पतझड़ sudha bhargava द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पतझड़

पतझड़/ सुधा भार्गव
कुछ साल पहले की ही तो बात है हमारे मित्र की बेटी सुलक्षणा और दामाद सौरभ अपने प्यारे से बच्चे रूबल के साथ चार साल के लिए लंदन गए। दोनों ही डाक्टर थे। अरमान था कि बेटे को कुछ साल तक वहीं पढ़ाएंगे। सोचते थे बाल पौधे को हरा –भरा रखने के लिए वहाँ काफी रोशनी –पानी और खाद मिलेगी।
रूबल वहाँ बहुत खुश था। उसका चंचल मन हमेशा वहाँ सक्रिय रहता। बाजार जाता तो किताब की दुकान में शब्दों पर निगाह जमाए पन्ने पलटता रहता ,घूमने निकलता तो आगे –आगे उसकी साइकिल पीछे –पीछे उसके मम्मी–पापा । लंदन की सड़कों पर बर्फ के फुदकते गोलों को देख खुशी के मारे खुद भी उछलने लगता । समय गुजरने के साथ -साथ उसने वहाँ नर्सरी से निकलकर कक्षा 2 उत्तीर्ण भी कर ली ।
बातूनी होने के कारण स्कूल में उसके दोस्तों की लाइन बढ़ती ही जा रही थी और साथ में जानकारी भी । एक दिन उसका दोस्त विलियम स्कूल की बेंच पर आँखों से आँसू लुढ़काता उदास सा बैठा था ।
"क्या बात है विलियम ? पापा की डांट खाकर आए हो क्या ।''
"पापा तो हमारे साथ ही नहीं रहते पर आज मुझे उनकी बहुत याद आ रही है ।''
"कहाँ गए वे ?"
"मम्मी –और उनमें बहुत झगड़ा होता था इसलिए दोनों में तलाक हो गया है।''
"तलाक क्या होता है ?"मासूम रूबल ने पूछा ।
"यह तो नहीं मालूम । पर मेरी माँ ने बताया कि तलाक के बाद वे अलग अलग रहते हैं।''
"यह कैसे हो सकता है ! मेरे मम्मी –पापा तो एक दिन अलग नहीं रह सकते ।''
"तुम बहुत तकदीर वाले हो कि दोनों के साथ रहते हो । यहाँ जितने भी मेरे दोस्त हैं वे या तों माँ के साथ रहते हैं या पापा के साथ ।''
रूबल दुख से भर उठा । उसके लिए तो यह नई बात थी । पर धीरे –धीरे उसे यह देखने और सुनने की आदत हो गई ।
बहुत दिनों के बाद एक बार उसके पापा को स्कूल छोडने जाना पड़ा।गेट में घुसते ही जॉन भी अपनी पापा के साथ आता नजर आया।
"हॅलो रूबल !तुम भी अपने पापा के साथ आते हो ।''
"मुझे तो माँ ही छोडने आती हैं पर आज उन्हें कुछ काम था इसलिए पापा आए।"रूबल बोला।
"मैं तो रोज पापा के साथ आता हूँ । माँ को तो मैंने देखा ही नहीं ।"
रूबल खामोश रहा क्योंकि अब उसे यह सब सुनने और देखने की आदत पड़ चुकी थी। यूरोपीय समाज की छाप उसके दिमाग में अपने चिन्ह छोडने लगी थी ।


एक दिन अचानक माँ –बाप की अस्वस्थ्यता का समाचार मिला तो रूबल के पिता बेचैन हो उठे। बहुत कोशिश की कि किसी तरह एक हफ्ते की ही छुट्टियाँ मिल जाएँ ताकि वे भारत जाकर माँ -बाप से मिल सकें पर प्रयत्न निष्फल रहा। जब खुद का जाना असंभव लगा तो सुलक्षणा को अपने पति से 6 माह पहले ही भारत जाने का विचार बनाना पड़ा। अपने व रूबल के लिए दो टिकट भी खरीद लिए। जब रूबल को पता चला कि भारत जाने का उसका टिकट खरीदा जा चुका है तो गुस्से में गरम पानी सा खौलने लगा ।


"माँ ,किससे पूछकर आपने भारत जाने का मेरा टिकट कराया?"
सुलक्षणा को इस प्रकार के प्रश्न की आशा न थी। फिर भी अपने को सम्हालती हँसते हुए बोली –"अरे ,तुम मेरे बिना कैसे रहोगे ?"
"पापा तो यहीं रहेंगे !"
"तुम्हारे पप्पू तो अस्पताल में मरीजों को देखते रहेंगे,तुम्हारी देखभाल कौन करेगा ?"
"मैं अपनी देखभाल करना अच्छी तरह जानता हूँ ।"
"कैसे?"
"स्कूल में हमें बताया गया है जिनके माँ –पापा अलग रहते हैं या उनका तलाक हो जाए तो उन्हें अपने काम अपने आप करने चाहिए।"


तलाक शब्द इतने छोटे बच्चे के मुंह से सुनकर सुलक्षणा का माथा भन्ना गया। फिर भी उसके कौतूहल ने सिर उठा लिया था।
"मैं भी तो सुनूँ---मेरा लाड़ला क्या –क्या ,कैसे-कैसे करेगा ?"
"घर में अकेला होने पर जंक फूड ,प्रीकुक्ड फूड,फ्रीज़ फूड खाकर और दूध पीकर रह लूँगा। मेरे पास इन्टरनेट से लिए होटल के फोन नंबर भी हैं । डायल करने से वे तुरंत घर में सबवे सेंडविच ,पीज़ा पहुंचा देंगे। माँ ,नो प्रोब्लम !"
माँ को झटका सा लगा –वह अपने बच्चे को जितना बड़ा समझती थी उससे कहीं ज्यादा बड़ा हो गया उसका बेटा ।ममता की जिन सीढ़ियों पर खड़ी खुद को गर्वित महसूस करती थी उनके ढहने से वह लड़खड़ा गई।
बुझे से स्वर में बोली –"बेटा तुम्हें मेरी याद नहीं आएगी ?"
"आएगी मम्मा पर टी. वी. मेरा साथी जिंदाबाद!"
"तुम बीमार हो गए तो मैं बहुत परेशान हो जाऊँगी ।"
"अरे आप भूल गईं !आपने ही तो बताया था एक फोन नम्बर जिसे घुमाते ही एंबुलेंस दरवाजे पर आन खड़ी होगी ।"
"लेकिन बेटा तुम्हें तो मालूम है कि पापा थक जाने के बाद चिड़चिड़े हो जाते हैं । अगर तुम्हें डांटने लगे तो तुम्हें भी दुख होगा और मुझे भी ।"
"देखो माँ! डांट तो सह लूँगा क्योंकि पैदा होने के बाद डांट खाते –खाते मुझे इसकी आदत पड़ गई है पर मार सहना मेरे बसकी नहीं । मुझे स्कूल में अपनी रक्षा करना भी बताया जाता है।"
"अपनी रक्षा !"
"मतलब ,अपने को कैसे बचाया जाए !"
"तुम अपनी रक्षा कैसे करोगे ? मेरे भोले बच्चे के हाथ तो बहुत छोटे –छोटे हैं ।" प्यार से सुलक्षणा ने रूबल के हाथों को अपने हाथों में ले लिया।


माँ की ममता को दुतकारते हुए रूबल ने अपना हाथ छुड़ा लिया –"अगर पापा मुझ पर हाथ उठाएंगे तो मैं पुलिस को फोन कर दूंगा। वह पापा को झट पकड़ कर ले जाएगी या उन्हें जुर्माना भरना पड़ेगा। यहाँ बच्चों को मारना अपराध है। मैं आप के साथ भारत नहीं जाऊंगा ,वहाँ मेरे चांटे लगाओगी।"
सुलक्षणा की इस बात में दो राय नहीं थीं कि उसका बेटा कुछ ज्यादा ही सीख गया है। उसने लंदन छोडने में ही भलाई समझी। उसे एक –एक दिन भारी पड़ रहा था ।
बेटे के व्यवहार से विद्रोह की बू आ रही थी लेकिन डॉक्टर होने के नाते वह यह भी जानती थी कि उसकी सोच को एक उचित मोड़ देना होगा।


सुलक्षणा भयानक अंधड़ से गुजर रही थी। यह कैसा न्याय !गलती करने पर माँ –बाप को दंडित करने की समुचित व्यवस्था है परंतु माँ –बाप से जब संतान बुरा आचरण करे तो उन्हें सजा देने या समझाने का कोई विधान नहीं ।
लंदन में सुलक्षणा की एक डाक्टर सहेली भी रहती थी जो शादी के बाद यहीं रच- बस गई थी । उसके भी एक बेटा था । लंदन की चकाचौंध व घर -बाहर के चक्कर में सुलक्षणा ऐसी फंस गई थी कि उससे मिलना ही न हो सका। मगर जाने से पहले अपनी सहपाठिन से जरूर मिलना चाहा । जिस दिन उसके यहाँ जाना हुआ उस दिन इत्तफाक से उसके बेटे दीपक का जन्मदिन था।


रूबल की तो वहाँ खुशी का ठिकाना ही न था । जाते ही दीपक की दादी ने उसकी जेबें टॉफियों से भर दी और प्यार से बोलीं –"चलो बेटे ,दीपक के पास,केक कटने वाली है । तुम्हारी सुंदर सी फोटो भी खिचेगी ।" उनके स्नेहभरे आग्रह में रूबल को सफेद बालों से घिरा अपनी दादी का चेहरा नजर आने लगा और उनके पीछे हो लिया । बड़े हर्षोल्लास से केक काटने के बाद सबसे पहले दादी ने दीपक को केक खिलाया और उसके गाल पर अपने प्यार की छाप लगा दी ।
तभी ख्यालों का एक बादल रूबल से टकराया –
"तेरा जन्मदिन भी तो अगले माह है । माँ के चले जाने के बाद जन्मदिन कैसे मनाएगा? तेरे पापा तो मरीज छोडकर केक लाने से रहे ।" रूबल का मन खिन्न हो उठा ।


कुछ ही देर में रूबल, दीपक और उसके दोस्तों से घुलमिल गया पर उसकी साँसों में रिश्तों की महक भी घुलने लगी थी।
"तेरी दादी तुझे बहुत प्यार करती हैं ?"रूबल ने दीपक से पूछा ।
"हाँ !मैं भी उनके बिना नहीं रह सकता । मम्मी –पापा का गुस्सा !तौबा रे तौबा ऐसा लगता है बिजली कड़क रही है और बस मुझ पर गिरने वाली है ऐसे समय बाबा आकर मुझे झट से बचा लेते हैं । और एक बात कहूँ किसी से कहना नहीं । जब मुझे पकौड़ी-हलुआ खाना होता है तो दादी के कान में चुपके से कह देता हूँ। बस मेरे सामने हाजिर।"
"मुझे भी अपने दादी बाबा की याद आ रही है । जब मैं भारत में था – माँ के न होने पर दादी माँ मुझे खाना खिलातीं ,परियों की कहानी सुनातीं। ओह !बाबा तो मेरे साथ फुटबॉल खेलते थे ।"

"तुम उनके पास चले क्यों नहीं जाते!"
"हाँ इसी माह जाने की सोच रहा हूँ।" रूबल अतीत के प्रेम सरोवर में दादी –बाबा के साथ डुबकियाँ लेने लगा।


लौटते समय रूबल रास्ते भर चुप्पी साधे रहा पर घर पहुँचते ही उसने अपनी चुप्पी ऐसी तोड़ी जो धमाके से कम नहीं थी ।
:माँ ,हमें भारत कब चलना है ?"
"तुम –तुम तो मना कर रहे थे ।"
"मैं भी चलूँगा । मुझे दादी-बाबा की याद आ रही है ।" उसकी आँखें छलछला आईं।


कुछ रुक कर बोला-"उस दिन फोन आया था ,दादी को बुखार हो जाता है और बाबा चाहे जब ज़ोर –ज़ोर से खाँसने लगते हैं । दादी तो ज्यादा चल नहीं सकतीं । बाबा को ही सारा काम करना पड़ता होगा । आप भी तो यहाँ चली आईं।यहाँ तो मेरे दोस्तों के दादी –बाबा उनसे अलग रहते हैं । बूढ़े होने पर भी उन्हें बहुत काम करना पड़ता है । कल मम्मा ,आपने आइकिया (I.K.E.A)में देखा था न ,वह पतली –पतली टांगों वाली बूढ़ी दादी कितनी भारी ट्रॉली खींचती हाँफ रही थी। उसकी सहायता करने वाला कोई न था । मगर मेरे दादी -बाबा तो अकेले नहीं हैं । मैं दौड़ दौड़कर उनके काम करूंगा ।" रूबल का मन करुणा से भरा था ।
सुलक्षणा स्तंभित थी कि एकाएक प्रेम की खेती कैसे लहलहाने लगी। इस लहराती लहर में हरिण सी कुलाचें मारता रूबल का मन अपनी जन्मभूमि की ओर उड़ चला था और सुलक्षणा ने भी अपने अनुकूल बहती बयार में गहरी सांस ली । उसको लगा जैसे पतझड़ उसके ऊपर से गुजर गया है ।