मनोहरा
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"दादी..! दादी..! मनोहरा बुआ आयी हैं और वह भी कार से..करिया बाबा के नीम के छांह में बैठी हैं "
ज्योति दौड़ते हुये अपनी दादी सुखवन्ती को बताने आयी थी..
"कौन मनोहरा बुआ..?"
सुखवन्ती ने अपने काम से बिना ध्यान हंटाये ही लापरवाही से पूंछ लिया था..
"अरे वही मनोहरा बुआ जिसकी कहानी आप हर नयी नयी ससुराल जाने वाली लड़की को सुनाती हो "
"क्या कह रही है..?"
सुखवन्ती हर्षमिश्रित आवाज में चौंकते हुये बोली थीं..
सुखवन्ती जब व्याह कर आयी थीं,चौदह वर्ष की आल्हरि थीं..ऐसे में बारह वर्ष की पड़ोस की लड़की मनोहरा जब अपनी नयी नयी भाभी से मिलने आयी तो सुखवन्ती को भी बहुत अच्छा लगा था..एक हम उम्र सखी पाकर जहां सुखवन्ती खुश हुयी थीं वहीं अपनों के प्यार को तरस रही मनोहरा सुखवन्ती का मैत्री प्रेम पाकर आह्लादित थी..मनोहरा अबोध कन्या अवश्य थी पर बचपन में ही मां की मृत्यु और पिता की अकर्मण्यता ने उसे गम्भीर बना दिया था..सुखवन्ती का विशेष स्नेह पाकर वह गदगद थी..जैसे ही घर के काम से फुर्सत मिलती ,आ जाती अपनी नयी नवेली भाभी के पास..और भाभी के तमाम कामो में हाथ बंटाती..सुखवन्ती के हाथ की बनी कढ़ी मनोहरा को बहुत भाती थी..अक्सर कहतीं
"भाभी कित्ता दिन हो गया..आपने कढ़ी नही बनायी.."
सुखवन्ती हंसकर कहतीं
"चल आज तू बना..मैं तेरे ससुराल तुझे कढ़ी बनाकर खिलाने नही जाऊंगी"
सुखवन्ती भले ही मनोहरा से दो ही वर्ष बड़ी थीं पर अपनी अम्मा से जो भी सीख कर आयी थीं वह सब मनोहरा को सिखा रही थीं..दो वर्ष बीता..मनोहरा चौदह की हुयीं..तभी एक दिन सुखवन्ती ने सुना मनोहरा के पिता दुआर पर बैठे मनोहरा के कहीं बियाह कर देने की बात कर रहे थे..वे मनोहरा की तरफ देखकर मुस्करायीं थीं..किशोर से युवा हो रहा मनोहरा का मन जहां नवजीवन की कल्पना करके रोमांचित था वहीं घर गृहस्थी का कुछ विशेष शउर ना जानने का भय भी था..उसने सुखवन्ती से अपने मन की आशंका व्यक्त की तो सुखवन्ती ने मीठी झिड़की दी थी..
"मैं हूँ ना..! सब सिखा दूंगी तुझे..मुझे देख ,जब मैं यहाँ विदा होकर आयी थी तब मैं भी तो चौदह की ही थी.."
और मनोहरा आश्वस्त हुयी थीं
मनोहरा के पिता करिया तिवारी गरीब ब्राह्मण थे..वैसे तो ऊपर वाले ने उन्हे स्वस्थ शरीर दिया था पर थे घनघोर आलसी..काम धाम ना करने से गरीबी सर चढ़ कर बोलने लगी थी..मृत आत्मा की शान्ति हेतु तिथि पर ब्राह्मण खिलाये जाने के उपरांत मिलने वाली दक्षिणा ने उन्हे ललचाया और वे तिथि खाने लगे..ऐसे ही एक दिन तिथि खाने के दौरान दक्षिणा में उन्हे आशर्फी मिली तो वे मनोहरा के व्याह के लिये थोड़ा निश्चिन्त हुये..
ऊधम पुर के कैलाश शुकुल का बड़ा नाम था..लक्ष्मी जी की उनपर महती कृपा थी..सम्पन्नता के साथ साथ गाँव-जवार में अच्छा खासा रोब दाब था..शुकुल का छोटा लड़का भी अब बियाह लायक हो चला था..सुखवन्ती के ससुर के साथ करिया तिवारी मनोहरा का बियाह कैलाश शुकुल के लड़के से तय करने गये तो शुकुल ने घर में परामर्श करके बताने को कहा फिर भी करिया तिवारी दक्षिणा में पायी हुयी अशर्फी देकर पांव छुआ और चले आये..अशर्फी ने कमाल दिखाया..
'अशर्फी सगुन में कौन देता है भला..जरुर यह मेरे ही स्तर के होंगे '
शुकुल ने कहा था और बियाह करने की मंजूरी भेज दिया करिया तिवारी को..सुखवन्ती के विशेष आग्रह से उनके ससुर ने गाँव के और तमाम सम्मानित लोगों के साथ मिलकर तिलक भी अच्छी खासी चढ़ा आये..सोही लेकर जब नाऊ को आना हुआ तो करिया तिवारी विचलित हुये..सुखवन्ती के ससुर से आकर बोले..
"भैया इज्जत बचाओ..नउआ उहां जाकर सब पोल खोल देगा "
"दै मरदे जब तय करा आये हैं तो इज्जत थोड़ी जाने देंगे "
सुखवन्ती की सलाह से उन्ही के यहाँ ही नाई को ठहराया गया ,भोजन कराया और सुबह उसकी बिदायी देकर उसे बिदा किया..
सुखवन्ती के ससुर का भी अच्छा खासा रुतबा था..बारह गोयीं बैल की खेती थी..करीब एक बिगहे में मिट्टी का बड़ा सा दोमंजिला मकान था..दरवाजे पर बैलों के साथ मन्दराजी भैंसे बैठी पागुर कर रही थीं..
नाई के वापस पहुंचते ही शुकुल का पूरा परिवार उसे घेर कर बैठ गया..नये रिश्तेदार का स्तर जानने को सब बेताब थे
"नाऊ ठाकुर ई नये वाले समधी कुछ हैं हमरे स्तर के कि नाही ..?"
शुकुल ने पूंछा था..सुखवन्ती ने नाऊ कि विशेष खातिरदारी की थी..वह बड़ा प्रभावित था..बोला..
"मालिक झूंठ ना बुलवाओ..नये समधी आप से बीस ही हैं.. बियाहे मां आप देखि लेबौ "
शुकुल आश्वस्त हुये..इधर करिया तिवारी सुखवन्ती के ससुर के साथ गाँव के अन्य लोगों के सहयोग से विवाह की तैयारी तो कर ही रहे थे पर मन में एक आशंका बनी थी..सोही के नाऊ को तो कहीं भी ठहरा दो कोई विशेष अड़चन नही थी पर विवाह तो घर की बेदी पर होना था..घर के देवता तो वहीं होते हैं..
बिवाह का दिन आया..कैलाश शुकुल पूरे लाव लशकर के साथ बारात लेकर आये थे..घर का छोटा लड़का था..कोई कोर कसर नही छोड़ी थी..पर द्वार पूजा के समय करिया तिवारी के दरवाजे पर पहुंचते ही सन्न रह गये..एक छोटा सा छप्पर और टटिया से घिरा हुआ आंगन बस यही था करिया तिवारी का घर..छोटे से दुआर पर लगा बड़ा सा घूर कोढ़ में खाज की बात कर रहा था..बारातियों में खुसुर-पुसुर होने लगी थी..कैलाश शुकुल फक्क..इतनी बेइज्जती पूरे जीवन में नही हुयी थी..नाऊ तलाशा जाने लगा..नाऊ स्थिति भांप चुका था..वह चुपके से निकल लिया था..कैलाश शुकुल बारात वापस ले जाने की बात करने लगे पर गाँव-जवार के दबाव में उन्हें विवाह करना पड़ा फिर भी एक शर्त उन्होंने रखी..
"बियाह में ही दुल्हन विदाकर ले जायेंगे..कोई गौना की बात नही करेगा और फिर दूल्हन दुबारा यहाँ नही आयेगी..दुल्हन बिदायी के साथ ही हमारा इनका रिश्ता समाप्त "
घर के अन्दर शर्त वाली खबर पहुंची तो मनोहरा अचेत होते होते बची..सुखवन्ती और मनोहरा दोनों का एक हाल फिर भी सुखवन्ती ने स्थिति सम्हाली..इन दो वर्षों में जो भी सिखाया था, वही फिर दोहराने लगीं..तमाम ऊंच-नीच समझाया..कैसे सास ससुर का दिल जीतना है..कैसे पति की प्रेयसी बनना है..कैसे देवर,ननद को प्यार देना है..कैसे देवरान-जेठान को सहेली बना लेना है..
सुखवन्ती भी इस अप्रत्याशित बिदायी से ब्याकुल थीं पर मनोहरा ससुराल में सबकी लाडली बन जावै..कुछ ऐसा ही समझाने का प्रयास कर रही थीं
"देख बिट्टो..! अब तेरे ससुराली ही तेरे सगे सम्बन्धी हैं.. हम लोग कभी-कभार मिलेंगे..तुम्हारा जीवन वहीं से कटना है..जो कुछ भी तुम्हें सिखाया है ,उसे अमल में लाना..सबको खुश रखने का प्रयास करना..किसी से ईर्ष्या, द्वेष ना रखना..देवरान-जेठान के भी हिस्से का कार्य स्वयं कर लेने का प्रयास करना..कठिन मेहनत का विकल्प नही होता बिट्टो..बाकी ईश्वर तेरे साथ है "
बिवाह भोर होने से पहले ही समाप्त हो चुका था..कैलाश शुकुल तुरन्त बिदायी कराकर पूरी बारात लेकर जा चुके..
बिल्कुल सुबह सुबह पूरी बारात वापस.. वह भी दुल्हन के साथ देख शुक्लाइन चौंकी थीं.. दुल्हन बिदायी की बात तो हुयी नही थी..फिर दुल्हन..? शुक्लाइन सोच ही रही थीं कि कैलाश शुकुल बोले..
"हमारे साथ धोखा हुआ है..हम अपने लल्ला का बियाह अलग करेंगे..जहां शान से समधी बनकर जा सकें..ऊ तेवरिया तिथि खाना दरिद्र है..इसे भुसैले वाली कोठरी दे दो,वहीं यह भी पड़ी रहेगी"
मनोहरा डोली में बैठी सब सुन रही थी..घूंघट में गंगा जमुना की धारा बह निकली..
शुक्लाइन धर्मभीरु महिला थीं.. मनोहरा को परछा और ले चलीं घर के भीतर..लेकिन कैलाश शुकुल तमतमाये थे..शुक्लाइन को डपटकर भुसैले वाली कोठरी में ही उसे भिजवाया..पूरा दिन रोते रोते बीत गया..सायं सास खाना लेकर आयी तो उनसे लिपट कर खूब रोयी वह..शुक्लाइन द्रवित तो हुयीं पर शुकुल के डर से उसे केवल ढाढ़स देकर चली आयीं..पूरी रात रोती रही..सुबह होने से पहले उसे सुखवन्ती की बात याद आयी..
"कठिन मेहनत का कोई विकल्प नही होता बिट्टो "
वह उठी..अभी घर के सभी सदस्य सो ही रहे थे..गाय, बैल का नादा साफ किया..उसमें चारा-पानी डाला और उन्हे बांध दिया..गोबर इकट्ठा किया और दुआर के दक्षिण में दिख रहे गोबर के ढेर में डाल आयी..पूरे दुआर पर झाड़ू लगाया..इकट्ठा हुये गोबर को पाथ कर कण्डा बनाया और जबतक घर के सदस्य उठते वह नहा धोकर दरवाजे पर लगे नीम के नीचे रखे शिवलिंग पर जल चढ़ा रही थी..कैलाश शुकुल उठे तो सब देखा और मुह बिचाकाये..
"अपने बाप के अपराध की सजा भुगतो.."
मनोहरा ने कैलाश शुकुल को देखा तो घूंघट खींचा और पांव छूने आ गयीं..
"ना ना..! दूर रहो..तुमसे मेरा कोई नाता नही है " कैलाश शुकुल कठोरता से बोले..
"हर कोई अपने अपने तरीके से खुशी तलाशता है बापू..प्रत्येक बाप अपनी सन्तान की खुशी के लिये कुछ न कुछ करता है..मेरे बापू मेरी खुशी के लिये आपसे झूठ बोले..मानती हूँ उन्होंने गलत किया..उन्हें सबकुछ सच सच बता देना चाहिए था पर अब मैं उनकी जगह प्रायश्चित करने को तैयार हूँ.."
कहते हुये मनोहरा कैलाश शुकुल के पैरों में बैठ गयी..
'एक अबोध लड़की ससुराल पहुंचते ही कितनी परिपक्व हो जाती है 'मनोहरा ने सोचा था..उसे स्वयं पर आश्चर्य था..यह सुखवन्ती के सान्निध्य का प्रभाव था या पुरखों के आशीर्वाद का फल..एक ही दिन में उसमें वयस्कता आ गयी थी..
कैलाश शुकुल जड़ हुये खड़े रह गये..मनोहरा आगे बोली..
"बापू की गलती की सजा मुझे क्यों बप्पा..? आप क्षेत्र की पंचायत निपटाते हैं..आज अपनी बहू की पंचायत कर दीजिये.."
कहते हुये मनोहरा ने कैलाश शुकुल के पांव पकड़ लिये..शुक्लाइन भी बाहर भीतर के लिये उठ गयीं थी..दुआर पर ससुर-बहू को संवादलीन देखकर किवाड़ के पीछे ही खड़ी रह गयीं.. मनोहरा आगे बोलीं..
"सुखवन्ती भाभी कहती हैं कि बीत चुकी चीजों को भूलना नही चाहिए.. उससे हम सीखते हैं पर बीते हुये में जीना खतरनाक होता है"
हिचकियों में बंधी मनोहरा को शुक्लाइन और न देख सकीं.. किवाड़ से बाहर आकर बहू को उठाया और कैलाश शुकुल को जाने का इशारा कर दिया..
कैलाश शुकुल लोटा उठाये और दिशा-मैदान को चल दिये..मन में क्रोध तो था पर मनोहरा की प्रार्थना से कुछ विचलित भी लगे..पर अहं पर लगी चोट मनोहरा के निवेदन पर भारी पड़ रही थी..भरे समाज में हुये अपमान से आहत थे वे..
उनके जाते ही शुक्लाइन ने मनोहरा को जबरदस्ती चाय-पानी पिलाया..ढाढ़स बंधाते हुये बोलीं..
"सब ठीक हो जायेगा..इन मर्दों को तुम नही जानती..इनकी फरजी वाली नाक बहुत ऊंची होती है"
सास के दो हमदर्दी के बोल उसे सुकून दे गये थे..वह हिम्मत करके बोली..
"अम्मा जहां जूंठे बर्तन रखे जाते हैं ,मुझे दिखा दो..वह भी सुबह धुल दिया करूंगी.."
"अरे महरिन है बेटा घर में.. वह सब करती है..और हां यह सब भी मत करना कल से..यह जो नौकर चाकर हैं, क्या करेंगे सब..तू इस घर की बहू है ,नौकरानी नही "
"पाप प्रायश्चित से ही कटता है अम्मा..मेरे बाप ने जो पाप किया है झूठ बोलकर वह मेरे लिये ही तो किया है..उसका प्रायश्चित भी मुझी को करना है..अम्मा यदि मेरे प्रति जरा भी प्रेम आपके अन्दर है तो करने दो मुझे"
कैलाश शुकुल के वापस आने की आहट से शुक्लाइन घर में चली गयीं..मनोहरा ने सुखवन्ती की बातों को जीवनधर्म बना लिया था और तमाम सेवाभाव से कैलाश शुकुल को छोड़ सभी को अपना बना लिया था..एक दिन छिपते-छिपाते पति भी आये थे..मनोहरा उन्हें वापस करते हुये बोली थी..
"चोरी चोरी मिलने से विवाह का अपमान है..मुझे अपनी तपस्या और भाभी कि शिक्षा पर भरोसा है..बप्पा के मान जाने तक प्रतीक्षा करो.."
मनोहरा को बिदा हुये एक माह बीत गया था..सुखवन्ती को चिन्ता हो रही थी..करिया तिवारी तो जाकर हालचाल लाने की हिम्मत नही कर पा रहे थे,ऐसे में सुखवन्ती ने पति को भेजा था मनोहरा की ससुराल.. गाँव में पहुँच कर वे अभी मनोहरा का घर पता ही कर रहे थे कि लड़को ने आकर बताया कि भाभी के गाँव से कोई आया है..कैलाश शुकुल कहीं गये थे..शुक्लाइन मनोहरा को घर के भीतर ले गयीं..भुसैले में भाई बहन से मिले यह बात शुक्लाइन को तकलीफ दे रही थी..
मनोहरा ने हंसते हुए भाई का स्वागत किया था फिर भी भाई उसे ही निहार रहे थे..
"क्या हुआ भैया..! ऐसे क्यों घूर रहे हो..?"
"तेरा चेहरा बता रहा है कि शुकुल चाचा का गुस्सा अभी उतरा नही है "
"ना भैया ना..बप्पा घर आते ही सब भूल गये थे..बोले ,इसकी क्या गलती है "
"फिर चेहरा क्यों उतरा है..?"
"रात को नींद नही आयी थी भैया.. ना सो पाने के कारण ऐसा दिख रहा है..बाकी हमें कोई दिक्कत नही है "
सुखवन्ती के पति वापस चले आये थे..सुखवन्ती हाल जानकर बहुत खुश हुयी थीं.. इधर सायं कैलाश शुकुल जब घर आये तो चेहरा उतरा हुआ था..बोले..
"आज सुबह से पेट दर्द हो रहा है"
"मैं कहती हूँ किसी की हाय नही लेनी चाहिए.. वह तपस्या कर रही है..मैं कहती हूँ पाप ना लूटो "
"घर से बाहर मैं निकलता हूँ..चार हित हैं तो एकाध विरोधी भी हैं, जब वे मुझे देखकर हंसते हैं तो कलेजा छलनी हो जाता है मेरा.. कितना अपमान हुआ है ,मैं ही जानता हूँ"
घर के सारे सदस्य आ गये थे..मनोहरा ने अपने सेवाभाव से सबको प्रभावित किया था..मौका देखकर एक एक कर सब मनोहरा के पक्ष में बोले..अन्ततः कैलाश शुकुल को अपना निर्णय बदलना ही पड़ा.. बोले..
"ठीक है..पण्डित बुलाकर सत्यनारायण की कथा सुन लो और इसे ले जाओ इसके कमरे में पर यह ध्यान रहे मेरे जीते जी यह अपने मायके नही जायेगी "
घर में उत्सव जैसा माहौल बना..पूड़ियां छानी गयीं.. मनोहरा ने चार महीने बाद अपना श्रृंगार किया था..वर्षों बाद जब मनोहरा के लड़का हुआ तो सम्मय माता के स्थान पर मनोहरा की सास मनोहरा और बच्चे को लेकर कोरा भरने गयीं थीं.. मनोहरा ने वहीं सुखवन्ती को बुलवाया था..अर्से बाद दोनों सखियां मिलीं थीं और तब मनोहरा ने अपनी पूरी तपस्या की जानकारी सुखवन्ती को दी थी..सुखवन्ती की आंखें डबडबा आयीं मनोहरा की कथा सुनकर पर आश्वस्त भी हुयीं यह जानकर कि भले मनोहरा मायके नही आ पायेगी पर अब वह ससुराल में खुश है..
अब जब भी कोई लड़की विदा होने को होती है तो सुखवन्ती मनोहरा का उदाहरण देते हुये उन्हें कहती हैं..
"मनोहरा बनकर रहना ससुराल में.. अब वही तुम्हारा घर है..जरा से अभाव से विचलित मत होना..ससुराल की इज्जत तुम्हारी इज्जत है..मनोहरा की तरह रहोगी तो चौधराइन बनकर राज करोगी.."
सुखवन्ती के हर बात में मनोहरा का एक उदाहरण होता..यही कारण था कि जैसे ही ज्योति को पता चला कि यही मनोहरा बुआ हैं.. वह दौड़ते हुये आयी थी और हांफते हुये दादी से बताया था..
चौहत्तर वर्ष पार कर रही सुखवन्ती के बूढ़ी हड्डियों में पता नही कहां की शक्ति आ गयी था..वह लगभग दौड़ते हुये करिया तिवारी के घर की तरफ भागी थीं..
अरसा हुआ करिया तिवारी को मरे हुये..घर में और कोई सदस्य था नही..छप्पर के घर का तो पता नही था बस मनोहरा ने दुआर पर जो नीम का पौधा रोपा था,उसी के नीचे बैठी अपना बचपन तलाश रही थीं..कैलाश शुकुल के मरने के बाद उनकी कसम तो उन्हीं के साथ चली गयी थी पर घर परिवार की कुशलता के भय से वे उस कसम को अबतक निभाती चली आयीं थीं.. अब जब नाती पोतों को अपनी दादी की करुण कहानी पता चली तो वे समझाये..
"क्या दादी आप अबतक दादा जी की कसम ढो रही हो..मरने से पहले एक बार अपनी जन्मभूमि आपको देखनी ही चाहिए "
और बिवाह के अट्ठावन वर्ष बाद मनोहरा एक बार फिर अपने द्वारा रोपे नीम के वृक्ष के नीचे बैठी थीं..
सुखवन्ती को देखते ही मनोहरा लगभग दौड़ सी पड़ीं..एक दूसरे से चिपटे, गुंथे दो शरीर एक जान के कण्ठ अवरुद्ध थे..बस आंखें बह रही थीं..
पूरा गाँव इकट्ठा था..इस अद्भुत मिलन से सबकी आंखें गीली थीं.. मनोहरा का नन्हा सा पनाती जो अपने पिता के साथ दधिहाल आया था..टुकुर टुकुर देख रहा था..ज्योति ने उन दोनों को अलग कराया तो अपनी अपनी आंखे पोंछती हुई अलग हुयीं..
दादी ने हंसकर पूंछा..
"अब तो तू चौधराइन बन गयी बिट्टो..कार वार से चलने लगी है !"
मनोहरा पनाती को गोद में लेती हुयी बोलीं..
"हां भाभी आपकी सीख ने मुझे नया जीवन दिया ,सही है पर.."
मुस्कुराते हुये बात अधूरी छोड़ दी थी..
"पर क्या बिट्टो..?"
दादी चौंकते हुये बोलीं
"अट्ठावन वर्ष हो गये आपके हाथ की बनी कढ़ी नही खायी.."
बुआ मुस्कुराते हुये बोलीं..
"हे राम अब इन चौधराइन को बूढ़े हाथों की कढ़ी खानी है.."
दादी के ऐसा बोलते ही पूरा गाँव हंस पड़ा था..सुखवन्ती मनोहरा को लेकर घर आ गयी थीं.. बहुओं की बहुयें मनोहरा बुआ के पास बैठी उनकी बातें सुन रही थीं जबकि सुखवन्ती के बूढ़े हो रहे हाथ किचेन में कढ़ी बना रहे थे
राजेश ओझा