तीसरी रात
महेश शर्मा
पहला दिन, सुबह : 8 बजे
वह आवाज़ ठीक वैसी थी मानो किसी चाकू या तलवार को, धारदार बनाने के लिए, किसी पत्थर पर घिसा जा रहा हो। हालाँकि यह आवाज़ बहुत ही धीमे से उभरी थी लेकिन इस सन्नाटे में साफ-साफ सुनी जा सकती थी।
उसके कानों ने इसे सुना और वह सिहर उठा। डर किसी लकीर की तरह उसके भीतर खिंचता चला गया। उसने आँखें खोलने की कोशिश की। उसे, हाथ-पैर बांध कर, एक कोने में पटक दिया गया था। चारों तरफ घने अंधेरे के अलावा कुछ नहीं है। उसकी आँखों को भी कस कर बांध दिया गया है शायद। लेकिन अगर वह किसी तरह अपनी आँखें खोल भी लेगा तो भी सिवाय अंधेरे के कुछ नहीं दिखाई देगा।
आवाज़ फिर उभरी!
वह समझ गया कि बस अब उसका काम तमाम होने वाला है। अभी उस चाकू या तलवार को उसके शरीर में खचाक से उतार दिया जाएगा। शायद उसे पहले उसके पेट में घोंपा जायेगा। या सीधा दिल में। यह भी हो सकता है कि उसका गला रेत दिया जाए। अगर वह तलवार है, तो उसका सिर धड़ से अलग भी किया जा सकता है। उसकी रीढ़ की हड्डी में एक सर्द लहर दौड़ने लगी।
उसे यदि यह आवाज़ नहीं सुनाई देती तो शायद उसे पता भी नहीं चलता कि इस सुनसान अंधेरे में उसकी हत्या की तैयारी चल रही है। बिना कोई चेतावनी दिए आई हुई मौत से ज़्यादा भयानक कुछ भी नहीं हो सकता। आप भौचक्के रह जाते हैं और मर जाते हैं। मरने के बाद भी आपको यकीन नहीं आता कि आप मर चुके हैं।
उसने थोड़ी देर इंतज़ार किया। नहीं! अब आवाज़ आनी बंद हो चुकी थी। वह चाकू या तलवार अब पर्याप्त धारदार हो चुका था। उसे अपने आस-पास फिर एक ठंडा और अंधेरा सन्नाटा महसूस होने लगा।
उसने फैसला किया कि वह खुद को इस तरह मारे जाने का यह नज़ारा ज़रूर देखेगा। एक हल्की सी छटपटाहट उसके भीतर से उठने लगी। वह अपने सुन्न पड़ गए हाथों को फिर से जगाना चाहता था। अपनी आँखों को खोल देना चाहता था। उसने अपनी सारी ताकत समेट कर ज़ोर लगाया -
- और अचानक वह ऐसा कर पाया।
उसने पाया कि उसके हाथ-पैर खुल चुके हैं। खुली आँखों के आगे अंधेरा था। उसने अपने हाथों से उस अंधेरे को पकड़ा और दूर फेंक दिया। उसे सब कुछ धुंधला दिखाई दिया। उसने अपनी आँखों को मला – फिर दोबारा खोला। हाँ, अब वह सब कुछ स्पष्ट देख सकता है -
-उसने देखा कि वह अपने कमरे में अपने बिस्तर में है। सुबह की रोशनी खिड़की पर टंगे पर्दों से छन कर भीतर आ रही थी।
-“अरे!” चाय और अखबार लेकर अंदर आ रही पत्नी ने पूछा – “यह लिहाफ तुमने नीचे क्यों फेंक दिया?”
उसने देखा – वाकई उसका लिहाफ बिस्तर से नीचे गिरा हुआ था।
-“सुबह-सुबह ठंडक रहती है –” पत्नी लिहाफ उठाकर उसे ओढ़ाते हुये बोली – “सर्दी लग जाएगी।”
वह बिस्तर पर उसके पास ही बैठ गई। उसने अखबार खोल कर फैला लिया। दोनों साथ-साथ चाय पीते हुए अखबार पढ़ने लगे।
तभी एक तेज़ आवाज़ आयी। किचन में कोई बर्तन गिरा हो जैसे।
-“अरे!” वह चौंका – “यह किचन में कौन घुस आया इतनी सुबह-सुबह?”
-“मेड है।” पत्नी अखबार का पन्ना पलटते हुए बोली – “बर्तन धो रही है।”
-“वह वापस आ गई?”
वह अभी भी हैरान था। कल ही तो उनकी मेड तीन दिन की छुट्टी लेकर अपने गाँव चली गई थी।
-“अरे भई यह दूसरी मेड है!” पत्नी थोड़ा सा झल्ला उठी – “हमारी मेड ने कहा था कि वह तीन दिन के लिए अपनी पहचान की किसी दूसरी मेड को भेज देगी।”
-“ओह अच्छा!”
-“तुम चाय पियो। ठंडी हो रही है।”
वह चुपचाप अपनी चाय पीने लगा। किचन से फिर खटर-पटर की आवाजें आने लगी। उसे थोड़ी खीझ हुई - पता नहीं किस अनाड़ी को अपनी जगह भेज दिया उस मेड ने। कितना शोर कर रही है यह।
-“ओह!” सहसा उसकी पत्नी ने एक खबर की ओर इशारा करते हुए कहा – “अभी भी हम जंगलियों के बीच रह रहे हैं।”
उसने देखा कि खबर किसी दूर-दराज के ग्रामीण इलाके की थी। दो दिन पहले एक बूढ़ी औरत को डायन करार देकर भीषण शारीरिक यातनाएँ दी गईं थी जिसकी वजह से उसकी मौत हो गई। पुलिस इस निर्मम हत्या कांड की जाँच कर रही है।
-“पता नहीं हम कब पूरी तरह से सभ्य हो पाएंगे?” पत्नी का बोलना जारी था – “पहले भी इस तरह की कई खबरें आ चुकी हैं। अंधविश्वास की हद है यह तो!”
वह चुपचाप अपनी चाय पीता रहा। वैसे इस खबर से वह भी थोड़ा विचलित हो गया था। एक गरीब और लाचार बूढ़ी औरत को केवल एक शक के आधार पर मार डाला गया। और शक भी क्या – कि वह औरत नहीं बल्कि एक डायन है। जादू-टोना करती है। क्या जहालत है? दुनिया चाँद पर पहुँच कर वापस भी आ गई लेकिन हम अब भी पत्थर युग की गुफाओं में ही भटकते फिर रहे हैं।
उसने अखबार का पन्ना पलट दिया। जल्दी-जल्दी चाय की चुसकियाँ लेता हुआ वह सरसरी नज़रों से खबरों का जायज़ा लेता रहा। एकाएक उसे पता नहीं क्या सूझा कि उसने पत्नी से कहा -
-“रात बड़ा डरावना सपना देखा।”
-“अच्छा! कैसा सपना?” पत्नी की नज़रें अखबार पर ही गढ़ी हुई थीं।
चाय खत्म करके उसने खाली कप एक तरफ रखते हुए कहा - “मैंने देखा कि कोई मेरी हत्या कर देना चाहता था।”
-“उफ़्फ़!” एकाएक पत्नी का पारा चढ़ गया – “क्यों सुबह-सुबह ऐसी बात मुँह से निकालते हो?”
-“अब हत्या को हत्या नहीं कहूँ तो क्या कहूँ?” वह मुस्कुरा दिया – “कत्ल? मर्डर?
-“रात को देर तक जागते हो। उल्टी-सीधी मार-धाड़ वाली अँग्रेजी फिल्में देखते हो –” पत्नी का गुस्सा बरकरार था – “कितनी बार कहा है कि सोने से पहले कुछ अच्छा पढ़ा करो?”
-“जब बूढ़ा हो जाऊंगा तो पढ़ा करूँगा!” वह हँसा।
-“दो साल पहले रिटायर हो चुके हो – ” पत्नी भी हँसी – “अब जवानी ढलने में कौनसी कसर रह गई है?”
-“सबूत दूँ तुम्हें अपनी जवानी का?” उसने पत्नी को अपनी तरफ खींचते हुए कहा।
तभी किचन में से तेज़ आवाज़ आई। पत्नी ने ख़ुद को उसकी पकड़ से छुड़ाया और बिस्तर से उठ गई –
“ओफ-ओह! यह मेड पता नहीं क्या उठा-पटक कर रही है!”
पत्नी थोड़ा झल्लाती हुई कमरे से चली गई। वह भी बिस्तर से उठ खड़ा हुआ। पहले उसने सोचा कि उसे भी किचन में जाकर देखना चाहिए। आखिर यह नई मेड है कौन? दिखने में कैसी लगती है? और यह ऐसा क्या काम कर रही है जिससे इतना शोर हो रहा है? वरना हमारी मेड इतनी सलीकेदार है कि बिना किसी आवाज़ के चुपचाप सारे काम निपटा देती है।
लेकिन उसने अपना इरादा बदल दिया। वह अपने कमरे के साथ अटेच्ड बाथरूम में जाकर मुँह धोने लगा। उसने शीशे में अपना चेहरा देखा। वाकई उसकी आँखें बहुत थकी हुई लग रहीं थी। थोड़ी लाल भी थीं। कल रात देर तक वह बिस्तर में लेटा-लेटा, अपने फोन पर एक थ्रिलर मूवी देखता रहा था।
वह देर तक अपनी आँखों में ठंडे पानी के छींटे मारता रहा। उसे किचन की ओर से धीमे स्वर में बातें करने की आवाज़ें सुनाई दे रही थीं। शायद उसकी पत्नी मेड को कुछ समझा रही थी।
वह बाथरूम से बाहर आया और उसी वक्त पत्नी कमरे में घुसी।
-“क्या हुआ?” उसने पत्नी से पूछा –“कुछ तोड़-फोड़ तो नहीं की न उसने किचन में!”
-“अरे नहीं!” पत्नी बिस्तर पर फैले अखबार को समेटते हुए बोली – “अब तीन दिन की ही तो बात है। वरना मेड मिलती कहाँ हैं? कुछ दिन तो एडजस्ट करना ही होगा।“
-“तो क्या ऐसी फूहड़ मेड से काम चलाना पड़ेगा?” उसे गुस्सा आ गया – “काम करते वक्त कितना शोर करती है!”
-“अब इतनी भी फूहड़ नहीं है – ” पत्नी को उसका गुस्सा करना बुरा लगा – “इस कमरे की सफाई कितनी एहतियात से की उसने। तुम्हारी नींद में ज़रा भी ख़लल पड़ा क्या?”
-“क्या?” वह भौंचक्का रह गया – “वह इस कमरे में सफाई कर रही थी?”
पत्नी कुछ नहीं बोली।
वह हैरानी से पूरे कमरे का जायज़ा लेने लगा। वाकई लग रहा था जैसे कमरे को बहुत ही करीने से साफ किया गया हो। उसे बहुत आश्चर्य हुआ कि जब वह सो रहा था तो कोई इस कमरे में मौजूद था। उसकी नींद कभी भी इतनी गहरी नहीं होती थी। ज़रा सी आहट पाते ही टूट जाती थी। लेकिन आज ऐसा नहीं हुआ। कोई आहट उसे सुनाई नहीं दी।
अचानक उसे वही आवाज़ फिर से सुनाई दी। किसी चाकू या तलवार को पत्थर पर घिसने जैसी आवाज़। उसने चौंक कर इधर-उधर देखा।
-“क्या हुआ?” पत्नी ने पूछा।
-“कुछ स...सुना तुमने?” वह कहते-कहते थोड़ा अटक सा गया।
-“क्या?”
-“कुछ अजीब सी आवाज़ सुनी मैंने। किसी चाकू या तलवार को धार दी जा रही है।”
-“दिमाग चल गया है क्या तुम्हारा?” पत्नी ने झुँझलाते हुए कहा – “या कान बज रहे हैं? मुझे तो कुछ भी सुनाई नहीं दिया।”
-“व...वह मेड कहाँ है?” उसके स्वर में अब हल्की सी घबराहट आ गई।
-“वह तो काम निपटा कर चली गई।”
-“क...कमाल है!” वह हक्का बक्का था – “पता ही नहीं चला। कोई आहट भी नहीं हुई।”
पत्नी ने उसे गौर से देखा। वह थोड़ा झेंप गया।
-“तुम नहा-धो लो – ” पत्नी कमरे से बाहर जाती हुई बोली – “मैं नाश्ता बना रही हूँ।”
उसे अचानक एक अजीब सी बेचैनी महसूस होने लगी थी। कमरे में पर्याप्त रोशनी के बावजूद भी ऐसा लगने लगा मानों धीरे-धीरे यहाँ अंधेरा भरता जा रहा है। उसने कमरे में लगे दोनों बल्ब ऑन कर दिए। खिड़कियों को खोल दिया। कमरे का एक दरवाजा छोटी सी बालकनी में खुलता था – उसे भी पूरा खोल दिया।
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