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कर्म पथ पर - 43



कर्म पथ पर
Chapter 43


हिंद प्रभात फिर से आरंभ हो गया था। हालांकि ‌अभी पहले की तरह काम नहीं हो पा रहा था। अभी हफ्ते में केवल दो बार ही चार पृष्ठों का अखबार निकल पा रहा था। उसकी भी कुछ प्रतियां छप रही थीं। जिन्हें बड़ी सावधानी के साथ गुपचुप कुछ नियमित पाठकों तक पहुँचाया जा रहा था।
इस समय वृंदा लखनऊ और आसपास के क्षेत्रों में अंग्रेज़ों के विरुद्ध मोर्चा चला रहे लोगों की कहानियों को अपनी कलम के माध्यम से पाठकों तक पहुँचा रही थी।
वह खुश थी कि उसकी लड़ाई दोबारा शुरू हो गई थी। पर इस बार भुवनदा ने कहा था कि जितना अधिक हो सके सावधानी बरतो। वो लोग सावधान थे भी।
हिंद प्रभात के वितरण का दायित्व मदन पर था। वह भी भुवनदा के साथ ही रह रहा था। कभी कभी जय भी उन लोगों से मिलने आता था।
उस दिन बैठक के बाद जब मदन ने वृंदा को बताया था कि जय ने अपने पिता के घर का आराम छोड़ दिया है। अब वह उन लोगों के साथ उसी राह पर चलना चाहता है तो वृंदा को उसके प्रति अपनी रुखाई पर अफसोस हुआ था। मदन जब भी उससे मिलता तो उसे बताता था कि जय कितनी अच्छी तरह से विष्णु की दी हुई ज़िम्मेदारी निभा रहा है।
इन सब बातों ने वृंदा पर गहरा असर डाला था। उसके मन में अब तक जय की छवि एक बिगड़े हुए रईसज़ादे की थी। अब वह छवि टूट चुकी थी। उसकी जगह जय की एक ज़िम्मेदार और जागरुक नौजवान की छवि ने ले ली थी।
जब भी जय आता था तो वह और मदन कई विषयों पर उसके साथ चर्चा करते थे। उस समय जय जितनी समझदारी और गंभीरता के साथ अपनी बात रखता था उसे सुनकर वृंदा उससे बहुत प्रभावित थी। उसने महसूस किया था कि धीरे धीरे वह उसकी तरफ खिंच रही है।
शाम हो रही थी। अपना लेख पूरा करने के बाद वृंदा मकान के बाहर बने चबूतरे पर आकर बैठी थी। ना जाने क्यों पर आज उसे बार बार जय की याद आ रही थी। परसों जब वह आया था तो मदन ने पूँछा था,
"जय‌...मेरे और वृंदा के बीच दोपहर में बहस हो रही थी। वृंदा का कहना था कि इस समय हमें सब तरफ से अपना ध्यान हटा कर सिर्फ आजादी की लड़ाई पर ध्यान देना चाहिए। इसलिए नौजवानों को स्कूल कॉलेज छोड़कर इस संग्राम में कूद पड़ना चाहिए। पर मुझे लगता है कि हमें ऐसे लोगों को भी तैयार करना चाहिए जो आज़ादी के बाद देश निर्माण के काम में सहयोग दे सकें। तुम क्या कहते हो ?"
उसका सवाल सुनकर जय ने जो जवाब दिया था उससे वृंदा बहुत प्रभावित हुई थी। जय ने कहा था,
"हमारे लिए जितना आज़ाद होना ज़रूरी है उतना ही आवश्यक है उन लोगों को तैयार करना जो नए नए आज़ाद हुए हमारे मुल्क को दुनिया के अन्य देशों के साथ तालमेल बिठाने में मदद कर सकें।‌ तब हम आज़ाद होंगे। हमारी सफलताएं हमारी होंगी तो विफलताओं का दोष भी हमारा ही होगा। हम किसी और को दोष नहीं दे पाएंगे।"
आज सुबह से ही वृंदा जय की उसी बात के बारे में भी सोंच रही थी। वह जानती थी कि समाज में बहुत सारे बदलावों की ज़रूरत है। उन बदलावों के बिना हम अपनी बागडोर अपने हाथों में लेने के योग्य नहीं बन पाएंगे।
वृंदा सोंच रही थी कि उसे भी हिंद प्रभात के साथ साथ इस दिशा में काम करना चाहिए। उसने महसूस किया कि समाज निर्माण के लिए सबसे पहला कदम होता है सबको शिक्षित करना।
उसे अपने ताऊ की याद आई। उनके ही प्रयास से वह शिक्षित हो पाई थी। आज इस लायक बन पाई थी कि देश की आजादी की लड़ाई में अपनी हिस्सेदारी दे पा रही थी। यदि उसके ताऊ ने सबके विरोध के बावजूद उसके पिता को इस बात के लिए ना मनाया होता कि वह वृंदा को घर पर मास्टर रख कर पढ़ाएं तो वह दुनिया के बारे में क्या जान पाती।
अशिक्षा के अंधेरे में इस सोंच के साथ जीवन बिता देती कि बाल विधवा होना उसके बुरे कर्मों का फल है। पूरा जीवन अपने वैधव्य पर रोते हुए गुज़ार देती।
उसे याद आया कैसे जब उसके ससुराल से जब यह खबर आई थी कि उसका पति एक हादसे में मर गया तो उसके आसपास लोग कैसी कैसी बातें कर रहे थे। सब उसके विधवा हो जाने के लिए उसे ही दोष दे रहे थे। जबकी वृंदा यह नहीं समझ पा रही थी कि उसके पति की मृत्यु में उसका हाथ कैसे हो सकता है।
वृंदा सोंच रही थी कि वह तो खुशकिस्मत थी। उसके लिए लड़ाई लड़ने वाले उसके ताऊ थे। अन्यथा समाज महिलाओं की स्थिति को लेकर इतना उदार नहीं है। उसे वो दिन याद आया जब वह हिंद प्रभात के दफ्तर से लौट कर अपने घर गई थी। उस दिन उसके पड़ोसी और उनके पिता ने उसके काम करने को लेकर कैसी कैसी बातें की थीं।
वृंदा के मन में एक विचार आया। वह उस पर सलाह करने के लिए भुवनदा के पास गई। मदन भी वहीं मौजूद था।
वृंदा ने भुवनदा से कहा,
"दादा अभी मेरे मन में एक विचार आया है ?"
भुवनदा ने पूँछा,
"कैसा विचार ?"
"दादा... अभी हिंद प्रभात का काम इतना अधिक नहीं चल रहा है। मैं सोंच रही थी कि क्यों ना मैं आसपास के बच्चों को पढ़ाने का काम करूँ। खासतौर पर लड़कियों को।"
उसकी बात सुनकर मदन बोला,
"वाह वृंदा बहुत अच्छा खयाल है तुम्हारा। तुम्हारे आने से पहले मैं और भुवनदा उस दिन जय ने जो कहा उस पर ही चर्चा कर रहे थे। तुमने जो कहा वह उसी दिशा में एक कदम होगा।"
मदन का समर्थन वृंदा को अच्छा लगा। पर भुवनदा उनके परिवार के मुखिया की तरह थे। वह उनकी रज़ामंदी की राह देख रही थी। भुवनदा ने कहा,
"विचार तो अच्छा है। पर जो भी करो सावधानी से करो। इस बार हैमिल्टन अपनी पूरी कोशिश में है कि हमें पकड़ सके। मैंने तो जय से भी कह दिया है कि यहाँ आना कम ही रखे। अगर आए भी तो पूरी सावधानी से।"
मदन ने उनकी बात का समर्थन करते हुए कहा,
"बात तो दादा की ठीक है। सावधान तो हमें रहना ही होगा।"
"तो क्या बच्चों को पढ़ाने में भी खतरा है।"
"पर अगर तुम्हारे बारे में बाहर खबर फैल गई तो ?"
मदन के इस सवाल पर वृंदा बोली,
"यहाँ तो वैसे भी हम सब नई पहचान के साथ रह रहे हैं। फिर स्कूल एक पर्दा होगा। उसके पीछे हिंद प्रभात चलता रहेगा।"
भुवनदा ने कहा,
"तुम लोग जैसा ठीक समझो। बस किसी भी कीमत पर लापरवाही नहीं होनी चाहिए।"
भुवनदा से अनुमति मिलने पर वृंदा बहुत खुश हुई।


इंस्पेक्टर जेम्स वॉकर गंभीरता पूर्वक अपने कमरे में इधर से उधर टहल रहा था। वह हैमिल्टन का खास आदमी था। पिछली बार उसने ही वृंदा को गिरफ्तार करवाया था।
इस बार भी हैमिल्टन ने उसे ही यह ज़िम्मेदारी सौंपी थी। जेम्स वॉकर का मन हिंदुस्तान में नहीं लगता था। वह इंग्लैंड वापस जाना चाहता था। पर मजबूर था।‌
हैमिल्टन ने उसे यकीन दिलाया था कि इस बार यदि वह वृंदा को पकड़ कर उसके पास ले आया तो वह उसे ढेर सारे पैसे देगा। तब वह चाहे तो नौकरी छोड़कर अपने वतन वापस जा सकता है।
जेम्स को जब सुजीत कुमार मित्रा के मकान के बारे में पता चला था तो वह बहुत खुश हुआ था। उसे लगा था कि वह वृंदा तक पहुँच गया। पर उसके हाथ सिर्फ निराशा लगी थी।
हैमिल्टन बार बार उससे पूँछ रहा था कि उसके काम का क्या हुआ। उसे बताते हुए शर्मिंदगी हो रही थी कि वह अभी तक एक मामूली लड़की को पकड़ नहीं पाया है।
वृंदा को पकड़ना अब उसके लिए साख का सवाल बन गया था। वह किसी भी कीमत पर वृंदा को पकड़ कर हैमिल्टन के सामने पेश करना चाहता था।
टहलते हुए उसे इंद्र का खयाल आया। पिछली बार उसने ही वृंदा को पकड़वाने में मदद की थी।
उसने फौरन अपने अर्दली को बुलाकर वह फाइल लाने को कहा जिसमें इंद्र ने अपना पता लिखवाया था।

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