर, ज़रा जल्दी । मुझे 12 बजे से पहले ऑफिस पहुंचना है ।‘

उसने बायें हाथ की कलाई पर बंधी घड़ी देखी - 11 बजकर 5 मिनट हो रहे थे ।

‘कोशिश करूंगा सर अगर , सड़क पर जाम न हुआ तो मैं आपको 12 बजे से पहले ही पहुंचा दूंगा ।‘

मैं आश्वस्त हो गया । उसने ऑटो स्टार्ट किया और चल पड़ा ।

सड़क पर लाल किले के पास काफी ट्रैफिक था । कार , स्कूटर , रिक्शेवाले सब एक - दूसरे से आगे निकल जाना चाहते थे । इतने ट्रैफिक में प्राइवेट बसें हार्न बजाती हुई कैसे आगे निकल रहीं थी , कहा नही जा सकता । एक अधेड़ सामने से आती टैक्सी के नीचे आते - आते बचा । ‘ ओह माई गाड ।‘ मेरा मुंह खुला का खुला रह गया । टैक्सी वाले के लिये ये रोज की बात थी । उसे कोई फ़र्क पड़ा । वह कुछ बुदबुदाता हुआ आगे बढ़ गया ।

मैंने ऑटोवाले से पूछा, ‘क्यों भाई , यहां रोज इतना ट्रैफिक होता है ?‘

‘यस सर । इतवार को इससे भी ज़्यादा रश होता है ।‘ वह मेरी ओर मुंह घुमा कर बोला ।

वह इतने ट्रैफिक में बड़ी सफाई से ऑटो निकालता हुआ आगे बढ़ जा रहा था । मैं उसकी ड्राइविंग से प्रभावित हुये बिना न रह सका ।

‘भाई , तुम आटो कमाल का चलाते हो । कब से चला रहे हो ?‘

‘फ्राम द लास्ट थ्री इयर सर ।‘

मैं चौंका ! ऑटोवाला और अंगे्रज़ी । मैंने आंखें फाड़कर पूछा, ‘तुम पढ़े - लिखे हो ?

यस सर । ग्रैजुएट हूं ।‘

मुझे विश्वास नहीं हुआ । ‘ ग्रैजुएट ! पर, ग्रैजुएट होकर आटो चला रहे हो ! कोई ढ़ंग का काम क्यों नहीं कर लेते ।‘

‘ सर , कोई काम घटिया नहीं होता । घटिया होती है हमारी सोच । हमारा दिमाग़ । हूं ।‘ वह कुछ रूककर बोला, ‘मेहनत करता हूं सर । कोई चोरी , डकैती नहीं करता । मेहनत करना कोई गलत कार्य नहीं ।‘ उसकी बातों ने मुझे छोटा कर दिया । फिर भी , अपने आप पर संयम रखते हुए मैंने उसे सलाह दी , ‘ पर यार , तुम कोई नौकरी भी तो कर सकते हो ।‘

‘नौकरी हुंह ! क्या बात कर रहें हैं साहब ? आज़कल के ज़माने में बिना पैसे के कहीं नौकरी मिलती है ? कई कलैरिक्ल टैस्ट पास किये । और , इस बार तो ऑफिसर ग्रेड भी पास किया । मगर ,हर बार इन्टरव्यू में रह जाता हूं । पता नहीं क्या कमी है मुझमें । सब पता है मुझे उन्हें क्या चाहिये ।‘ उसने हिकारत से खिड़की से बाहर सिर निकालकर थूक दिया । मैं देश में लगातार बढ़ती हुई बेरोज़गारी , भ्रष्टाचार , बेईमानी व घूसखोरी की समस्या से भली - भांति अवगत था । आज़कल , आम व्यक्ति के लिये इन तमाम समस्याओं से जूझ पाना सचमुच एक जटिल समस्या है । लिहाज़ा , मैंने उसे और दुःखी करना ठीक न समझा । बात बदलते हुये पूछा , ‘तुम्हारा नाम क्या है ?‘

‘खोटा सिक्का ।‘

‘ खोटा सिक्का ! भाई , यह क्या नाम हुआ ।‘

‘यही नाम है मेरा सर । मैं एक ऐसा सिक्का हूं जो कहीं नहीं चलता । किसी के काम का नहीं । एकदम नकारा ।‘ वह सिसकने लगा ।

मैंने उसकी पीठ थपथपाई । सांतवना पाकर वह बोला, ‘ घर पर सब मुझे इसी नाम से बुलाते हैं । पर मां , मां के लिये मैं अब भी दिनेश हूं । दिनेश खंडिलिया ।‘

‘तुम्हारा घर कहां है दिनेश ? और , परिवार में कौन - कौन है ?‘ मैंने विषय बदलकर एक साथ दो प्रश्न किये ।

वह शांत स्वर में बोला, ‘मैं चंडीगढ़ का रहने वाला हूं सर । मेरे पिता जी पिछले वर्ष ही डाकखाने से रिटायर हुये हैं । अधिक्षक के पद पर थे । घर पर मां - बाप के अलावा मेरे दो बड़े भाई हैं , राकेश व महेश । राकेश डाकघर में ही काम करता है । महेश की कपड़े की दुकान है । पालिका बाज़ार में । और मैं सबसे छोटा बेरोजगार । किसी काम का नहीं । भाई - भाभियां सभी ताने देते थे । और एक दिन बड़े भाई ने ओपनली कह दिया - दिनेश , अगर तुम कोई काम - धंधा नहीं कर सकते तो तुम्हारे लिये इस घर में कोई जगह नहीं है । हम तुम्हें इस उम्र में घर बैठा कर नहीं खिला सकते । पिता जी ने भी मौन रूप में भाई साहब की ही बातों का समर्थन किया । मां , मां बेचारी रोती रही लगातार पर , उसकी कौन सुनता । मेरे लिये सब कुछ सह पाना अलबत्ता कठिन था । मैं उसी वक्त घर छोड़कर यहां भाग आया ।‘

‘मां से मिले कितना टाइम हो गया ?‘ मैंने पूछा ।

‘दो साल सर ।‘

‘इस बीच क्या घर वालों से तुम्हारी कोई बात नहीं हुई ?‘

‘नो सर । पिछले महीने मैंने ही एक पत्र मां को लिखा था । क्या करूं रहा नहीं जाता। मां है न! जवाब में , पड़ोसी दीनानाथ जी के हाथों का लिखा , मां का पत्र आया । दीनानाथ जी हमारे पड़ोस में ही रहते हैं । स्थानीय सरकारी हाई स्कूल में प्राध्यापक हैं । लिखा था, ‘ प्रिय दिनेश , तुम्हारे चले जाने से सारा घर सूना - सूना लगता है । ऐसा लगता है जैसे तुम्हारी खिलखिलाहट सुने युग बीत गया हो । महेश और रमेश अलग हो गये हैं । तुम्हारे पिता जी की सारी जमा - पूंजी बंटवारे में बंट गई । पेंशन के सिवाय अब कुछ शेष नहीं रहा । तुम्हें बहुत याद करते हैं । किसी से कहते कुछ नहीं लेकिन , कमरे में अकेले रोते रहते हैं । किसी को महसूस नहीं होने देते । तुम्हारी याद में घुले जा रहे हैं । मैं तो उनकी अर्द्धांगिनी हूं न ! मुझसे कोई बात छिपी नहीं है ।‘ अपनी कहानी सुनाते - सुनाते उसकी आंखों से आंसू बहने लगे । सामने चैराहा आ रहा था । रैड लाइट थी । हमारी ओर का सारा ट्रैफिक रूका हुआ था । दिनेश आटो रोक कर रूमाल से अपने आंसू पोंछने लगा । तभी एकाएक , पीछे से एक ऑटो बिल्कुल हमार बगल में आकर रूक गया । ऑटोवाले ने दिनेश की ओर मुंह करके जोर से आवाज़ लगाई, ‘दिनेश । ‘

दिनेश ने मुंह घुमाकर उसकी ओर देखा और चिल्लाया , ओह , काका तुम ! तुम इस तरफ कहां जा रहे हो ? ‘

‘दिनेश , हम सुबह से तूका खोज रहा हूं । तोहरे घर से तोहरे पिता जी का फौन था । तोहरी मइया होस्पीटल में है । दोनो गुर्दा खराब हो गये हैं । डागडर साहिब का कहना है कि अगर , फौरन यक गुर्दा न बदला गवा तो खतरा होय सकत है । जा बचवा जा बचाय ले अपनी मइया का ।‘ काका आंखों से बहते मोतियों को न रोक पाये । दो मोती उनकी आंखों से छलक कर , गालों पर से होते हुये उनकी बड़ी - बड़ी मूछों को भिगोने लगे ।

‘पर , काका ऐसे कैसे हो सकता है ? दो साल पहले तो बिल्कुल ठीक- ठाक थीं ।

दिनेश को काका की बातों पर एकाएक विश्वास नहीं हुआ ।

‘दुःख कोई बता कर नहीं आता बचवा । देर मत कर । कलाई पर बंधी घड़ी को देखकर, ‘हिमगिरी का टाइम होय गवा है । फौरन गाड़ी पकड़ ले ।‘

‘राकेश व महेश ने कुछ नहीं किया ?‘ दिनश ने दुःखी हदय से पूछा ।

‘मतलबी दुनिया है बचवा । तोहर पिता जी कह रहे थे कि दोनों ने साफ मना कर दिया है। वे अपनी जान जोखि़म मा नाहीं डालना चाहते ।‘

वह मन ही मन बुदबुदाने लगा, ‘ नहीं मां , तेरा दिनेश अभी ज़िदा है । वह अपनी जान देकर भी तुझे बचायेगा । तू मेरे लिये इस धरती पर सबसे कीमती है मां । मैं तुझे ऐसे नहीं जाने दूंगा ।‘

वह फूट - फूट कर रोने लगा । मैंने उसके कंधे पर हाथ रखकर सांत्वना दी, ‘ दिनेश तुम फौरन अपनी मां के पास चले जाओ । तुम घबराओ नहीं । भगवान पर भरोसा रखो । भगवान सब भला करेंगे ।

सांत्वना पाकर वह कुछ शांत हुआ । काका की ओर उन्मुख हो , धीरे से बोला , ‘काका प्लीज़ , सर को उद्योग भवन तक पहुंचा दीजिए ।‘

‘हां हां यह भी कोई कहने की बात है बचवा ।‘

काका मेरी ओर देखकर बोले, ‘आइये बाबूजी । इधर बैठ जाइये ।‘

मैं एक बार फिर से दिनेश के कंधे को थपथपा कर काका के आटो में बैठ गया । मैंने दिनेश को पैसे देने चाहे पर उसने लिये नहीं । बस सजल नेत्रों के साथ दोनों हाथ जोड़ दिये ।

ग्रीन स्गिनल हो गया था । मैं दूर तक जाते - जाते उस खोटे सिक्के को निहारता रहा जो आज किसी भी कीमत पर चल जाना चाहता था ।

डा. नरेंद्र शुक्ल