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वी केन

एक कहानी रोज़--40

*वी केन -- कहानी*

*दु* कान मालिक की प्रतिक्षा करते-करते तीनों कर्मचारी घर चले गये थे। अब बबलू और सुनिल ही उनकी प्रतिक्षा में दुकान पर रूके हुये थे। बबलू को डर था कि आज फिर मालिक पिछले माह का की तरह कोई बहाना न बना दे? दुकान मालिक कैलाशनाथ कर्मचारियों की तनख़्वाह देने के समय बहुत लेटलतीफी किया करते थे। प्लाईवुड का अच्छा-ख़ासा व्यवसाय होने के बावजूद मात्र पांच कर्मचारियों का वेतन कभी समय पर नहीं दिया गया। प्रातः नौ बजे सभी को दुकान पहूंचना अनिवार्य था। छुट्टी का समय छः बजे निर्धारित था, मगर कर्मचारी अंतिम बार शाम छः बजे घर कब गये थे उन्हें याद नहीं। काम का आर्डर हो तो देर रात तक काम करना सभी की विवशता थी। कोई ओवरटाइम नहीं मिलता था। घण्टों प्रतिक्षा के बाद दुकान मालिक का फोन बबलू के पास आया। उन्होंने कहा कि सुबह सभी को तनख़्वाह मिल जायेगी। निराश होकर बबलू और उसका साथी सुनिल रात दस बजे दुकान बंद कर घर के लिए निकल पढ़े। सुनिल मालिक के प्रति बढ़-बढ़ाये जा रहा था।
"जाने दे यार! अपशब्द मत बोल। आखिर हमारे मालिक है वो।" बबलू ने कहा।
बबलू को विश्वास था कि अब सुबह क्या होगा? सुबह कैलाशनाथ उन्हें आधे माह की तनख़्वाह दे देंगे और कहेंगे की पन्द्रह दिन बाद आधी तनख़्वाह उन्हें दे दी जायेगी।
इन सब का उसे इतना अधिक अनुभव हो चूका था कि वह आगामी प्रत्येक पल की भविष्यवाणी कर सकता था। उसके अनुमान सत्य निकला करते। इस बार भी यही हुआ। कैलाशनाथ ने पांचों कर्मचारियों को आधा वेतन देकर इतिश्री कर दी। शेष वेतन जल्द ही देने की घोषणा कर उसने अगले वर्क ऑर्डर पर सभी को कार्य पुर्ण करने का आदेश दे दिया। कैलाशनाथ के यहां बबलू ही पुराना कर्मचारी था। शेष सभी नये थे। कैलाशनाथ के व्यवहार से परेशान होकर कोई भी कर्मचारी अधिक दिनों वहां तक काम नहीं करता था। बबलू का मन भी करता था कि वह भी कैलाशनाथ के यहां काम करना छोड़ दे। वह एक बहुत अच्छा बढ़ई (कारपेन्टर) था। उसके हुनर को जिसने भी आजमाया, वह प्रशंसा किये बिना नहीं रह सका। कैलाशनाथ ने बबलू को पचास हजार रूपये एडवांस दिये थे। यह रूपये बबलू ने अपने पिताजी के उपचार हेतु व्यय किये थे। यही कारण था कि बबलू कैलाशनाथ का उपकार मानकर उनका हर प्रकार का शोषण सह रहा था। बबलू का यह भी मानना था कि समाज में कैलाशनाथ जैसे व्यवसायी बहुत है। इनसे बचना सरल नहीं है। आठ से बारह घण्टों की कमर तोड़ मेहनत करवाने के बावजूद अपने अधिकार का पारिश्रमिक उन्हें न तो पुरा मिलता है और न ही समय पर। बबलू मगर हार मानने वाला नही था। उसने इस संकटकालीन समस्या का हल निकाल लिया था। रिक्त समय में वह छोटे मोटे कार्य कर घर खर्च निकाल लिया करता था। बबलू की पत्नी लक्ष्मी, लाख मिन्नतों के बाद भी अपने मायके जाने को तैयार नहीं थी। लक्ष्मी के माता-पिता का आग्रह था कि जब तक बबलू के परिवार की आर्थिक तंगी समाप्त नहीं हो जाती वह मायके आकर रहे। जब उसके ससुराल की वित्तीय व्यवस्था पटरी पर आ जाये तब लक्ष्मी हंसी-खुशी अपने ससुराल जा सकती है। लक्ष्मी के स्थान पर अन्य कोई महिला होती तो यह प्रस्ताव अवश्य स्वीकार कर लेती किन्तु आधुनिक युग की यह बहु लक्ष्मी संस्कारों की पोटली थी। उसे अपने पति का हर परिस्थिति में साथ देना था। खुशहाली में साथ देकर आनन्द लुटना उसे गंवारा नहीं था। उसने चटनी रोटी खाकर विषम परिस्थिति में बबलू का साथ दिया। ससुराल की आर्थिक सहायता बबलू ने कभी स्वीकार नहीं की। उसे अपने हुनर पर भरोसा था। आज नहीं तो कल उसके भी दिन फिरेंगे! बबलु उसके परिवार को वह सब उपलब्ध करवायेगा जिसकी सामान्यतया घर में आवश्यकता होती है। लक्ष्मी और बबलू ने आपसी सहमती से परिवार नियोजन का मार्ग अपनाया। वे नहीं चाहते थे कि इस तंगहाली में उनकी संतान जन्म ले। बबलू को चिंता अपने छोटे भाई मयुर की थी। वह पढ़ाई में बिल्कुल ध्यान नहीं देता था। अपितु मोहल्ले के अन्य बेरोजगार युवकों की टोली के साथ दिन-भर मटरगश्ती किया करता। बुढ़े माता-पिता उसे समझा-समझा कर थक चूके थे। मयुर आगे पढ़ाई नहीं करना चाहता था। उसका तर्क था कि जब आगे चलकर बढ़ई का कार्य ही करना है तब उसमें पढ़ाई की क्या आवश्यकता? समय-समय पर वह अपने बबलू भैया का भी उदाहरण दिया करता। वह कहता की बबलू भैया ने भी अपनी पढ़ाई बीच में छोड़कर प्रारंभिक जवानी के दिनों में भरपुर आनंद लिया। तब उन पर पढ़ाई के प्रति दबाव क्यों नहीं बनाया गया? जब उन्हें स्वतंत्रता दी गई, तब उसे क्यों रोका जा रहा है? इसका उत्तर किसी के पास नही था।
बबलू और लक्ष्मी कर्त्तव्यनिष्ठा से कार्य कर रहे थे। बबलू छोटी-छोटी लकड़ियां अपनी दूकान से घर ले आया करता। इन लकड़ियों की उचित साफ-सफाई और पाॅलिश लक्ष्मी कर दिया करती। प्लाईवुड के शेष बचे टुकड़ो से बबलू घरेलू उपयोग की वस्तुएं बनाकर मोहल्ले में ही बेच दिया करता। कपड़े धोने की मोगरी, चकला-बेलन और बच्चों के खिलोने, वह सभी कुछ बना लेता। बबलू के पिता शंकर लकड़ी निर्मित मंदिर बहुत ही अच्छा बनाते थे। मोतियाबिंद के हालियां सफलतम ऑपरेशन के बाद भी उन्होंने यह काम घर से ही शुरू कर दिया। उनकी पत्नी विभा भी पीछे नहीं थी। घर के ओटले पर ही वह ऊक्त निर्मित वस्तुओं को फैला कर बैठी रहती। सस्ते दामों पर घरेलू वस्तुएं और अन्य सांसो-सामान की बिक्री बढ़ने लगी। शंकर और उनकी बहु लक्ष्मी इन वस्तुओं को इस प्रकार रंगीन कर प्रस्तुत करती कि राहगीर एक बार अवश्य इन चीजों को हाथों से उठाकर अवश्य देखने आते। यद्यपि सौ लोग इन वस्तुओं को देखने आते तथापि दस लोग चीजें अवश्य खरीदते। पहले की तुलना में घर खर्च अब सरलता से निकल जाता। अपनी इस सफलता से उत्साहित बबलू अनुपयोगी लकड़ी अपनी दूकान से नियमित लाता रहता। कैलाशनाथ को बबलू द्वारा अनुपयोगी प्लाईवुड लकड़ी के टुकड़े घर ले जाने की जानकारी थी। उन्हें कोई आपत्ति भी नहीं थी। शंकर और बबलू देर रात तक लकड़ी का सामान बनाया करते। मयुर यह सब देखा करता। परिवार की आर्थिक स्थिति सुदृढ करने, घर का हर एक सदस्य अपना योगदान दे रहा था। सिवाये मयुर के। अब से उसने भी निश्चय किया कि वह भी परिवार के सदस्यों की मदद करेगा। मयुर ने एक चार पहियां ठेला पचास रूपये प्रतिदिन के हिसाब से किराये पर लिया। अपने पिता और भाई के द्वारा बनाई गई लकड़ी की वस्तुओं को शहर के मुख्य बाजार ले जाकर वह विक्रय करने लगा। दो-दो स्थानों से लकड़ी निर्मित वस्तुएं विक्रय होने लगी। विक्रय हेतु पुर्ण निर्मित वस्तुएं कम होने लगी। जब वस्तुओं की मांग बढ़ी तब बबलु ने नयी प्लाईवुड की लकड़ी कैलाशनाथ से ही क्रय करना आरंभ कर दिया। मयुर भी लकड़ी के सामान निमार्ण में सहयोग करने लगा। दो भाई और पिता शंकर तीनों मिलकर लकड़ी का सामन निर्माण करने लगे। घर की दुकान विभा संभालती और बाजार की दुकान पर लक्ष्मी बैठा करती। बबलु ने शीघ्र ही कैलाशनाथ का कर्ज़ उतार दिया। उसने वहां पर आगे काम करने में असहमती जता दी। तीनों बाप-बेटे दिन-रात लकड़ी की नई-नई कलाकृति बनाते। विभिन्न राज्यों और शहर के स्थान-स्थान पर सेल आयोजित करने वाले बड़े व्यवसायी दर्शन लालवानी ने एक बहुत बड़ा घरेलु उपयोग की वस्तुएं निमार्ण का ठेका बबलु को दिया। इतना बड़ा आर्डर पुरा करने के लिए बबलू ने अपने यहां बढ़ई के कारीगर बढ़ा दिये। निर्धारित समय पर आर्डर पुरा करने के फलस्वरूप उसे शीघ्र ही अगला वर्क ऑर्डर मिल गया। धन की आवक बड़ी मात्रा में होने लगी। ऑनलाइन शॉपिंग कम्पनी अमेजन, फ्लीपकार्ड आदि पर बबलु के लकड़ी के सामान खुब बिकने लगे। बबलु ने बहुत से जिलों में अपने सामन विक्रय हेतु बोक्रर नियुक्त कर दिये। मयुर अपनी पढ़ाई पूरी करने में व्यस्त हो गया। बबलु ने नया मकान खरीदा। परिवार की सुविधा के लिए घर में कार भी आ गयी। आज बड़े बाजार में कैलाशनाथ की दुकान के ही सामने ही बबलु की प्लाईवुड निर्मित वस्तुओं की बड़ी दुकान थी। बबलु के परिवार ने मिल-जुलकर स्वयं की उन्नति के लिए सांझा प्रयास कर अन्य परिवारों को शिक्षा दी थी। जो संख्या बल में पाँच-सात पारिवारिक सदस्य होते हुए भी आपस में बैर रखते है, और तंगहाली में गुजर बसर करने पर बाध्य होते है। आपसी मनमुटाव त्याग कर एक साथ तरक्की के सांझा प्रयास किये जाये तो बबलु के परिवार के समान ही सम्पन्नता प्राप्त की जा सकती है।

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समाप्त

प्रमाणीकरण-- कहानी मौलिक रचना होकर अप्रकाशित तथा अप्रसारित है। कहानी प्रकाशनार्थ लेखक की सहर्ष सहमती है।

सर्वाधिकार सुरक्षित
लेखक--
जितेंद्र शिवहरे
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