बच्चों का मेला sudha bhargava द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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बच्चों का मेला

कहानी

बच्चों का मेला /सुधा भार्गव

मुकद्दर –चुकद्दर एक बार बड़े शौक से मेला देखने गए । मेला कोई ज्यादा बड़ा नहीं था । एक तरफ छोटी –छोटी दुकाने लगी हुई थीं दूसरी ओर खाने पीने की दुकानें। पर इस छोटी सी दुनिया में एक बहुत बड़ी दुनिया समा जाना चाहती थी ।

मुकद्दर समझ न सका –लोग दुकान पर टूटे क्यों पड़ रहे हैं । वह तेजी से आगे बढ़ा ,उसके पीछे चुकद्दर भी । दुकान पर बोर्ड लगा था –माँ के साथ बच्चा मुफ्त ।दोनों सकते में आ गए । दुकान का जायका लेने को उसमें झाँका –छोटे –बड़े ,काले गोरे ,गंजू –कंजू सभी तरह के कुत्ते-कुतिया और पिल्लों से दुकान भरी थी । ग्राहक कुत्ते या कुतिया का पल्ला थामता और दुकानदार उसकी झोली में एक पिल्ला भी डाल देता । देखते ही देखते दुकान में माल आधा रह गया ।

दूसरी दुकान पर लिखा था –दो के साथ एक मुफ्त ।

चुकद्दर बड़बड़ाया –पहली दुकान में माँ के साथ बच्चा मुफ्त !यहाँ क्या दो माँ के साथ एक बच्चा मुफ्त मिल रहा है पर माँ तो दो नहीं होतीं ।

-अरे यहाँ तो छोटी –छोटी टोपी –कमीजें लटक रही हैं बैठने के लिए गद्दियों की भी भरमार है । चल अपने बच्चोंके लिए खरीद लें । मुकद्दर बोला ।

धक्कामुक्की –ठेलमठेल करता मुकद्दर दुकान में पहुंचा और एक कमीज उठाने लगा । दुकानदार ने उसका गला पकड़ लिया –ए –किसको ले जाता है ।

-अपने बिटूआ कू ।

-यह तेरे बिटुआ का नाही कुत्ता के बिटुआ का है ।

-गद्दी भी उसकी है क्या ?

-जिनावर कू ठंड नाही लागे क्या !यह भी कुत्ता के लिए है ।

-चल रे यार आगे बढ़ । मुकद्दर खीज पड़ा ।

अगली दुकान पर लिखा था –हर पैकिट 5रुपए में ।

उनको देखकर चुकद्दर बोला –बिस्कुट तो बड़े सस्ते हैं । क्यों न 4-5 अपने बच्चों को ले लें ।

मुकद्दर लेने के लिए पैकिट छांटने लगा तभी उसकी निगाह कुत्ते के चित्र पर पड़ी ,वह तो ठिठक गया ।

बोला –चलरे –इतना सस्ता माल तो कुत्तों के लिए है ।

-अरे कहाँ भागे जा रहे हो । कुत्तों को खरीदकर उनकी देखभाल करके कुछ तो पुन्य कमा लो । चलो तुम्हें मिस्टर कुर्बानी से मिलाता हूँ । इन्होंने दो पिल्लों को गोद लेकर अपनी जायदाद भी उनके नाम कर दी है । दुकानदार ने ग्राहक को फंसाना चाहा ।

-जल्दी चल रे –हमारा यहाँ गुजारा नहीं ।

-ठीक है आगे चलकर जानवर का नहीं तो इंसान का बच्चा ही गोद ले लेना । दुकानदार व्यंग से हंसा।

दोनों दोस्त तेजी से चल दिये । शायद अंतिम शब्द उन्होंने नहीं सुने ।

कुछ दूरी पर लोगों का समुंदर उमड़ा जा रहा था । बीच में एक दुकान थी जो टापू की तरह नजर आ रही थी । वहाँ तक पहुँचना आकाश के तारे तोड़ने के समान था । । भीड़ में पैर कुचलते ,कपड़े खींचते –खिंचवाते किसी तरह से आगे मुकद्दर –चुकद्दर आ ही गए ।

दुकान का नजारा देखकर तो उनके दिल की धड़कने तेज हो गईं । छोटे बच्चों के झुंड के झुंड बैठे हुए थे ।सबके चेहरे उदास –गमगीन ।आँखों से दर्द टपकता था । उनकी बोली लग रही थी –सस्ता माल –टिकाऊ माल –ले लो कमाल का माल ।

-खुले आम बच्चे बेचे जा रहे हैं । यह तो अकानूनन है । आखिर इनको लोग खरीद क्यों रहे हैं ?चुकद्दर ने पूछा ।

-औधड़ खोपड़ी वाले –बच्चे बिक नहीं रहे ,लोग इन्हें टटोल –टटोलकर पसंद कर रहे हैं । फिर गोद लिए जाएँगे । दुकानदार ने अपनी बुद्धि का प्रदर्शन किया ।

-लेकिन तुम तो इनसे पैसा ले रहे हो ।

-ये बच्चे एक दिन में तो मेरे पास से नहीं चले जाएंगे । इनके भरण –पोषण को धन तो चाहिए । चाहो तो तुम भी एक लड़का गोद ले लो ।

-मैं क्या करूंगा । मेरे तो पहले से ही दो हैं ।

-तू तो मूर्ख लगता है । । अरे एक लड़के को जरा सी पढ़ा -लिखी के बाद घर ले जाएगा तो जिंदगी भर मौज करेगा । गोद लिए लड़के के सामने झूठन –कूटन डाल दीजो । जरा बड़ा होते ही

खेती का काम करेगा ,घर का काम करेगा –बीबी –बच्चों की मौज । रात –दिन खटने दीजो ,मरे साला तो मरे । और हाँ ,उसके मरने के बाद भी तुझे फायदा ही फायदा है । साले कू कटवाकर उसके गुर्दे –आँख बेच दीजों । लाखों का मालिक हो जाएगा । अब तो सूखी हड्डी के भी पैसे हैं । न मरघट ले जाने का लफड़ा न दफनाने का सिरदर्द ।

-मेरे तो अभी से सिरदर्द होने लगा है जरा से लोभ ने तुम्हें पत्थर बना दिया है । सुना था हर पत्थर कुछ न कुछ बनना चाहता है और स्वयं को ऐसे हाथों में सौंप देता है जो छैना –हथौड़ी थामे हुए हों । तुम तो दूसरों का इंसानी जज्बा ही छीन लेना चाहते हो । कहीं ऐसा न हो कि तुम हृदयहीनता के जंगल में ऐसा फँसो कि रास्ता ही नजर न आए ।

तभी एक औरत हाँफती-रोती आई और बोली –सुन रहे हो जी –हमारा टुन्नू अभी तक स्कूल से नहीं लौटा है दो घंटे से पास पड़ोस –रिशतेदारों को फोन मिला रही हूँ । स्कूल भी हो आई हूँ । कुछ पता नहीं लग रहा । जल्दी से उसे ढूंढ कर लाओ । मेरे तो जान ही निकली जा रही है ।

दुकानदार के चेहरे पर मुरदनी छा गई । दुकान में बैठे बच्चों को देख उसकी आँखें नम हो गईं । शायद व्यथा का व्यथा से जुड़न हो गया था । नियति की कठोर चट्टान के नीचे दबकर वह अपने को बहुत निर्बल महसूस कर रहा था ।जैसे -तैसे उठा और बच्चे को ढूँढने निकल गया । सुनते हैं वह आजतक अपने बच्चे को ढूंढ रहा है । अपनी दुकान के पास एक पेड़ के नीचे अक्सर बैठा रहता है जो कभी हँसता है ,कभी रोता है ,कभी एक पत्थर पर दूसरा पत्थर मारकर चीत्कार करता है मेरे बच्चा –मेरा बच्चा ।

समाप्त