अलगाव Kailash Banwasi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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अलगाव

अलगाव

कैलाश बनवासी

एकदम अप्रत्याशित था.

नियुक्ति पत्र था. यू.डी.सी. पोस्ट. जिला-जबलपुर.

माँ ने पोस्टमैन को पाँच रुपयेका नोट उसी पल अपनी थैली से निकलकर थमा दिया था.

उस सफ़ेद कागज के काले हरफों को बार-बार पढ़ता. हर बार सब कुछ नया लगता.शुरू से अंत तक.सांस जैसे रुक जाती. भाई-बहन ख़ुशी से किलकने लगे. छोटू तो मोहल्ले में दौड़ गया खबर पहुंचाने. ओह! कैसा क्षण था वह भी ख़ुशी का.मैंने माँ-बाबूजी के पैर छू लिए. उनका चेहरा भी नयी आभा से आलोकित था.कल तक जिस पेशानी पर चिंता कि सलवटें होती थीं आज वही दमक रहा है. ये नौकरी भी क्या चीज है! माँ-बाबूजी के मुँह से आशीर्वाद झर रहे थे बिना किसी प्रयत्न के. बार-बार बाबूजी अपना चश्मा पोंछ कर नये सिरे से कागज पढ़ना शुरू कर देते. मुझे लग रहा था मुझसे ज्यादा चिंता मेरी नौकरी की माँ-बाबूजी को है. सर्विस से रिटायर हुए बाबूजी की इच्छा आज पूरी हुई नजर आ रही थी.

“तनखा कितनी रहेगी बेटा...?” माँ ने शायद चौथी या पांचवी बार पूछा है.

“आठ सौ रुपये !”कहते-कहते सौ-सौ के करारे आठ नोट मेरे आगे फड़फड़ाने लगते.

इधर माँ तुरंत नारियल लेकर हनुमान मंदिर जाने कि जिद में थी और बाबूजी मुझे किसी अच्छे मिष्ठान भंडार की ओर भेज रहे थे.

मैं भी तमाम दुःख-चिंताओं से मुक्त होकर किसी परिंदे की तरह आकाश में अपने पर फड़फड़ा रहा था.और यों ही फड़फड़ाते हुए विकास के यहाँ जा धमका.

सुनते ही उछल पड़ा—अरे जालिम! मार लिया हाथ! और एक जोरदार मुक्का मेरी पीठ पर जमा दिया. मैं भी उस क्षण नाटक करने लगा, अबे इतने जोर से मारेगा तो जबलपुर से पहले ऊपर पहुँच जाऊँगा!

तब तो तुझे ऊपर ही पहुंचा दूँ! खिलखिलाने लगा था वह.

फिर तो बातें होती रहीं. बातें—जिनका ओर-छोर नहीं था.हर वाक्य पर दोनों का मिला-जुला ठहाका गूँज जाता. वक्त जैसे ऊँची ढलान से तेजी से फिसलता जा रहा था.सारी प्लानिंग वहीं हुई...जबलपुर में कहाँ रहूँगा...वहां के लोगों का व्यवहार...अजनबी शहर...जाने कितने विषय फ़ैल गए थे एक साथ. बातें करते हुए हम थक भी तो नहीं रहे थे.एम.ए. के बाद दो वर्षों की लम्बी बेरोजगारी में जमा अवसाद छंटने लगा था और सारा उत्साह छलका पड़ रहा था.

दोस्तों को खबर करता.तो—कांग्रेचुलेशंस! पार्टी कब दे रहा है?

घर में ही चार-पाँच दोस्तों की पार्टी हो गयी. ख़ुशी के मारे कुछ होश नहीं था.

पर आज?...

सात दिसम्बर. आज ही जाना है. रविवार है. ‘महानदी एक्सप्रेस’ से जाना है. रिजर्वेशन करवा चुका था.अपना बैग-वैग, सामान सहित तैयार कर चुका था. चलने कि देर है.

शाम को विकास घर आया. घर में सब जानते हैं वह मेरे घनिष्ठ मित्रों में अव्वल नम्बर पर है. माँ-बाबूजी का विकास बेटा है और भाई-बहन का विकास भैया.

आँगन में कुर्सी पर बैठा तो आठवीं पढ़ रहा छोटा भाई जैसे कूदने लगा—भैया की नौकरी लगी है!

--आपको मालूम है...?जबलपुर में !

-- पहले आठ सौ मिलेगा फिर...

हम दोनों बस मुस्कुराते रहे.तभी वह पूछ बैठा, “और आपकी नौकरी नइ लगी?”

विकास ने हंसकर कहा, “ अरे नौकरी तो नौकर करते हैं.अपन तो मालिक हैं मालिक !”

माँ पास ही बैठी चांवल से कंकड़ बीन रही थी.हंस पड़ी सुनकर. लेकिन मैं जानता था, छोटू ने अनजाने ही उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया है.औए विकास अपने मनोभाव दबाने में किसी अभिनेता से कम नहीं.अगर यही प्रश्न कोई और सहानुभूति से पूछता तो वह एकदम तमक जाता, अपने स्वभाव के अनुरूप—क्यों, हमारी बेरोजगारी से आपको तकलीफ हो रही है? दो-दो ट्यूशन लेता हूँ, कमा रहा हूँ...! फिर, क्या आप देंगे मुझे नौकरी?”

बाद में मुझसे कहता, खुद तो साले बाप के पैसे और पहुँच से इस काबिल हुए हैं पता नहीं कौन-सा सुख मिलता है इनको सहानुभूति जताकर! फिर गुस्से में एक गाली उछाल देता...तब मैं कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं होता.

माँ उसे आश्वासन कि घुट्टी पिलाने लगी थी—भगवान पर भरोसा रखो बेटा.तुम्हारी भी नौकरी जल्द लग जाएगी कहीं न कहीं. रमेश को भी तो बाबा रे, कितने दिन में मिली है !

बाबूजी सब्जी खरीदने बाजार निकल गए हैं वर्ना वे भी विकास को जरूर कह रहे होते—बेटा, कोशिश करते रहो... और वह इन्हें अपनेपन के नाम पर सब्र करता रहता.

कोशिश ! कितने महीने कितने सप्ताह और कितने दिन हो गए कोशिश करते.शायद दो वर्ष...रेगिस्तान कि भांति वीरान, उजाड़...और उदास दो वर्ष. हम दोनों ने साथ-साथ एम.ए. किया था.और उसके बाद नौकरी कि तलाश का वह अंतहीन सफ़र...शायद बेरोजगारी ने ही हम दोनों को कहीं से अनायास ही गहरे जोड़ दिया था. आवेदन...कॉल लेटर...रिटन टेस्ट...इंटरव्यू...एक के बाद एक सिलसिला चल पड़ा था.और इन सबके बाद हाथ लगती केवल निराशा, ग्लानी, क्रोध.बस मुक्के हवा में उठ जाते इस व्यवस्था के खिलाफ.बेमतलब. लेकिन क्रम नहीं टूटा, साहस खंडित होता रहा, मनोबल टूटता-जुड़ता रहा. रोज ही रोजगार समाचार, आवश्यकता है कालमों में निगाहें सतर्कता से कुछ ढूंढ रही होतीं.इन सबके बीच कहीं कोई आशा की मद्धम लौ चमकती...उसी चमक के सहारे वहां तक पहुँचने कि कोशिश करते...जहां सिफारिशों और रुपयों के दम पर दुसरे नियुक्त हो जाते.परीक्षा की तैयारी... देर रत तक डिस्कस...लेकिन इन सबसे कुछ नहीं होता कुछ भी नहीं.

वह तो कभी झुंझला उठता था—हर जगह एक्सपीरिएंस! अरे नौकरी ही नहीं तो कहाँ से आए एक्सपीरिएंस !जिसकी अंटी नोटों से गरम है, उसके लिए रास्ता बिलकुल साफ़ है...

कभी कहता—यार मुझे नौकरी मिल गयी तो इतनी घूस लूँगा...इतनी घूस लूँगा...

बस-बस-बस. मैं बीच में ही टोक देता, ‘इसी डर से सरकार तुझे नौकरी नहीं दे रही.वह मुस्कुरा उठता, वही परिचित मुस्कान. फिर भी ‘ट्राई अगैन’...‘ट्राई अगैन’...वह पोएम याद हो आती.

दोनों घर से बहर निकल आए.गलियाँ पीछे छूट गयीं.सामने शहर की मुख्य सडक है.

मैंने जानबूझकर स्वयं को अव्यवस्थित रख छोड़ा था. चाल में अलसाया हुआ ढीलापन. दरअसल मैं कहीं से भी विशिष्ट नहीं लगना चाह रहा था. विकास यह न समझे कि मैं यह नौकरी पा अतिरिक्त रूप से प्रसन्न हूँ. विकास भी आया ही था यह सोचकर—चलो, यह शाम भी तुम्हारे साथ गुजार लूँ.आखिरी शाम.

काफी लम्बी दूरी तक निकल आए हैं हम दोनों. एक बात दिमाग में कुलबुला रही है--आज यह इतना चुप-चुप क्यों है? मुझे समझ नहीं आ रहा था इससे क्या कहूं, क्या नहीं. बेहद अपनेपन के बीच न चाहते हुए भी , एक अस्पष्ट सी रेखा खिंच आयी है.वह भी तो बस खोया-खोया सा है.दूसरे दिनों वाली चुहल उसके चेहरे से सर्वथा गायब है..

मुख्य सड़क है. मोटर-गाड़ियाँ अपनी रफ़्तार से भागी जा रही हैं, रोज की तरह. शाम कुछ तेजी से ढलने लगी है...ठण्ड के दिन होने के कारण. सड़क के दोनों ओर दुकानें...होटलें...शोर....मैं उससे अक्सर कहता, ’ ‘ अबे आज भूख लगी है...सामने होटल है.कुछ इंतजाम कर.पैसा जेब में न होने पर कहता, ’ ‘अबे ना मैं रईस हूँ, ना साला अपना बाप !’

मैंने बड़ी झिझक के बाद उससे आग्रह किया—“चल आज होटल में कुछ खा-पी लें.”

वह चुप रहा.

“चल ना यार!” मैंने जोर दिया.

“बड़ी दया आ रही है मुझ पर?”उसने मुझे स्थिर आँखों से देखा.

मैं एक पल के लिए हतप्रभ रह गया. फिर बोला, ” “कमीने, फिर कभी ऐसा कहा तो यहीं गाड़ दूँगा ज़िंदा, समझा !”

मेरे अपनत्व बिखेरने पर धीमे से हंस पड़ा. ट्यूब लाइट्स की उजली सफेद रोशनियाँ चमक उठीं. सामने प्रभात टाकिज है. इसके आसपास खोमचेवाले बिखरे पड़े हैं. यहाँ खाते वक्त आवाजें बराबर उठती रहती हैं.

--‘सोहिनी महिवाल’ अच्छी पिक्चर है.

--‘आज कि आवाज’ बढ़िया फिल्म है.

-- ‘अनिल कपूर चमकेगा !’

लड़कियाँ शो छूटने के बाद सड़क पर अपने रंग-बिरंगे परिधानों में सजी-धजी, खिलखिलाती हुई जातीं. हमारी नजरें कुछ खोजने लगतीं. ‘अरे, उसको देखा, आसमानी पारी! अपने क्लास में ही थी ना?

‘हाँ वही तो ! फाइनल तक साथ थी.’

‘लगता है, मैरिज हो गयी....?’

हम देखते, कैसे खिलखिला रही है वह.उसकी हंसी से वह जल-भुन उठता.’ ‘जरूर इसका हसबेंड अच्छी पोस्ट में होगा.’

‘तो तुझे क्या?’ मैं उस पर खीझ उठता.

दोनों सिविल लाइन की ओर निकल आए. इस ओर पेड़-पौधे बहुत होने के कारण ठण्ड कुछ अधिक ही लगती है. हम अक्सर इधर आया करते हैं. इलाका सुनसान रहता है.सरकारी क्वार्टर्स हैं कतार से.

मैं उन क्वार्टर्स कि तरफ देखने लगा. वह भी. मुझे याद आ गया. एक बार उसने बताया था.

--‘देख ले वो, ए बाई फाइव.’

--‘यहीं रहती है वो...’

-- ‘कौन?’

--‘वही..दीपशिखा.’

उन दिनों अक्सर मुझे वह उसके बारे में बताता रहता....शी इज अ गुड गर्ल...आज मिली थी लाइब्रेरी में...आज कैंटीन में...आज दोनों गार्डन में बैठे थे...

लेकिन कुछ समय हुए, उसकी शादी हो गयी.

तब भी वह बड़ी हसरत से उस घर को देखा करता.—‘देख, कितना सूना लग रहा है घर...’बाहे एक कम वाट का बल्ब जल रहा होता.

मैं पूछता, ’प्यार करता है उससे...?और वो...?’

वह मुस्कुरा उठता., नहीं यार. मैं तो बस यों ही....मगर वो चाहती थी मुझे...’ फिर अपनेआप जैसे बड़ाबड़ाने लगता, ’ ‘ दीपशिखा जी, तुम्हारे बिना शहर उदास है...’

--‘तुम थीं तो शहर में जान थी.’

मैं उसे यों ही बहते हुए कुछ पल ध्यानपूर्वक देखता रहता. फिर पूछ बैठता, अब कहाँ है वो?

--‘अपने पतिदेव के घर!’ वह खिसिया जाता. तभी एक स्कूटर बड़ी तेजी के साथ सर्र से निकल गयी थी. पीछे कंधे तक कटे बालों वाली महिला स्कूटर चाक को अपनी नंगी बाँहों के घेरे में लपेटे हुई थी. बालों की लटें हवा से उसके चेहरे पर झूम रही हैं...

और हम दोनों बरबस मुस्कुरा पड़े थे.

“वो भी ऐसे ही कहीं घूम रही होगी. खुश! या किसी होटल के अँधेरे कोने में पति का हाथ थामे बैठी होगी...’ फिर कुछ झटके से बोला था, ’अरे, यथार्थ हमारी मुट्ठी में ना सही, कल्पनाओं में तो हम उड़ सकते हैं कुछ देर...’और हंसने लगा था.

उस घर को वह आज भी उसी हसरत से देख रहा है...जैसे अभी बाहर निकलकर आएगी...

दोनों वापस मुड़ गए.

वह चौक बहुत खाली-खाली सा लगा जहाँ अक्सर हमारी बैठक हुआ करती है. चार-पाँच लड़कों का छोटा सा ग्रुप कब दस-पन्द्रह के झुण्ड में बदल जाता, इसका पता नहीं चलता.कभी-कभी तो आधी-आधी रत तक बातें होते रहतीं...वर्तमान राजनीति...क्रिकेट..फ़िल्में..ब्लू फिल्म..से लेकर आज स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर दो में देखी गयी किसी लड़की तक..बातें ही बातें.ढेर सारी.ऊलजलूल...

वापसी में भी उससे कुछ ख़ास बातचीत नहीं हो पायी. अब सड़क कि बांयीं गली में उसका घर है, वह जाएगा....भाभी थाली उसके सामने पटकेगी...भैया कुछ पूछेंगे...डांटेंगे..वह चुपचाप अनिच्छापूर्वक ठूंसता रहेगा. फिर पढ़ेगा देर रात तक...

उसने मेरे कंधे पर अपना हाथ हलके से रखा है.मैं थोडा चौंकता हूँ.

“यार, चिट्ठी लिखना जाकर...”उसकी आवाज मुझे अपरिचित सी लग रही है.

“ये भी कोई कहने की बात है!”मैं उसे आश्वस्त करता हूँ. लेकिन मेरा स्वर भी जाने क्यों कुछ काँप रहा है.

“महानदी कब जाएगी?”

“नौ बीस पर...”

“अच्छा.’’

कुछ देर चुप खड़े रहे दोनों.

फिर वह जैसे फुसफुसाया है.यार, अकेला सा पड़ जाऊँगा....तुम थे तो कुछ सहारा जैसा...उसकी भर्राई आवाज अटकने लगी है जगह-जगह...

“मेरी शुभकामनाएं!” कुछ मुस्कुराकर उसने हाथ आगे बढाया है.हथेली बहुत ठंडी है उसकी. मैं उसे गले लगा लेता हूँ.

वह तेजी से अपनी गली में मुड़ गया. मैं अँधेरे में विलीन होती उसकी आकृति को देखता रहा.

मैं चल पड़ा. सहसा आँखों में कुछ जलन सी महसूस हुई....और गलों पर गर्म बूँदें.

मैं उन्हें पोंछने लगा....शायद विकास भी...

वह चौक बेहद उदास लग रहा था.

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कैलाश बनवासी, 41, मुखर्जी नगर, सिकोलाभाठा, दुर्ग, (छत्तीसगढ़)

मो- 9827993920