तीसरी रात - 2 mahesh sharma द्वारा थ्रिलर में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

तीसरी रात - 2

तीसरी रात

महेश शर्मा

पहला दिन, शाम : 6 बजे

पार्क में वह रोजाना की तरह टहल चुकने के बाद वह अपने पड़ौसी के साथ, बेंच पर बैठा हुआ गप्पे मार रहा था। पड़ौसी उससे एक अजीब सी बात पूछी –

-“आपको रात को नींद आसानी से आ जाती है?”

-“हाँ! आ ही जाती है – ” वह थोड़ा मुस्कुराया – “लेकिन इधर मुझे देर रात तक जाग कर फिल्में देखने की लत लग गई है। उस वजह से नींद आने में थोड़ी दिक्कत होती है।”

-“हाँ यह बात तो है – ” पडोसी बोला – “लेकिन मेरे साथ दूसरी दिक्कत है।”

-“क्या?” उसने पूछा।

-“मैं न तो फिल्में देखता हूँ – न ही सोने से पहले कोई किताब पढ़ता हूँ – ” पडोसी थोड़ा गंभीर था – “खाना भी जल्दी खा लेता हूँ लेकिन फिर भी ठीक से सो नहीं पाता।”

-“किसी डॉक्टर से सलाह ले लीजिए।”

-“नहीं वह बात नहीं है – ” पड़ौसी अब थोड़ा परेशान सा दिखा – “मुझे कोई बीमारी नहीं है। एकदम स्वस्थ हूँ मैं। बल्कि पहले तो खूब सोता भी था लेकिन जबसे इस बिल्डिंग में घर लिया है – तब से ही दिक्कत शुरू हो गई है।”

वह थोड़ा पाशोपेश में पड़ गया कि पड़ौसी की इस बात के जवाब में क्या कहे? पड़ौसी थोड़ी देर चुपचाप शून्य में देखता रहा, फिर एकाएक बोला – “मैं मुश्किल से पंद्रह-बीस मिनट सो पाता हूँ और मेरे नींद टूट जाती है।”

वह चुपचाप उसकी बात सुनता रहा।

-“दरअसल मुझे ऐसा महसूस होता है कि कोई चुपचाप मेरे सिरहाने के पास खड़ा होकर मुझे देख रहा है – एकटक!” पड़ौसी ने बहुत ही धीमे स्वर में कहा।

उसके भीतर एक झुरझुरी सी छूट गई।

-“ हम बहुत मनहूस घरों में रह रहे हैं -” पड़ौसी वैसे ही धीमे स्वर में बोल रहा था – “यह बिल्डिंग – बल्कि यह पूरी जगह बहुत मनहूस लगती है मुझे!”

उसने कुछ नहीं कहा। पड़ौसी भी देर तक बिना कुछ बोले बैठा रहा। शाम अब ढाल चुकी थी। पार्क में रात का अंधेरा उतर आया था।

******

दूसरा दिन, सुबह : 8 बजे

यह हूबहू वही आवाज़ थी। एक बार फिर से!

- किसी चाकू या तलवार को धार लगाई जा रही थी। उसने आँखें खोलने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। उसे महसूस हुआ कि उसके सीने पर कोई भारी वजन रखा हुआ है। उसने अपने हाथों से टटोला और जब उसे समझ आया तो उसके होश उड़ गए -

- यह एक पैर था। उसके हाथों ने उसे साफ-साफ बताया। एक बहुत ही खुरदरा, किसी पत्थर की तरह सख्त पैर था वह। कोई उसकी छाती पर पैर रख कर खड़ा है जो कुछ ही देर में उस चाकू या तलवार से उसका काम तमाम कर देगा।

उसने कस कर उस पैर को पकड़ लिया और अपने सीने पर से हटाना चाहा। उसने अपनी आँखें फिर खोलने की कोशिश की। इस बार वह इसमें थोड़ा सफल हुआ। अधखुली आँखों से जो चीज़ उसे सबसे पहले दिखी वह था एक झुर्रीदार चेहरा।

उसने एक झटके से अपनी आँखें खोल दीं। उसके सामने एक बूढ़ी औरत खड़ी थी।

वह बुरी तरह डर गया। औरत उसे ही देख रही थी। वह भी फटी-फटी आँखों से उसे देखता रहा। सहसा औरत मुड़ी और कमरे से बाहर चली गई।

उसने गौर किया कि उस औरत के पैर बहुत ही खुरदरे और सख़्त थे – किसी पत्थर की तरह। वह एक पैर को घसीट कर चल रही थी - लेकिन उसके चलने पर कोई आहट नहीं हुई। ठीक किसी बिल्ली की तरह दबे पाँव चल रही थी वह।

-“ऐसा क्या खास है इस किताब में – ” चाय लेकर कमरे में आती हुई पत्नी ने पूछा – “जो इसे सीने से लगाए हुये ही सो गए थे।”

उसे याद आया कि कल रात उसने सोने से पहले फिल्म देखने के बजाय किताब पढ़ने का फैसला किया था। यह तरीका बहुत कारगर भी साबित हुआ था। दो पन्ने पढ़ कर खत्म करते-करते ही उबासियाँ आने लगी थीं - आँखें भारी होने लगी थीं। फिर वह याद नहीं वह कब सो गया था।

उसने देखा - किताब अभी भी बिस्तर में लुढ़की पड़ी थी।

“क्या यह बूढ़ी औरत ही हमारी नई मेड है?” – उसने चाय की चुस्की लेते हुये पत्नी से पूछा।

-“हाँ।”

-“लेकिन यह भला क्या काम कर पाती होगी। इसके शरीर में तो जान ही नहीं है। बिलकुल हड्डियों का ढांचा है।”

-“तो तुम कहीं से ढूंढ लाओ कोई मोटी-ताज़ी जवान मेड!” पत्नी झुंझलाई।

वह पहले तो खिसिया कर रह गया फिर बोला – “लेकिन वह बेचारी तो लंगड़ी है। कितनी तकलीफ होती होगी उसे। ऐसी औरत से घर का काम करवाना तुम्हें ठीक लगता है?”

-“अरे लंगड़ी नहीं है वो –” पत्नी फिर झल्लाई।

-“अरे भई मैंने अपनी आँखों से देखा है अभी – ” उसे भी गुस्सा आ गया – “लंगड़ाती हुई चल रही थी वह।”

-“लेकिन कल तक तो वह बिलकुल ठीक थी – ” पत्नी को थोड़ी हैरानी हुई – “हो सकता है कोई-चोट-वोट लग गई हो। ठीक है – मैं पूछूंगी उससे – तुम चाय पियो – ठंडी हो रही है।“

वह चुपचाप चाय पीने लगा।

-“कल रात बिटिया रानी का फोन आया था – ” पत्नी ने अखबार पढ़ते-पढ़ते कहा – “ख़ुशखबरी है! हम दोनों नाना-नानी बनने वाले हैं।”

-“अरे वाह!” वह ख़ुश हो गया।

-“सोच रही हूँ – एक दो दिन के लिए उसके पास चली जाऊँ।” पत्नी ने थोड़ा चिंतित होते हुए कहा।

-“हाँ – बिलकुल!” वह बोला – “आज ही चली जाओ – दो घंटे का ही तो सफर है।”

-“ठीक है!” पत्नी ने कहा – “दोपहर वाली बस से चली जाती हूँ।”

“ठीक है।” वह चाय खत्म करके अपना कप एक तरफ रखने जा ही रहा था कि सहसा चौंक उठा। उसे लगा कोई चीज़ दीवार पर रेंगती हुई अलमारी के पीछे चली गई है।

पत्नी अपनी चाय खत्म करके कमरे से चली गई। वह चुपचाप अखबार पढ़ने लगा। हालाँकि उसे कुछ बेचैनी सी होने लगी थी। कुछ अजीब सा महसूस हो रहा था।

बेमन से अखबार के पन्ने पलटते हुए एक खबर ने उसका ध्यान खींचा - कल रात ट्रेन से कट कर एक औरत की मौत हो गई थी। हालांकि यह खबर छोटी सी थी और इस तरह की खबरें आए दिन छ्पती रहती थीं लेकिन पता नहीं क्यों वह इस खबर को पढ़ने लगा -

जिस औरत का ज़िक्र इस खबर में था वह एक बहुत ही बूढ़ी औरत थी और ट्रेन में भीख मांग कर अपना गुजारा करती थी। पटरी पार करते समय ट्रेन की चपेट में आ गई। उसकी एक टाँग कट कर अलग हो गई थी।

खबर पढ़ते-पढ़ते उसके शरीर में झुरझुरी सी दौड़ गई। उसका मन उचाट हो गया। उसने अखबार से अपनी नजरें हटा लीं।

एकाएक उसे फिर लगा मानो कमरे में रोशनी कम होती जा रही है। अंधेरा घिरता जा रहा है। उसने एक झटके से उठ कर खिड़की पर टंगे पर्दे एक तरफ खिसका दिए।

******