किसी ने नहीं सुना
-प्रदीप श्रीवास्तव
भाग 12
बातों ही बातों में उसने डिनर का भी ऑर्डर दे दिया था। जिसमें मेरी पसंद भी उसने पूछी थी। खाना सब नॉनवेज ही था। जब वेटर डिनर रख कर जाने लगा था तो उसने बाहर डू नॉट डिस्टर्ब का टैग लगा देने के लिए कह दिया। साथ ही नीचे रिसेप्शन पर भी फ़ोन कर मना कर दिया। डिनर ऑर्डर करने से पहले उसने अचानक ही शॉवर लेने की बात कर मुझे चौंका दिया था। मैंने जब यह कहा कि चेंज के लिए कपड़े कहां हैं तो उसने वहां रखे दो टॉवल की ओर इशारा करते हुए कहा होटल वाले ये इसीलिए तो रखते हैं। फिर उसने बेहिचक सारे कपड़े उतारकर चेयर पर डाल दिए और बाथरूम की ओर चल दी। हाव-भाव ऐसे थे कि जैसे अपने पति के ही सामने सब कुछ कर रही हो। दरवाजे पर ठिठक कर बोली,
‘कामऑन यार एक साथ शॉवर लेते हैं। हालांकि ये उस फीस में शामिल नहीं है। लेकिन आपकी अदा पर यह मेरी तरफ से एक गिफ्ट है।’
मैं उसके बदन और उसकी बातों में उलझा था कि तभी उसने आकर एक झटके में मेरी बेल्ट खींच दी। कुछ ही देर में मैं भी उसी की तरह था। फिर दिगंबर ही उसकेे साथ शॉवर लिया, उस पल उसने जो किया उससे मैं सच में एकदम मदमस्त हो गया। उस पल को तब मैंने अपने जीवन के सबसे हसीन पलों में शामिल किया था। अब भी उस पल को इस सूची से हटाने का मन नहीं करता। जेल की इस बंद कोठरी में भी नहीं।
बाथरूम में नीला के साथ बच्चों के बड़ा होने से पहले मैंने कई बार एक साथ शॉवर लिया था। मगर ईमानदारी से कहूं कि सच यही है कि नैंशी के साथ और नीला के साथ का कोई मुकाबला नहीं था। क्योंकि दोनों का मिजाज ही एकदम जुदा था। नीला में जहां शर्म-संकोच, शालीनता की तपिश की आंच थी वहीं नैंशी में यह सिरे से नदारद थी।
हां नीला के साथ नैचुरल शॉवर का जो अनुभव था वह अद्भुत था। नैचुरल शॉवर यानी बारिश में अपनी पत्नी के साथ भीगने का। यह अनुभव तो करीब-करीब सभी ने लिया होता है लेकिन मैंने जो किया था वह गिने चुने लोग ही करते हैं। क्योंकि इसमें अहम रोल बारिश का होता है वह भी ऐसी बारिश जो रात में हो रही हो और लगातार कई घंटों तक रिमझिम बारिश होती ही रहे। साथ ही सबसे ऊंचा मकान हो, और उसमें दूसरा कोई न हो। सौभाग्य ने मुझे यह सब दे रखा था।
मेरे मकान की छत अगल-बगल के सारे मकानों से ऊंची थी। शादी को डेढ़ साल हो रहे थे। उस साल मानसून मौसम विभाग की सारी भविष्य वाणियों को धता बताते हुए एक हफ्ता पहले ही आ गया था। दो-चार दिन एक आध हल्की फुहारों के बाद एक दिन जो शाम के बाद पहले कुछ ते़ज फिर धीरे-धीरे बारिश शुरू हुई तो फिर वह बंद होने का नाम ही न ले। फिर लाइट भी चली गई। एमरजेंसी लाइट या फिर इन्वर्टर जैसी कोई व्यवस्था नहीं थी। मोमबत्ती से काम चल रहा था। गर्मी ने सताया तो अचानक छत पर घूमने का विचार एकदम से दिमाग में कौंध गया जैसे उस समय आसमान में बार-बार बिजली कौंध रही थी।
मैंने नीला को भी कुछ ना नुकुर के बाद साथ ले लिया था। छत पर पहले दोनों एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले चहलक़दमी करते रहे। दूर-दूर तक घुप्प अंधेरा था। दूर सड़कों पर इक्का-दुक्का आती जाती गाड़ियों की लाइट दिख जाती या फिर आसमान में कौंधती बिजली कुछ पल को आस-पास का इलाका रोशन कर देती। जिससे नीला डर कर चिपक जाती और फिर कुछ देर में नीचे चलने को बोलने लगी। लेकिन यह सब मुझे बचपन के हसीन दिन भी याद दिला रहे थे। फिर जल्दी नीला के साथ उसके भीगे बदन ने मेरा मूड एकदम रोमांटिक कर दिया। मैंने अपनी बातों और हरकतों से उसका मूड भी अपने जैसा ही बना लिया। फिर बाऊंड्री के बगल में ही मैं उसे लेकर लेट गया था जमीन पर। फिर वहां हम दोनों ने वह अद्भुत पल जिए। नेचर के साथ नैचुरल कंडीशन में ही। जो विरलों को ही नसीब होता है नेचर के ही सहयोग से।
इस अद्भुत स्थिति में हम दोनों करीब घंटे भर रहे। फिर नीला को छींकें आने लगीं तो उसके आग्रह पर मैं मन न होते हुए भी नीचे चलने को तैयार हुआ। हम दोनों नीचे आधे जीने तक बैठे-बैठे ही उतरे। क्योंकि छत पर खड़े होकर हम दोनों कपड़े पहनने का रिस्क नहीं लेना चाहते थे कि कहीं भूले भटके किसी के नजर में न आ जाएं। उस दिन सवेरा होते-होते हम दोनों तेज जुखाम से पीड़ित थे। आज भी वह पल याद कर मन रोमांचित हो जाता है।
नैंशी के साथ उस शॉवर ने भी तन-मन में गुदगुदी की थी लेकिन वैसा रोमांच नहीं। बाथरूम से हम दोनों बीस-पच्चीस मिनट में ही बाहर आ गए थे। जहां कमरे में सिर्फ़ दो तौलिए थे। जिन से हमने तन पोछा भी और उसे कहने भर को ढंका भी। फिर डिनर किया। तभी लगा गीले तौलिए दिक़्कत कर रहे हैं तो दोनों ने उन्हें हटा दिया। हम दोनों को अब उनकी ज़रूरत ही कहां थी। रात भर नैंशी ने जीवन के कई नए अनुभव दिए। कई बार तो ऐसा लगा जैसे एंज्वाय करने के लिए उसने मुझे हॉयर किया है। एंज्वाय मैं नहीं वह कर रही है। वह भी अपने तरीके से। जैसे चाहे वैसे मुझे इस्तेमाल कर रही है, जो चाहे कर या करवा रही है।
सवेरे तक न वह सोई न ही सोने दिया। एक से एक बातें, काम करती या करवाती रही। सवेरे करीब छः बजे लॉज से बाहर आए तो उसने अपना सेल नंबर दिया फिर कॉल करने के लिए। फिर ऑटो कर चल दी। कहां यह नहीं बताया था।
मैंने जब घर की राह ली तो जेब में मात्र दो हज़ार बचे थे। लॉज का किराया, वहां के कुछ कर्मचारियों को नैंशी ने इस तरह पैसे दिलवाए कि मेरे पास कुछ पूछने के लिए वक़्त ही नहीं होता था। गोया कि मैं कोई धन पशु हूं। नैंशी के जाते ही मेरे दिमाग में घर हावी होने लगा। रात में कई बार मेरी नज़र मोबाइल पर इस आस में गई कि बस अब घंटी बजेगी। और नीला तनतनाती हुई पूछेगी कि कहां हो? या बच्चों की आवाज़ कि पापा कहां हो? गुस्से में नीला खुद फ़ोन न करके बच्चों से ऐसा करा सकती है। लेकिन मेरी आस पूरी नहीं हुई। भूल से भी एक कॉल नहीं आई।
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