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किसी ने नहीं सुना - 14

किसी ने नहीं सुना

-प्रदीप श्रीवास्तव

भाग 14

अंदर जो हुआ वह मेरी कल्पना से परे था। जो बॉस पिछले पंद्रह वर्षों से मुझे छोटे भाई की तरह मानता था और मैं उन्हें बॉस से ज़्यादा बड़ा भाई मानता था, जिसके चलते ऑफ़िस में मेरी एक अलग ही धाक थी, उसी बॉस ने भाई, ने मुझे क्या नहीं कहा। बेहतर तो यह था कि वह मुझे जूता उतार कर चार जूते मार लेते मगर वह बातें न कहते जो कहीं। मेरी आंखें भर आईं तब कहीं वह कुछ नरम पड़े मगर आगे जो बातें कहीं उससे मेरे पैंरों तले जमीन खिसक गई। मैंने हाथ जोड़कर रिक्वेस्ट की कि मुझे किसी भी तरह बचा लें । मगर उन्होंने साफ कहा,

‘मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं कि तुम्हारी नौकरी बच जाए। यह कोई सरकारी डिपार्टमेंट तो है नहीं। लिमिटेड कंपनी है। शहर के सबसे पुराने पब्लिशिंग हाउसेस में गिनती है इसकी। इतिहास के कई पन्नों में दर्ज हो चुका है। इस समय टॉप मैनेजमेंट बहुत सख्त है। क्योंकि पिछले काफी समय से अव्यवस्था ज़्यादा फैली है। कई अनियमितताओं में तुम्हारा नाम ऊपर है। पूरे ऑफ़िस में , ऊपर तक यह बात फैली हुई है कि मेरा तुम पर वरदहस्त है। जिससे तुम मनमानी करते हो। नियमों का उल्लंघन करते हो। संजना के कंफर्मेशन के लिए तुमने जो रिपोर्ट भेजी पूरी तरह झूठी, बायस्ड, निराधार है।

मैनेजमेंट को उससे तुम्हारे संबंधों की पूरी जानकारी है। यह भी पता है कि उसका सारा काम तुम करते हो। उसे कुछ नहीं आता। उसकी गलत साइड लेकर तुम लोगों से मिसबिहैव करते हो ऑफ़िस का पूरा वर्क कल्चर, वर्क एटमॉस्फियर किल कर दिया है। कुछ लोगों ने सप्रमाण तुम्हारी एनॉनिमस रिपोर्ट तक की है। मैंने ऊपर समझाने की बहुत कोशिश की। लेकिन प्रमाण इतने पुख्ता हैं कि मैं कुछ नहीं कर सका। सस्पेंशन के अलावा फिलहाल कोई रास्ता नहीं बचा है। खैर अभी जाओ, धैर्य से काम लो, लंच के बाद आकर मिलना। मैं पूरी कोशिश कर रहा हूं।’

कुर्सी से जब मैं उठा तब उन्होंने यह भी कहा ‘चेहरे पर नियंत्रण रखो। ऐसा न हो कि बिना बोले ही सब कुछ कह दो।’

मगर मुझसे कंट्रोल कहां होना था। चेहरे पर थकान ऊपर से उड़ती हवाइयों ने ऐसा बना दिया था मानो मैं अपनी सारी दुनिया ही लुटाकर चला आ रहा हूं। बाहर निकला तो फिर सब कनखियों से देख रहे थे। मैं किसी से नज़रें नहीं मिला सका। नॉर्मल दिखने की लाख कोशिशों के बावजूद बुझा-बुझा सा, चुनाव हारा सबसे हॉट उम्मीदवार सा खिसयाया हुआ अपनी चेयर पर आकर बैठ गया। गला सूख रहा था। एक गिलास पानी पिया। कुछ राहत मिली।

आश्चर्य मुझे अब इस बात का होता है कि उस विकट स्थिति में भी दिलो-दिमाग के किसी कोने में बराबर संजना-संजना गूंज रहा था। कुर्सी पर सिर टिकाकर मैंने आंखें बंद कर लीं। मुझे लगा कि एक बार किसी तरह संजना आ जाती तो अच्छा था। उसे फ़ोन कर बुलाने का मन हुआ। मैं इस बात से अंदर ही अंदर खौल रहा था कि कल से वह बात क्यों नहीं कर रही है। आ क्यों नहीं रही है।

कई बार उसे फ़ोन करने के लिए इंटरकॉम की तरफ हाथ बढ़ा-बढ़ा कर मैं ठहर जाता। इस बीच कई लोेगों ने तीन-चार बार फ़ोन करके हालचाल लेने के बहाने माजरा जानने की कोशिश जरूर की। मैं चतुराई से सबको साइड दिखाता रहा, नीला, संजना, नैंसी और बॉस की बातों में, उलझता-गड्मड् होता रहा। जैसे-तैसे वक़्त बीता और लंच के बाद बॉस ने सस्पेंसन लेटर भी थमा दिया।

तब मैंने महसूस किया जैसे मेरे तन में खून रह ही नहीं गया। मेरी टांगें इतनी कमजोर हो गई हैं कि बदन का बोझ उठाने में उनका दम निकल सा रहा है। लग रहा था मानो बदन हजारों किलो का हो गया हो । शाम को किसी तरह घर पहुंचा और कचरा घर बने बेडरूम में पसर गया। कुछ देर बाद मेरी आंखों की कोरों से आंसू निकलकर कानों तक पहुंचने लगे। मुझे जिस तरह से सबकुछ बताया गया था उस हिसाब से नौकरी का बच पाना करीब-करीब नामुमकिन ही लग रहा था।

इन सारी स्थितियों के लिए मुझे अब एकमात्र दोषी संजना ही लग रही थी। मुझे अब वह नागिन सी लगने लगी। मन में उसके लिए गालियों, अपशब्दों की बाढ़ सी आ गई थी। कुछ देर बाद मुझे भूख-प्यास भी सताने लगी थी। मगर किससे कहूं? नीला, बच्चों से तो कुछ कहने-सुनने का अधिकार मैं पहले ही खो चुका था। उनसे संवाद के सारे साधन खत्म थे। इन कुछ क्षणों में ही मैं अपने को इतना अकेला हारा महसूस करनेे लगा कि जी में आया आत्म-हत्या कर लूं। रह-रह कर संजना को गाली देता। तब मुझे एक बात शीतल मरहम सी लगी कि ठीक है मैं सस्पेंड हुआ, मगर मुझे धोखा देकर अपना उल्लू सीधा करने वाली संजना का कंफर्मेशन भी नहीं हुआ। इतना ही नहीं उसे सख्त चेतावनी भी दी गई है। वैसे तो उसकी नौकरी ही जा रही थी। लेकिन तिकड़मी लतखोरी लाल की तिकड़म उसके काम आ गई।

अब समझ में आया था कि तिकड़मी लतखोरी पिछले काफी समय से संजना के आगे-पीछे किसी न किसी बहाने क्यों लगा रहता था। साथ ही वह कमीनी भी मुझसे नज़्ार बचा-बचाकर मिलती थी उससे। वह वास्तव में मुझे डॉज दे रही थी। डबल क्रॉस कर रही थी। मैं मुर्ख पगलाया अंधराया हुआ था। मुझे लतखोरी लाल से मिली यह बहुत बड़ी पराजय लग रही थी। मैं युद्ध के मैदान में खुद को हारा, अकेला खड़ा पा रहा था। जिसके सारे फौजी भी उसका साथ छोड़कर भाग नहीं खड़े हुए थे बल्कि विपक्षी से जा मिले थे। मुझे लगा अब सब कुछ खत्म हो गया है।

मैं अंतिम सांसें गिन रहा हूं और मेरा बेड मेरी शरसैय्या है। मगर मेरी किस्मत इतनी काली है कि कोई अर्जुन की तरह मेरे सूखते गले को धरती का सीना वेधकर शीतल जल कौन कहे, एक गिलास फिल्टर वाला पानी भी देने वाला नहीं है। मैं प्राण निकलने की प्रतीक्षा करता युद्ध भूमि में घायल सिपाही सा पड़ा था आंखें बंद किए हुए। ना जाने कब तक।

कान तक पहुंचे आंसू अब तक सूख चुके। फिर अचानक ही माथे पर एक चिरपरिचित शीतल स्पर्श का अहसास किया और बोझिल सी आँखें खुल गईं । फिर आश्चर्य से निहारती रहीं उस डबडबाई, झील सी गहरी आंखों को। आश्चर्य मिश्रित खुशी थी मेरे लिए। क्योंकि इस वक़्त उन आंखों में खुद के लिए मैं प्यार, स्नेह का उमड़ता सागर देख रहा था। मैं न हिल सका न कुछ बोल सका। बस आंसू फिर से कानों तक जाने लगे। जिसे मैं लंबे समय से अपना दुश्मन नंबर एक माने हुए था। उससे छुटकारा पाना चाहता था वही मेरी पत्नी नीला मेरे सामने खड़ी थी। अपने शीतल स्पर्श से मेरी सारी पीड़ा खीचें जा रही थी। फिर बोली,

‘उठिए.’

आज उसकी आवाज़्ा मुझे शहद सी मधुर लग रही थी। मुझे निश्चल पड़ा देख मेरा हाथ पकड़ कर उसने उठाया। बाथरूम में छोडा और कहा,

‘हाथ-मुंह धोकर आइए।’

मैं जब बाथरूम से आया तो वह लॉबी में खड़ी बोली,

‘आइए... नाश्ता करिए।’

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