कर्म पथ पर - 42 Ashish Kumar Trivedi द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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कर्म पथ पर - 42



कर्म पथ पर
‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌‌ Chapter 42


जबसे जय अपना घर छोड़कर गया था इंद्र को महसूस हो रहा था कि उसके जाल में फंसी सोने की मछली देखते ही देखते उसके जाल से निकल गई है। एक ही झटके में उसके सपनों का रंगमहल भरभरा कर गिर गया। वह यह बात सहन नहीं कर पा रहा था।
इंद्र बंबई की फिल्म नगरी में अपना नाम बनाना चाहता था। पहले जब उसने कोशिश की थी तो वह सफल नहीं हो सका था। तब उसके सामने पैसों की समस्या थी। लेकिन अब उसके हाथ जय के रूप में सोने का अंडा देने वाली मुर्गी लग गई थी। वह जय को सीढ़ी बना कर फिल्म जगत में सफलता पाने के सपने देख रहा था।
उसे इसका मौका भी मिल गया था। कुछ दिनों पहले क्लब में उसकी मुलाकात अपने एक पुराने मित्र से हुई। वह भी उसकी तरह फिल्म निर्माण में दिलचस्पी रखता था। वह कई दिनों से बंबई में रह कर अपनी किस्मत आजमा रहा था। अपने किसी निजी काम से वह यहाँ आया हुआ था। बंबई में उसने अच्छी खासी जान पहचान बना ली थी। उसने इंद्र के सामने प्रस्ताव रखा कि यदि वह कुछ पैसों की व्यवस्था कर ले तो वह उसके साथ मिलकर फिल्म बनाने को तैयार है।
इंद्र के पास एक प्रेम कहानी थी। उसने योजना बनाई थी कि वह जय को हीरो के तौर पर लेकर उस पर एक फिल्म बनाएगा। उसे पूरा विश्वास था कि इस तरह श्यामलाल से एक अच्छी रकम वसूल की जा सकती है। अपने बेटे के भविष्य के लिए वह खुशी खुशी पैसे देने को तैयार हो जाते।
श्यामलाल ने उससे कहा था कि वह जय के बारे में पता करे। वह भी चाहता था कि जय को ढूंढ़ कर किसी तरह उसे घर वापस भेजा जाए। एक बार अगर वह अपने घर लौट गया तो फिर वह दोबारा उस पर अपना शिकंजा कसने की कोशिश करेगा।
जय का पता करने के लिए उसके दिमाग में एक नाम आया हंसमुख। हंसमुख पहले भी उसकी सहायता कर चुका था। इंद्र ने हंसमुख को अपनी फिल्म में काम देने का झांसा देकर मदन के पीछे लगा दिया।
हंसमुख पूरी सावधानी के साथ मदन की हर हरकत पर निगाह रखने लगा। एक दिन वह मदन का पीछा करते हुए अग्रवाल सदन पहुँच गया।
पर इंद्र ने इस बात की सूचना श्यामलाल को नहीं दी। पिछली बार जब वह उनसे मिला था तो उसने महसूस किया था कि अपनी इकलौती संतान के वियोग में ‌श्यामलाल अंदर से खोखले हो रहे हैं। वह ऊपर से तो गुस्सा दिखा रहे थे कि अगर जय आ जाए तो उसे घुसने नहीं देंगे। पर वह जानता था कि श्यामलाल अपने बेटे से मिलने के लिए तड़प रहे हैं।
वह चाहता था कि श्यामलाल इतना टूट जाएं कि वह उन्हें अपने इशारों पर नचा सके।

जय विष्णु अग्रवाल का मैनेजर बन कर उनकी सारी संपत्ति की देखभाल कर रहा था। वह बखूबी अपना काम कर रहा था।
उसने अमीनाबाद में स्थित उन दुकानों से किराए की वसूली कर ली थी जिन्होंने कई महीनों का किराया नहीं दिया था।
विष्णु की मौरांवां नामक गांव में करीब दस बीघा खेत थे। कई सालों से विष्णु के एक रिश्तेदार वहाँ खेती कर रहे थे। पर फसल में से कुछ भी विष्णु को नहीं दे रहे थे। सब जानते हुए विष्णु भी उनसे कुछ नहीं कहते थे।
जय ने उनका ध्यान इस तरफ दिलाया। जय के कहने पर वह उसके साथ मौरांवा गए। वहाँ उन्होंने अपने रिश्तेदार से इस विषय में बात की। उन्होंने कहा कि अब जो गेंहू की फसल कटने वाली है उसमें उन्हें आधा हिस्सा चाहिए। यदि ऐसा नहीं हुआ तो वह अपने खेत वापस ले लेंगे।
जय उनके कहने पर मौरांवा से उनके हिस्से के बदले कुछ नगद व कुछ बोरे गेंहू लेकर लौटा था। काका गेंहू के बारे भंडार में रखवा रहे थे।
जय‌ विष्णु को नगद राशि देने के बाद सारा हिसाब समझा रहा था। सब हिसाब समझ लेने के बाद विष्णु ने पैसों में से कुछ उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा,
"तुम्हारे भी वेतन का समय हो गया है।"
जय ने पैसे लिए। फिर अपने खाने के पैसे वापस विष्णु को पकड़ा दिए। लेकिन उसे लगा कि इस बार उसके पास हमेशा से अधिक पैसे बच गए हैं। उसने गिनती की। दस रुपए अधिक थे। विष्णु को वापस करते हुए वह बोला,
"दादा...आज पैसे मिले तो आप भी लुटाने लगे। दस रुपए अधिक दिए आपने।"
"लुटाया नहीं है जय तुम्हारी मेहनत का है। तुम ना होते तो मैं मौरांवा वाले खेतों की तरफ ध्यान ही ना देता।"
"पर दादा मैं क्या करूँगा। मेरे लिए तो उतने ही अधिक थे।"
"रख लो। पैसा कभी भी काम आ सकता है।"
जय ने महसूस किया कि विष्णु बहुत खुश हैं।
उस दिन बैठक में हिंद प्रभात को लेकर जय के मन में एक विचार आया था। पर उस समय वह कुछ नहीं बोला था। उसे पता था कि मोहनलाल गंज में विष्णु की एक पुरानी प्रिंटिंग प्रेस है। जो बंद पड़ी है।
जय ने सकुचाते हुए कहा,
"दादा एक बात करनी थी।"
"कहो क्या बात है ?"
"वो मोहनलाल गंज में आपकी एक बंद प्रिंटिंग प्रेस है। उसके बारे में कुछ कहना था।"
"हाँ मेरे पिताजी ने कुछ दिनों तक हिंदी की एक साहित्यिक पत्रिका निकाली थी। पर चल नहीं पाई। पिताजी का स्वास्थ भी खराब हो गया। वह बंद हो गई। पर उसका क्या करोगे ?"
जय ने उन्हें हिंद प्रभात वाली बात बता दी।
विष्णु गंभीर हो गए। जय उनके उत्तर की राह देखने लगा। कुछ देर बाद वह बोले,
"हिंद प्रभात पर अंग्रज़ी सरकार की नज़र है। मुझे मदद करने में कोई आपत्ति नहीं है। पर सरकार की नज़र में नहीं आना चाहता हूँ।"
जय ने कहा,
"दादा वैसे तो भुवनदा वैसे ही बहुत सावधानी बरतते हैं। पर आपका भी कहना सही है। पर यदि आप वह बंद पड़ी प्रेस उन्हें बेंच दें तो आपकी ज़िम्मेदारी नहीं रहेगी।"
"क्या वो प्रेस खरीदने को तैयार होंगे ?"
"मेरी उनसे बात हुई थी। वह हिंद प्रभात के लिए एक सुरक्षित जगह तलाश रहे थे। मुझे लगता है वह तैयार हो जाएंगे।"
विष्णु इस बात पर तैयार हो गए कि अगर भुवनदा खरीदने को तैयार हों तो वह प्रेस बेचने को तैयार हैं।

भुवनदा को पता चला कि पुलिस सुजीत कुमार मित्रा के उस मकान तक पहुँच गई थी जहाँ से पहले हिंद प्रभात का संचालन हो रहा था। यह खबर परेशान करने वाली थी। भुवनदा को डर था कि कहीं पुलिस उनके मकान तक ना पहुँच जाए। इसलिए वो बंसी और वृंदा को लेकर बाराबंकी में एक छोटा सा मकान लेकर रहने लगे थे।
वृंदा हिंद प्रभात के बंद हो जाने से बहुत परेशान थी। वह चाहती थी कि जल्द से जल्द हिंद प्रभात दोबारा आरंभ हो। ताकि उसकी अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ाई को फिर से शुरू किया जा सके।
जय बाराबंकी जाकर भुवनदा से मिला और उनसे बात की। उन्होंने कहा कि यदि कीमत उनके अनुकूल हुई तो वह प्रेस खरीद लेंगे। किंतु एक बार वह स्वयं जाकर प्रेस देखना चाहते हैं।
जय ने यह बात विष्णु को बताई। वह प्रेस दिखाने को तैयार हो गए। जय और भुवनदा को लेकर विष्णु प्रेस दिखाने ले गए।
सब कुछ ठीक था। भुवनदा ने विष्णु से बात की। वह उनकी कही कीमत पर प्रेस बेचने को तैयार हो गए।
प्रेस एक मकान में थी। वहाँ रहने की व्यवस्था हो सकती थी।
भुवनदा वृंदा और बंसी मोहनलाल गंज चले गए।