किसी ने नहीं सुना
-प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 13
कई बार मन संजना पर भी गया। फ़ोन करूं या न करूं मैंने इस असमंजस में रात में बारह बजे तक अपने को रोके रखा। फिर उसके बाद जब कॉल की तो उसने फ़ोन काट दिया। मैं गुस्से से तिलमिला उठा था। पर नैंशी के सामने जाहिर नहीं होने दिया। फिर नैंशी के मायाजाल में ऐसा डूबा था कि यह सब नेपथ्य में चले गए थे।
मगर अब नैंशी नेपथ्य में थी। नीला हावी थी। एक बार भी फा़ेन न आने से मैं हैरत में था। सोचने लगा कि संजना से संबंध बना के क्या मैंने कोई गुनाह किया। और क्या यह गुनाह इतना बड़ा है कि बीवी बच्चे इस कदर मुंह मोड़ लें कि यह तक जानने की कोशिश न करें कि मैं जिंदा भी हूं या कहीं मर-खप गया। फिर सोचा नीला ने शायद यह सोचकर फ़ोन न किया हो कि संजना के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा होऊंगा।
विचारों के इस उथल-पुथल में अचानक ही यह बात भी दिमाग में कौंध गई कि जैसे मैं बाहर औरतों से संबंध बनाए घूम रहा हूं कहीं नीला भी तो...। यह बात दिमाग में आते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मेरा गला सूखने लगा। मुझे महसूस हुआ कि अब जल्दी घर न पहुंचा, तुरंत पानी न पिया तो गिर जाऊंगा। मैंने बाइक की स्पीड यह सोचकर और बढ़ा दी। बल्कि यह कहें कि एक्सीलेटर पर हाथ खुद ही और घूम गया। इस बीच मन के कोने में कहीं यह बात भी गुनगुनाई, नहीं मैं लाख कुछ भी करूं लेकिन नीला किसी गैर मर्द के सामने अपने को नहीं लाएगी।
मैं कुछ भी करूं वह मुझसे लड़ाई-झगड़ा सब कर लेगी। लेकिन अपना तन कहीं और नहीं उघाड़ेगी। वह ऐसी औरत है ही नहीं। उलझन के सागर में डूबता उतराता मैं अंततः घर पहूंचा। गेट पर अंदर से ताला लगा था। मतलब सब घर में ही थे। मगर सुबह के साढ़े छः बजने वाले थे और ताला लगा था यह बात कुछ अलग थी। क्योंकि नीला जल्दी उठती है और गेट का ताला खोल कर फिर काम में जुट जाती है।
कई बार घंटी बजाने के बाद दरवाजा खुला जो ग्रिल के गेट से करीब पंद्रह फिट दूर था। सामने नीला खड़ी थी। उससे मैं पूरी तरह नज़र नहीं मिला पा रहा था। करीब आठ-दस सेकेंड वह मुझे एकटक देखती रही फिर अंदर चली गई। जाहिर है चाबी लेने गई थी। जब आई तो मुझे ऊपर से नीचे तक ऐसे देख रही थी मानो स्कैन कर रही हो कि कहीं कुछ गड़बड़ तो नहीं है। फिर उसके हिसाब से सवाल दागे जाएं। मैं मुश्किल से उसके चेहरे पर नज़र डाल पाया था। आंखें चेहरा साफ बता रहे थे कि वह रात भर सोई नहीं थी। और संभवतः रोई भी बहुत थी। गेट का ताला खोलकर उसने गेट खोला नहीं बल्कि ताले को कुंडे में चाबी सहित झटके से लटका कर तीक्ष्ण नज़र मुझ पर फिर डाली और पैर पटकती हुई चली गई अंदर। उसकी बॉडी लैंग्वेज बता रही थी कि स्कैन कर उसने यह जान समझ लिया था कि मेरे साथ कुछ भी अनहोनी नहीं हुई थी, और मैंने रात भर ऐश की है।
जब मैं अंदर पहुंचा तो देखा बच्चे सो रहे थे। डाइनिंग टेबिल की स्थिति बता रही थी कि किसी ने भी खाना ठीक से नहीं खाया। घर की एक-एक चीज इस बात की गवाही दे रही थी कि यहां रहने वाला हर शख्स बेचैन सा रात में इधर-उधर उठता, बैठता, लेटता रहा है। जागा तो मैं भी था रातभर। इधर-उधर, डरता, बैठता, लेटता उस लॉज में नैंशी के साथ जाने क्या-क्या करता रहा, फ़र्क़ इतना था कि यहां सब हैरान-परेशान व्याकुल तनाव में पस्त थे। और वहां मैं जश्न मना रहा था ऐश कर था। नींद से आंखें बोझिल हो रही थीं। और इन सबके पीछे सिर्फ़ एक इफेक्ट संजना इफेक्ट काम कर रहा था। मगर अब मेरी हालत ऐसी न रह गई थी कि मैं कुछ सोच-विचार पाता। जूते उतार कर वही कपड़े पहने-पहने बेड पर पसर गया। और कोई मौका होता तो नीला जूते ही नहीं, कपड़े भी उतार कर आराम से लिटाती। मैं भरे पूरे घर में भी अकेला था। अकेले ही गहरी नींद में सो गया ।
जब मेरी नींद खुली तो मोबाइल पैंट की जेब में ही बजे जा रहा था। वाइब्रेटर भी ऑन था तो शरीर में झन-झनाहट भी हो रही थी। जेब से मोबाइल निकालते हुए मैंने घड़ी पर नज़र डाली तो ग्यारह बज रहे थे। मुझे एक झटका सा लगा। जल्दी से बैठ गया। मोबाइल तब तक बंद हो चुका था। देखा तो सात मिस्ड कॉल पड़ी थीं। सभी ऑफ़िस की थीं। मैं अंदर ही अंदर सहम गया। फिर उस नंबर पर कॉल की जो मेरे करीबी कुलिग का था। हां उसके पहले यह जरूर चेक कर लिया था कि कहीं कोई कॉल संजना की तो नहीं थी। यह देख बेहद निराश हुआ कि उसकी एक भी कॉल नहीं थी। कुलिग लविंदर सिंह ने फ़ोन उठाने में देर नहीं की। छूटते ही बोला,
‘ओए कहां है तू फ़ोन क्यों नहीं उठा रहा। तेरे घर फ़ोन किया तो भाभी जी बोलीं कुछ पता नहीं कहां हैं। कुछ नाराज सी लग रही थीं। तू आखिर है कहां?’
‘कब फ़ोन किया था ?’
‘अरे यार एक घंटे पहले किया था। जब कई बार करने पर भी तूने नहीं रिसीव किया तो घर वाले नंबर पर ट्राई किया था। तब पता चला कि किसी को भी पता ही नहीं कि तुम कहां हो, तो फिर तुझे मिलाने लगा। आखिर माजरा क्या है।’
लविंदर की बात से साफ था कि मैं सो रहा था लेकिन नीला ने गुस्से में कह दिया पता नहीं कहां हैं। बात टालने की गरज से मैंने कहा,
‘माजरा कुछ नहीं है मिलने पर बात करूंगा। ये बताओ ऑफ़िस में कोई पूछ तो नहीं रहा था।’
‘बॉस सुबह से कई बार पूछ चुके हैं। काफी गुस्से में हैं। तुमसे तुरंत मिलना चाहते हैं। बल्कि वो कल ही बुलाए थे। लेकिन तुम आधे घंटे पहले ही निकल चुके थे। फिर उन्होंने कई बार कॉल की तुम्हें लेकिन तुमने कॉल रिसीव नहीं की।’
‘हां ऑफ़िस का लैंडलाइन नंबर देखकर मैंने समझा तुम्हीं लोगों में से कोई बात करना चाह रहा होगा। इसीलिए नहीं उठाया। मैं जरूरी काम से निकला था।’
‘अरे यार ऐसा भी क्या जरूरी काम था कि दो मिनट बात भी नहीं कर सकते थे। घर भी नहीं गए।’
‘जब मिलूंगा तब इस बारे में बात करूंगा। बॉस क्यों इतना पूछ रहे हैं। सब ठीक तो है न ?’
‘मुझे कुछ खास पता नहीं। बस इतना मालूम है कि तुमसे ही जुड़ा कोई सीरियस मैटर है। इसलिए जैसे भी हो तुरंत आओ।’
लविंदर की बातों ने मेरे होश उड़ा दिए। कुछ ऐेसे कि संजना, नैंशी भी उड़ गए उसी में। आनन-फानन में तैयार होकर मैं ऑफ़िस पहुंचा। वहां सब ऐसे देख रहे थे जैसे मैं फांसी के फंदे पर चढ़ने जा रहा हूं। कईयों के चेहरे पर जहां हवाइयां उड़ रही थीं वहीं कुछ चेहरों पर व्यंग्य भरी मुस्कुराहट भी साफ दिख रही थी। खासतौर से लतखोरी लाल के चेहरे पर। मैं उस समय उससे बहस में नहीं उलझना चाहता था। डरता-डरता अंदर-अंदर सहमता मैं चला गया तमाम उलझनों में उलझा बॉस के चैंबर में।
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