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किस मुकाम तक

किस मुकाम तक

हरियश राय

“मैं बैठ सकता हूं यहां ।’ उन्होंने सकुचाते हुए मुझसे पूछा ।

लंबा कद । सिर पर गोल टोपी । बेतरतीब ढंग से बढ़ी हुई दाढ़ी । लंबा सफेद कुर्ता, कुर्ते के ऊपर नेहरू कट जॉकेट, टखनों से ऊपर की सलवार, पैरों में चमड़े के जूते, चेहरे पर मासूमियत । पचास–पचपन वर्ष के आसपास उम्र रही होगी । उन्हें देखकर टैगोर की कहानी काबुलीवाला के पठान की याद हो आई थी ।

यह अस्पताल का रिसेप्शन हॉल था ।

मंैने अख़बार से अपना ध्यान हटाते हुए कहा, “जरूर बैठिये ।’’

मैंने साथ वाली कुर्सी पर से अपना बैग उठा लिया और उन्हें बैठने का इशारा किया ।

उन्होंने कृतज्ञता से मेरी ओर देखा और शुक्रिया कहकर बैठ गये ।

शहर का नामीगिरामी अस्पताल था यह । अस्पताल में भर्ती होने से पहले मरीज का यहां मुआयना किया जाता था और फिर जरूरी हुआ तभी अस्पताल में भर्ती किया जाता था । कहने को अस्पताल था लेकिन भव्यता और विशालता में किसी आलीशान होटल से कम नहीं था । दस मंजिल की विशाल इमारत थी अस्पताल की । गेट पर आठ–दस सिक्यूरिटी गार्ड तैनात थे जो अस्पताल के अंदर आने वालों की तलाशी लेते थे । विशाल रिसेप्शन हॉल में ग्राहकों या मरीजों के बैठने के लिए बड़े–बड़े सोफे और आलीशान कुर्सियां थीं । इमरजेंसी वार्ड के दायें तरफ रिसेप्शन हॉल था जिसकी दीवारों पर जगह–जगह देश के मशहूर चित्रकारों की पेंटिंग्स टंगी हुई थीं । हॉल के बायें कोने पर एक स्लाइड शो चल रहा था जिसमें अस्पताल में किये जाने वाले इलाज और तस्वीरों सहित डॉक्टरों का ब्योंरा था ।

मैं तेजपाल को लेकर इस अस्पताल में आया था । हम दोनों एक ही कंपनी में काम करते थे । एक शहर से आये थे और एक ही फ्लैट में रहते थे । तेजपाल को बुखार हो गया था । नॉर्मल बुखार नहीं, डेंगू वाला बुखार था । बुखार के कारण उसके खून में प्लेटलेट्स बहुत तेजी से कम हो रहे थे । उसे खून चढ़ाया जाना था । इमरजेंसी वार्ड में डॉक्टरों ने चेक अप और कई सारे टेस्ट करने के बाद उसे हफ़्ते– दस दिन तक अस्पताल में रखने का मन बना लिया था । हालाँकि हफ्“ते–दस दिनों में लाखों रुपयों का खर्चा होने वाला था, लेकिन तेजपाल को इससे कोई फर्क नहीं पड़ना था क्योंकि उसके इलाज का सारा खर्चा कंपनी ने ही देना था ।

अस्पताल के रिसेप्शन हॉल में मैं भी तेज पाल को कमरा मिलने तक इंतजार कर रहा था । मुझे कहा गया था कि बारह बजे तक कोई कमरा आपको मिल जायेगा । पर अब दो बज चुके थे पर अभी तक कोई कमरा नहीं दिया था ।

काफी देर तक वे किसी सोच में गुमसुम बैठे रहे । मंैने अख़बार पढ़ते–पढ़ते कनखियों से उनकी ओर देखा । वे एकदम गुमसुम से थे, न जाने क्या सोच रहे थे । काफी परेशान से दिखाई दे रहे थे । अचानक उन्होंने बहुत सकुचाते हुए मुझे पूछा, “यह अस्पताल तो ठीक है न!”

मुझे उम्मीद नहीं थी कि अस्पताल के रिसेप्शन हॉल में कोई अजनबी अस्पताल पर सवालिया निशान लगाते हुए इस तरह का सवाल पूछेगा । लोग इस अस्पताल में इलाज करवाने के लिए न जाने किन–किन लोगों से सिफ़ारिशें करवाते हैं । मैं उसके इस सवाल से सकपका गया । यह ऐसा सवाल क्यों पूछ रहे हैं ? शहर का नामीगिरामी और सबसे महंगा अस्पताल है । इस देश के राजनेता, नौकरशाह, अमीर लोग या तो अमेरिका इलाज के लिए जाते हैं या इस अस्पताल में आते हैं । उन्हें ऐसा क्यों लग रहा है कि अस्पताल ठीक नहीं होगा ।

“क्यों, ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ?’’ मंैने अख़बार से अपनी नजरें हटाते हुए कहा ।

“नहीं, यूं ही पूछा । आए दिन अखबारों में डॉक्टरों की लापरवाही के बारे में छपता रहता है इसीलिए’’ उन्होंने परेशानी के स्वर में कहा ।

उनकी बात में दम था । आए दिन डॉक्टरों की लापरवाही के किस्से अख़्ाबारों में छपते रहते हैं । कोर्ट तक ने अस्पतालों को उनकी लापरवाही के कारण मरीजों को मुआवजा देने के आदेश दिए हैं ।

“पर इस अस्पताल में ऐसा नहीं है । यहां इलाज ठीक तरह से होता है । मैंने कहा और अख़बार के पन्ने पलटने लगा ।

“दरअसल, पहले भी कई बार आ चुका हूं । हर बार डॉक्टर यह कहकर छुट्टी दे देते हैं कि आपका बेटा पूरी तरह ठीक हो गया है । लेकिन जब अपने देश में वापस जाते हैं तो पता चलता है कि बीमारी पूरी तरह से ठीक नहीं हुई है और हमें फिर यहां आना पड़ता है ।’’

उन्होंने अस्पताल पर सवालिया निशान लगाने की वजह बताई ।

अब मैं उन्हें कैसे बताऊं कि सुना तो मैंने भी है कि इस अस्पताल में हर डॉक्टर को पैसा उगाहने का लक्ष्य दिया जाता है । जब तक डॉक्टरों द्वारा मनचाही रकम अस्पताल को नहीं मिल जाती, तब तक मरीज ठीक नहीं होता । उन्हें कैसे बताऊं यह अस्पताल, अस्पताल नहीं है, पैसा बनाने का कारखाना है यह । एक ही बार में आप जैसे लोगों का इलाज कर देंगे तो कैसे पैसे बनाएंगे । खासकर तब, जब अस्पताल को यह इल्म अच्छी तरह से हो गया हो कि आपके पास खूब सारा धन है । आपको एक ही बार में कैसे ठीक कर देंगे । लेकिन हकीकत से मैंने उन्हें रू–ब–रू नहीं कराया ।

“क्या हुआ आपके बेटे को ?’’ मैंने पूछा ।

उन्होंने उदास आंखों से मेरी ओर देखा, गोया उनकी समझ में नहीं आया कि मेरी बात का क्या जवाब दें ।

उन्हें इस तरह देखता देख मैंने फिर पूछा,’’ क्या हुआ आपके बेटे को ?’’

“हुआ कुछ नहीं ।” वह कुछ कहते–कहते रुक गये ।

“तो फिर अस्पताल में कैसे आना हुआ ?’’

“दरअसल मेरा बेटा बमब्लास्ट में फंस गया था’’ उन्होंने धीरे से बताया, गोया कोई बहुत ही रहस्यमय बात कह रहे हों ।
“ओह!–––– कहां–––– कश्मीर में––––––” मेरी जिज्ञासा बढ़ गई । मैंने उनके हुलिया को एक बार फिर गौर से देखा ।

“नहीं––––”

“तो फिर–––––––कहां ?”

मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी ।

“अफगानिस्‍तान ––––––––” उन्होंने धीरे से बताया ।

“तो आप अफगानिस्‍तान से आये हैं इलाज करवाने ?” मैंने हैरानी से कहा ।

“जी–––– वहीं से आए हैं । हमारी गवर्नमेंट भेजती है इस अस्पताल में हम लोगों को ।”

“तो इलाज का खर्चा भी आपकी गवर्नमेंट ही देती होगी ।’’ मुझे अखबारों में पढ़ी हुई ख़बरें याद हो आर्इं कि किस तरह तालिबानियों ने अफगानिस्तान को ध्वस्त कर डाला था और किस तरह वहां की सरकार आतंकवादियों के हमलों में घायल लोगों का इलाज करवा रही थी ।

“हां देती है, लेकिन पूरा नहीं देती, थोड़ा–बहुत हमको भी देना पड़ता है । अस्पताल तो ठीक है ?’’ उन्होंने फिर अपना सवाल दोहरा दिया ।

वे अस्पताल के बारे में आश्वस्त हो लेना चाहते थे ।

“क्यों ऐसा क्यों पूछ रहे हैं आप ?’’ मैंने पूछा ।

“नहीं, यूं ही पूछा दरअसल पिछले दिनों कुछ ऐसी खबरें पढ़ी थीं कि इन बड़े–बड़े अस्पतालों में गैरजरूरी और फर्जी ऑपरेशन कर दिए जाते हैं और मरीजों से मोटी रकम वसूल ली जाती है ।‘’
“नहीं यह अस्पताल ऐसा नहीं है । देख नहीं रहे आप– भीड़ लगी रहती है यहां लोगों की । बहुत नामीगिरामी अस्पताल है । शहर के सारे वी आई पी इसी अस्पताल में आते हैं, इलाज कराने ।”

मेरी बात सुनकर उन्हें थोड़ा संतोष हुआ लेकिन असमंजस की रेखाएं उनके चेहरे पर बनी हुई थीं ।

थोड़ी देर खामोशी छाई रही ।

“बेटे को एडमिट कर लिया ?’’ मैंने पूछा ।

“नहीं, अभी नहीं किया । अभी इमरजेंसी वार्ड में ही रखा हुआ है ।’’ उन्होंने बुझे मन से कहा ।

“कमरा मिल गया आपको ?”

“अभी नहीं मिला ?’’

“क्यों–––क्यों नहीं मिला ?”

“कहते हैं थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा ।’’

“कितना इंतजार ।’’

“यह नहीं बताते । सुबह से इंतजार ही कर रहा हूं ।” उन्होंने कहा और उठकर चल दिये ।

मैं भी तो कमरे के इंतजार में रिसेप्शन में बैठा हुआ था ।

थोड़ी देर बाद लौट कर आये । मुझे देखते ही कहने लगे“बहुत ज्यादा पैसा मांगते हैं ।”

मेरे साथ उन्हें थोड़ा अपनापन लग रहा था । शायद मेरे द्वारा सीट देने से या उनसे बातचीत करने से ।

“कितना मांगते हैं ?’’

“एक दिन के लिए चालीस हजार रुपये ।’’ उनके चेहरे पर बेचारगी झलक रही थी ।’

“एक दिन के–––चालीस हजार ।’’ सुनकर मैं हैरान रह गया । समझ में नहीं आया मैं उन्हें क्या कहूं । सोच में पड़ गया कि हमारी कंपनी से भी यह अस्पताल इतने ही पैसे लेगा । यहां आने से पहले किसी ने कहा था कि कमरे की कीमत के हिसाब से डॉक्टरों की फीस, इलाज की फीस तय होती है । डॉक्टर और इलाज वही रहता है लेकिन जैसा कमरा, वैसे ही पैसे । कम किराये का कमरा कम पैसे, ज्यादा किराये का कमरा ज्यादा पैसे । और कम किराये के कमरे खाली नहीं रहते ।

“यह तो बहुत ज्यादा है । तो आप कमरे की जगह वार्ड में कोई बेड ले लो ।’’ मैंने उन्हें रास्ता सुझाते हुए कहा ।

“मैंने भी वार्ड में भरती करने के लिए कहा ।–––––’’ उन्होंने बताया ।

“फिर क्या कहा उन्होंने ?’’

“कहते हैं वार्ड में कोई बेड खाली नहीं है, कमरा ही लेना पड़ेगा,’’ उसने अपने सिर को धीरे–धीरे हिलाते हुए कहा ।

“अच्छा ।” मैंने हैरानी व्यक्त की ।

“यही दिक्कत है यहां । आजकल अस्पताल भी पैसा बनाने की ख़ानें बन गए हैं ।‘’ मैंने कहा

“लेकिन कमरा मिल जायेगा तो बहुत अच्छा होगा । हम भी बेटे के साथ रह लेंगे ।’’ उन्हें चालीस हजार रुपये रोज का कमरा महंगा नहीं लग रहा था ।

“अफगानिस्‍तान में घर होगा आपका ?” मैंने पूछा ।

मेरा यह सवाल उन्हें अटपटा–सा लगा । उन्होंने हैरानी से मेरी तरफ देखा गोया । उनको समझ में नहीं आया कि मैंने क्या पूछा है ।

“हां, घर है हमारा वहां ।”

“किस शहर में ?” मैंने बात को आगे बढ़ाने के अंदाज में पूछा ।

“फाटा में ।” उन्होंने अनमने मन से कहा ।

मुझे याद आया पिछले दिनों अफगानिस्‍तान का फाटा इलाका अखबारों की सुर्खियों में रहा था । बमब्लास्ट की कई वारदातें हुई थीं वहां ।

“क्या करते हंै वहां आप ?’’ मैंने पूछ लिया ।

“पहले खेती करते थे ।’’ उन्होंने संक्षिप्त–सा जवाब दिया ।

“किस चीज की खेती करते थे ?’’

“अफीम की––––––” उन्होंने धीरे से कहा ।

मुझे पता था कि अफगानिस्‍तान में अफीम की खूब खेती होती थी । आतंकवाद के फलने–फूलने में अफीम की खेती का बहुत बड़ा हाथ था ।

“कितनी अफीम पैदा कर लेते हैं आप’’ मैंने पूछा ?

“पहले बहुत पैदा करते थे, अब सब बंद कर दिया ।’’

“क्यों, बंद कर दिया ?’’

“बस यूं ही ।” उन्होंने अनमने मन से कहा ।

वे मेरी बात का जवाब नहीं देना चाह रहे थे ।

“पर मैंने सुना है कि अफीम का कारोबार करने वालों को वहां मौत की सज़ा भी होती है ?’’

मेरी बात सुनकर वे कुछ नाराज से हो गये । शायद उन्हें यह अच्छा नहीं लगा था ।

“नहीं, हमारे मुल्क में ऐसा नहीं होता । बहुत पहले ईरान में एकाध बार हुआ था । पर अब वहां भी नहीं है । अफीम के कारोबार से ही तो हमारा मुल्क चलता है ।’’ उन्होंने मेरी जानकारी में इजाफा किया ।

“अच्छा–––––” मैंने हैरानी से कहा ।

“काश हमारे यहां अफीम न होती ।’’ फिर अचानक उन्होंने कहा ।

उनकी आवाज में एक अफसोस झलक रहा था । बेहद अफसोस ।

मुझे लगा कि अफीम की खेती से इन्हें कोई बहुत बड़ा नुकसान हुआ है । तभी ऐसी बात कह रहे हैं ।

“मतलब ।–––––” मेरी जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी ।

“अफीम के नशे ने ही हमारे बच्चों के हाथ में गन दे दी । तबाह कर दिया है इस अफीम ने हमारे मुल्क को’’ उनकी आवाज में एक दर्द था, जिसे केवल महसूस किया जा सकता था ।

मुझे वह व्यक्ति दिलचस्प लगे । इससे पहले मैं यह जानने की कोशिश करता कि अफीम ने कैसे इनके मुल्क को तबाह किया है, इमरजेंसी वार्ड की एक नर्स ने रिसेप्शन हॉल में आकर फजल शिरजात का नाम पुकारा । अपना नाम सुनते ही उनकी रगों में दौड़ता खून और तेज दौड़ने लगा । वह तेजी से इमरजेंसी की तरफ लगभग दौड़ते हुए गये । मैं वहीं बैठा रहा ।

तब मुझे पता चला कि उनका नाम फजल शिरजात है ।

कुछ ही देर में एक स्ट्रेचर के साथ चलते हुए वह मुझे दिखाई दिये । चलते–चलते उन्होंने मुझसे कहाµ “कमरा मिल गया है । पांचवां फ्लोर है ।’’ स्ट्रेचर पर शायद उनका बेटा लेटा हुआ था, जिसका चेहरा मुझे नहीं दिखाई दिया ।

थोड़ी देर बाद मेरे दोस्त को भी एक कमरा दे दिया गया । यह चैथी मंजिल पर था । डॉक्टरों ने कहा कि कभी भी उसे खून की जरूरत पड़ सकती है । यदि कोई इनके साथ हमेशा रहे तो बेहतर रहेगा । तेजपाल का इस शहर में कोई नहीं था । लिहाज़ा मुझे ही उसकी देखभाल के लिए अस्पताल में रहना पड़ा, उसी के साथ, उसी के कमरे में ।

अस्पताल में मैं कई बार फजल शिरजात को रेस्तरां में आते–जाते अनजाने में ही उन्हें ढूंढने लगता, लेकिन वे मुझे नहीं दिखाई दिए । अलबत्ता बहुत सारे अफगानी मर्द और औरतें दिखाई देते । इस अस्पताल के रेस्तरां में अफगानियों के लिए एक अलग से काउंटर था । मटन, चिकन से लेकर ।–––तमाम तरह की पसंद की खाने की चीज़ें मिला करती थीं । अफगानियों की भीड़ लगी रहती थी उस काउंटर पर । मेरी समझ में नहीं आया कि इतने सारे अफगानी आखिर क्योंकर आते हैं इस अस्पताल में । ऐसी क्या बीमारी होती होगी इन लोगों को जिसका इलाज इसी अस्पताल में होता है ।

एक बार एक नर्स जब तेजपाल का ब्लड प्रेशर चेक्कर रही थी तो मैंने उससे पूछा, “आपके अस्पताल में बहुत सारे अफगानी दिखाई देते हैं, किस किस्म की बीमारी होती है इन्हें ?”

“किन्हें ? अफगनियों को–––’’ नर्स ने सशंकित होकर मुझसे पूछा ।

“हां अफगनियों को । बहुत सारे अफगानी हैं इस अस्पताल में ।” मैंने अपनी जिज्ञासा दोहरा दी ।

“इनके यहां बम बहुत फटते हैं । उनसे घायल लोग ही इलाज करवाने आते हैं ।’’ नर्स ने लापरवाही से जवाब दिया ।

मेरे लिए यह चैंकाने वाली बात थी । बम फटने से घायल होकर यहां इलाज करवाने आते हैं ।

“मतलब–––” मैंने हैरानी से कहा ।

“किसी का बमब्लास्ट में हाथ–पैर कट जाता है, कोई बहरा हो जाता है, बमब्लास्ट के समय गर्भवती औरतों के बच्चों को काफी गड़बड़ियां हो जाती हैं । कोई लूला पैदा होता है, कोई अंधा पैदा होता है । उन सबका इलाज करवाने के लिए अफगनी लोग हमारे अस्पताल में आते हैं । स्पीशियलीटी है हमारे अस्पताल में ।’’

नर्स की यह जानकारी मेरी लिए चैंका देने वाली थी ।

चार–पाँच दिन तक फजल शिरजात मुझे नहीं दिखाई दिये । मैंने सोचा शायद उनके बेटे का इलाज हो गया हो और वे वापस अफगानिस्‍तान चले गये हों ।

एकाएक एक दिन दोपहर के समय फजल शिरजात अस्पताल की दवाइयों की दुकान में दवाइयां लेते हुए मुझे मिल गये । उन्होंने अपने माथे तक हाथ उठाकर मुझे सलाम किया । मैंने भी उनके सलाम का जवाब सलाम से ही दिया ।

“कैसा है आपका बेटा––––मैंने पूछा ।”

“मालूम नहीं । डॉक्टर लोग कुछ बताते नहीं हैं ।’’ उनके चेहरे पर परेशानी के भाव झलक रहे थे ।

मैंने देखा उनका सारा ध्यान दवाइयों की तरफ था । वह बड़ी सावधानी से कम्प्यूटर पर बनते दवाइयों के बिल को देख रहे थे । जब बिल पूरा बन चुका तो उन्होंने काउंटर के उस तरफ बैठे शख्स से पूछा. “कितना हुआ––––––––– ?’’

“एक लाख साठ हजार––––––––” उस शख्स ने बताया ।

यह रकम सुनकर वे सोच में पड़ गये । इतनी ज्यादा! उन्होंने मन ही मन दोहराया और अपने कुर्ते की जेब से डॉलर निकालकर गिने । फिर मन ही मन उन डॉलरों को रुपयों में गिना ।

उन्हें इस तरह डॉलर गिनते देख दवाइयों की दुकान पर बैठे शख्स ने पूछा “बोलिये–––दूं दवाइयां ।”

“हां, दवाइयाँ दे दो । पर पैसे कम हैं ।’’ उन्होंने दयनीयता से कहा ।

“कितने हैं ।” उस शख्स ने घुड़ककर पूछा ।

“एक हजार डालर हैं मेरे पास ।” उन्होंने कहा ।

“एक हजार डालर तो करीब साठ–सत्तर हजार रुपये होते हैं ।” उस शख्स ने कहा ।

“हां, बस इतने ही हैं ।” उनके स्वर में लाचारी थी ।

“तो ऐसा करो, जितने पैसे हैं, उतने की दवाइयां ले जाओ । दो दिन तक इन दवाइयों से काम चल जायेगा । बाकी पैसे ले आना, तो दवाईयां ले जाना ।’’ उस शख्स ने रास्ता सुझाया ।

उन्होंने अपना सिर हिलाकर सहमति दी ।

दवाइयां लेकर जब वे जाने लगे तो मेरी ओर देखकर कहा,’’ “इन दिनों बहुत खर्चा हो गया । बहुत महंगा अस्पताल है । सारे पैसे खत्म हो गये ।’’

“हां, महंगा तो बहुत है ।’’ मैंने उनके स्वर में स्वर मिलाया ।

“सात हजार डॉलर लाये थे, केवल एक हजार बचे थे । अब वह भी खत्म हो गये ।’’ उन्होंने कहा ।

“तो अब क्या करेंगे ?’’ मैंने पूछा ।

“अपने मुल्क से मंगायंेगे और पैसे ।’’ उन्होंने कहा ।

“आ जायेंगे दो दिन में पैसे ?’’ मैंने पूछा ।

“हां, आ जायेंगे––––––––”

“कैसे”

“वहां से फोन करवा देंगे तो यहां पैसे मिल जायेंगे ।” उनके पास पैसे मंगाने का पूरा इंतजाम था ।

“आपके मुल्क में ऐसे अस्पताल नहीं हैं जो आप अपने बेटे को यहां ले आये, इलाज के लिए ।’’ मैंने उनसे सवाल पूछा ।

“नहीं, हमारे मुल्क में ऐसा कोई अस्पताल नहीं है जहां इलाज हो सके । वहाँ न तो ऐसे डाक्टर हैं और न ही ऐसी दवाइयां जिससे बम की चपेट में आये लोगों का इलाज किया जा सकें ।’’

वे जल्दी में थे ।

“मेरे नमाज पढ़ने का वक्त हो चला है ।” उन्होंने कहा और लिफ्ट की ओर जाने लगे ।

“आप यहां कहां पढ़ेंगे नमाज ? यहां आसपास तो कोई मस्जिद नहीं है ।’’

मैं भी उनके साथ चलने लगा । मुझे भी चैथी मंजिल तक जाना था ।

“यहां अस्पताल वालों ने हमारे जैसे लोगों के लिए एक अलग पाक जगह का इंतजाम किया है । वहीं नमाज पढ़ते हैं ।’’ उन्होंने बताया ।

अस्पताल में नमाज पढ़ने का इंतजाम जानकर मुझे हैरानी हुई । जब उन्होंने यह बताया था कि नमाज पढ़ने का टाइम हो गया तो मैंने सोचा कमरे में जाकर ही नमाज पढ़ेंगे । लेकिन यह जानकारी मेरे लिए नई थी कि अस्पताल की ओर से उनके लिए नमाज पढ़ने का इंतजाम किया गया है ।

“यहां नमाज पढ़ने का बड़ा अच्छा इंतजाम किया है अस्पताल वालों ने । पिछली बार आये थे तो बाहर बाग़ में जाना पड़ता था । इस बार तो एक अलग जगह दे दी है ।’’ उन्होंने खुशी से कहा ।

“पिछली बार मतलब––––– ?” मेरी जिज्ञासा बढ़ गई थी ।

“जब मैं अपने भाईजान को लेकर आया था ।”

“क्यों, क्या हुआ था उन्हें ? उन्हें भी बम लग गया था क्या ?”

“नहीं––––उन्हें कैंसर था ? तब मैं यहां काफी दिन रहा ।’’

“अब कैसे हैं आपके भाई जान ।’’

“अब वो नहीं रहे, उनका इंतकाल हो गया ।’’

“ओह!–––’’ मैंने अफसोस से कहा ।”

“उससे पहले अपनी बेगम को लेकर आया था ।’’

“उन्हें क्या हुआ था ?”

“बुखार था ।–––बुखार, पर वे ठीक हो गर्इं । कई बार आ चुका हूं, हमारे मुल्क के बहुत सारे लोग इसी अस्पताल में आते हैं । इसलिए नमाज पढ़ने के लिए अलग से जगह हम लोगों को दी गई है ।” उन्होंने बताया ।

“ठीक है । यदि समय हो तो शाम को पांच बजे ग्राउंड फलोर के रेस्तरां में आइए । कॉफी पियेंगे । मैंने उन्हें काफी पीने का निमंत्रण दिया ।

मेरी बात सुनकर वे सोच में पड़ गये । ‘कॉफी’ उन्होंने कहा और फिर एक क्षण रुककर बोले,’’ “ठीक है नमाज पढ़ने के बाद शाम को रेस्तराँ में आता हूं ।’’

शाम को पांच बजने से काफी पहले मैं अस्पताल के रेस्तराँ में आ गया था । रेस्तरां को देखकर लगता ही नहीं था कि वह अस्पताल का रेस्तरां था । बाजार अपनी पूरी दमक के साथ मौजूद था । हर तरह का खाना बिक रहा था सैंडविच से लेकर चिकन तक, रेस्तरां में खूब चहल–पहल थी । वहाँ मौजूद लोगों के चेहरों को देखकर भी लगता नहीं था कि वे लोग किसी बीमार का हाल–चाल जानने वहां आये हैं, उनकी खिलखिलाहट भरी हँसी और बातों को सुनकर तो ऐसा लग रहा था कि वे किसी पिकनिक पर आये हों । मुझे एक मेज़ के पास दो कुर्सियां खाली दिखाई दीं । मैं वहां जाकर बैठ गया और फजल शिरजात का इंतजार करने लगा । थोड़ी देर बाद फजल शिरजात रेस्तराँ में आ गये । मैंने उनके लिए कॉफी मंगवाई, उनके बैठते ही मैंने पूछा, “आप हिन्दी बहुत अच्छी बोल लेते हैं । लगता नहीं आप अफगानी है कहां से सीखी आपने ।’

मेरी बात सुनकर वे मुस्करा दिए “पहले मैं यहीं दिल्ली में एम्बेसी में काम करता था । चार साल तक रहा । तब से हिन्दी बोलना सीख गया ।”

“कैसी तबियत है आपके बेटे की ?’’ मैने पूछा

“वैसी ही है । आज पांचवां दिन है । कोई फर्क नहीं पड़ रहा है ।’’

“क्या कहते हैं डॉक्टर ।’’ मैंने जानना चाहा ।

“कहते हैं अभी कुछ और टेस्ट कराने हैं । उसके बाद बम के टुकड़ों का शरीर से निकाला जा सकेगा ।’’

“टेस्ट–वेस्ट तो बहाना है । इनकी तो आपके डॉलरों पर नजर है । इन्हें पता चल गया होगा कि अफीम की खेती से आपने खूब सारे डॉलर कमाएं हैं । अब ये आपकी जेब खाली कराना चाहते हैं ।” मैंने इस अस्पताल का अर्थशास्त्र उन्हें समझा दिया ।

“डॉलर ले लो, पर बच्चे को तो ठीक करो ।’’ वे डालर से ज्यादा अपने बेटे के इलाज के लिए फिक्रमंद थे ।

“आपके बेटे ने भी नमाज अता की ?’’ मैंने जानना चाहा ।

“नहीं ।–––उसे नमाज पढ़नी नहीं आती ।’’ उनके स्वर में गुस्सा सा था ।

“आपके साथ रहकर भी नमाज पढ़ना नहीं सीखा उसने ?’’ मैंने कहा ।

“नमाज पढ़ना सीखता, तो हाथ में गन नहीं उठाता ।”

“कुरान शरीफ तो पढ़ लेता होगा ?’’ मैंने जानना चाहा ।

नहीं, कुरान शरीफ भी नहीं पढ़ता । कुरान शरीफ पढ़ता होता तो उसके शरीर में बम नहीं धंसा होता । बंदा बन गया होता । बस इस्लाम के नाम पर जान दे सकने का जोश उसमें जरूर था ।’’ उन्होंने गुस्से में बौखलाते हुए कहा, बोलते–बोलते उनके कान सुर्ख हो गये थे ।

“क्या हुआ था आपके बेटे को, कैसे बम की चपेट में आ गया ?’’ मैंने पूछा ।

उन्होंने एक सांस में कॉफी पी ली । हथेली से अपने होठों को साफ किया और कहना शुरू कियाµ “एक दिन वह बाजार गया, कुछ सामान लेने, वहीं बम फटा । बम के छोटे–छोटे कई टुकड़े उसके शरीर में धंस गये । अपने मुल्क में इलाज कराया लेकिन ठीक नहीं हो सका । बम के काफी सारे टुकड़े निकल गये । लेकिन अभी भी बहुत सारे बारीक–बारीक टुकड़े उसके शरीर में धंसे हुए हैं । उन्हें निकाला नहीं गया ।’’ उन्होंने विस्तार से बताया ।

“क्यों, क्यों नहीं निकाला गया ?’’

“डॉक्टर कहते हैं बम के बहुत बारीक–बारीक टुकड़े उसकी स्किन में फंस गये हैं । उन्हें निकालने की कोशिश करेंगे तो स्किन उघड़ जायेगी । पूरे शरीर में बेइंतहा दर्द होता रहता है । पूरा शरीर एकदम काला हो गया है । हमेशा बुखार रहता है ।’’ उन्होंने अपने बेटे की तकलीफ के बारे में बहुत दु%ख से बताया ।

“यह तो बहुत तकलीफ वाली बात है ।’’ मैंने कहाµ

“हां बहुत तकलीफ होती है, बम के टुकड़ों को शरीर में लिए हुए जीना आसान नहीं है । मरने से भी बदतर है । जब वह दर्द से कराहता है तो देखा नहीं जाता ।’’ वे बेहद दु%खी लग रहे थे गोया दर्द उन्हें हो रहा हो ।

“आप कह रहे थे पहले भी इसी अस्पताल में बेटे को लेकर आये थे!”

“हां तीन बार लेकर आया । हर बार कुछ दिन अस्पताल में रखते हैं फिर यह कहकर छुट्टी दे देते हैं कि अब पूरी तरह ठीक हो चुका है, लेकिन अफगानिस्‍तान पहुंचने के कुछ दिनों बाद ही फिर से दर्द शुरू हो जाता है और जब दर्द हद से गुजर जाता है तो फिर से उसे यहां ले आते हैं । इस अस्पताल में कुछ ऐसे डॉक्टर हैं जो उस का इलाज कर सकते हैं ।’’

उन्होंने अपना किस्सा विस्तार से बताया । बेटे से ज्यादा उन्हें तकलीफ हो रही थी । इस समय यदि कोई उनकी आंखों में झांक कर देखे तो वहां का रेगिस्तान ही दिखाई देगा ।

“चलता हूं । शाम को डॉक्टर आने वाला है । उनसे पूछूंगा कि कब तक चलेगा इलाज ?’’ कहकर वह उठ गये ।

अगले दो–तीन दिन वे मुझे नहीं दिखाई दिए । रेस्तराँ में, दवाइयों की दुकान में, रिसेप्शन के हाल में, मैंने उन्हें तलाशने की कोशिश की लेकिन वह मुझे नहीं दिखाई दिए । एक बार उन्हें तलाशते हुए अस्पताल के पांचवें फ्लोर तक भी गया लेकिन उनका पता नहीं चल सका । वहां बहुत सारे अफगानी थे । लगता था यह फ्लोर अफगानियों के लिए रिजर्व किया हुआ है । वहां मैंने देखा कि लिफ्ट के दायें तरफ एक बड़ा–सा कमरा था । उस कमरे का दरवाजा खुला हुआ था । दरवाजे के बाहर जूते–चप्पल रखे हुए थे और अंदर रंग–बिरंगी दरियां बिछी हुई थीं, मुझे लगा कि अस्पताल वालों ने नमाज पढ़ने के लिए यही जगह मुकर्रर की हुई है । मुझे इस तरह खड़ा देख सिक्यूरिटी गार्ड ने पूछाµ “किससे मिलना है ।’’

मेरी इच्छा हुई कि मैं उनका नाम बता दूं लेकिन उस वक्त उनका नाम मुझे याद नहीं आया । मैंने प्रेयर रूम की ओर इशारा करते हुए पूछा, “यहां क्या है ?’’

“यहां प्रेयर की जाती है ।’’ उसने उपहास के स्वर में बताया ।

“कौन लोग प्रेयर करते हैं यहां ?

“मुसलमान लोग करते हैं ।’’ उसने बताया ।

मुझे यह जानकर अजीब सा लगा कि अस्पताल में मुसलमानों के लिए नमाज पढ़ने के लिए अलग जगह है । मुझे याद आया कि फजल शिरजात ने बताया था कि नमाज पढ़ने के लिए अस्पताल वालों ने अलग जगह का इंतजाम किया है ।

“तो क्या हिन्दुओं के लिए भी प्रार्थना करने की जगह है ?’’ मैंने गार्ड से पूछा ।

“उनके लिए मंदिर है ।’’

“मंदिर ?–––कहां है मंदिर–––मैंने आसपास देखते हुए कहा ।

“नीचे अस्पताल के गेट पर ।’’ सिक्यूरिटी गार्ड ने मेरी जानकारी में इजाफा किया ।

“तो इनके लिए ऊपर क्यों ।’’

“अजी साहब, क्या बात करते हैं आप, कोई सुन लेगा । ऐसा मत कहिए ।’’ उसने मुस्कुराते हुए कहा ।

“क्यों ।––– क्यों न कहूं ?’’ मुझे यह बात बड़ी अजीब सी लग रही थी ।

“पहले ये लोग अस्पताल के कॉरीडोर में, रिसेप्शन हॉल में जहां जगह मिले, वहीं नमाज पढ़ना शुरू कर देते थे । अस्पताल वालों को यह ठीक नहीं लगा कि ये लोग जगह–जगह नमाज पढ़ें । इसलिए बाद में अस्पताल वालों ने नमाज पढ़ने के लिए यह कमरा दे दिया ।’’ उसने बताया ।

बाजार लोगों की ज़रूरतों का कितना ध्यान रखता है, इसे देखकर यह जाना जा सकता है । मैंने सोचा और वहाँ से वापस आ गया ।

अगले रोज सुबह अस्पताल के बाहर के पार्क में मुझे मिल गये । तेज–तेज चलते हुए, मुझे उम्मीद नहीं थी कि वे इस तरह सुबह–सवेरे इस तरह टहलते हुए मुझे मिल जाएंगे । मुझे आता देख उन्होंने अपनी चाल धीमी कर दी । मैं जब उनके पास पहुंचा तो उन्होंने सलाम किया । मैंने हाथ उठाकर उनके सलाम का जवाब दिया ।

“अस्पताल के कमरे में बहुत ठंड हो जाती है रात को, इसलिए सुबह–सुबह कुदरत की हवा खाने आया हूं ।” मुझे देखते ही उन्होंने कहा.

“बहुत अच्छा करते हैं आप । सुबह की सैर सेहत के लिए बहुत जरूरी है ।”

“हमारा मुल्क तो बहुत गर्म रहता है । यहां अच्छा है ।’’ उनकी आवाज में खुशी झलक रही थी ।

“क्या अच्छा है ।’’ मैंने जानना चाहा ।

“यह अस्पताल बहुत अच्छा है । हमारे मुल्क में ऐसा अस्पताल नहीं है । वहां ऐसा इलाज भी नहीं होता ।”

“पर आपके मुल्क में बम और गन हैं ।’’ मैंने कहा ।

मेरी बात सुनकर वे चैंक गये । चेहरे की खुशी एकाएक गुम हो गई ।

“वो हमारे अपने नहीं हैं । वह तो अंकल सैम ने दिए हैं ।’’

“अंकल सैम ।–––कौन अंकल सैम ?–––––’’ मैं समझ नहीं सका उनका इशारा किसकी ओर है ।

“अरे, आप अंकल सैम को नहीं जानते, पूरी दुनिया उन्हें जानती है ।’’ उन्होंने चलते–चलते कहा ।

मैं भी उनके साथ चलने लगा, पर मेरी समझ में नहीं आया कि यह क्या कह रहे हैं और किस अंकल सैम की बात कर रहे हैं । मुझे असमंजस में देख उन्होंने हँसते हुए कहा, “अरे भाई अंकल सैम मतलब अमेरिका ।–––––– यू– एस– ए– अमेरिका ने ही हमारे मुल्क में बम गिराये, हमारे बच्चों के हाथों में बारूद दे दिया ।’’

मेरी स्मृति पटल पर अफगानिस्‍तान का अतीत कौंध गया ।

“पर मदद तो आपके मुल्क ने ही मांगी थी अंकल सैम से ।’’ मैंने उनका अतीत उन्हें याद दिलाते हुए कहा । उन्होंने घूरकर मुझे देखा । “दरअसल जब सोवियत संघ ने हमारे मुल्क में कब्जा कर लिया तो अंकल सैम को लगा कि कहीं यह पूरे एशिया में ही समाजवाद का झंडा न फहराने लगे तो अंकल सैम ने तालिबानों को खड़ा किया और उन्हें सोवियत संघ से लड़ने के लिए हमारे मुल्क में भेजा ।’ उन्होंने चलते–चलते बताया ।

“अच्छा––––– तो फिर क्या सोवियत सेना चली गई वापस आपके मुल्क से ?”

“हां चली तो गई लेकिन साथ ही हमारे मुल्क से समाजवाद भी खत्म हो गया । सोवियत सेना के जाते ही तालिबानों ने हमारे मुल्क पर कब्जा कर लिया ।”

“यह तो आपके मुल्क के लिए बहुत घातक हुआ । पर यह हुआ कैसे ।” मैंने पूछा ।

“एकाएक चलते–चलते वे रुक गये और फिर मेरी तरफ ऐसे देखा गोया मैं कोई अबोध बालक हूं ।” फिर कहना जारी रखा ।

“दरअसल जब सोवियत सेना हमारे मुल्क से हट गई तो ये तालिबान हमारे मुल्क में हीरो बन गये । मुल्लाह ओमर और ओसामा बिन लादेन का नाम उसी दौरान पूरी दुनिया ने सुना और जब देश में चुनाव हुए तो तालिबानों ने हुकूमत पर कब्जा कर लिया और हमारे मुल्क में इस्लामी शासन लागू करना शुरू किया जो कि मुल्क के लिए तबाही का पैगाम लेकर आया ।”

उनकी आवाज में एक तरह का अफसोस झलक रहा था ।

“पर बाद में आपके मुल्क में बमों की बरसात भी तो अंकल सैम ने ही की ।’’ मैंने कहा ।

मेरी बात सुनकर वे चलते–चलते एकदम रुक गये । फिर धीरे–धीरे चलने लगे । कुछ बोले नहीं ।

“जब ये तालिबान अंकल सैम के लिए खतरा बन गये और जब अमेरिका में नाइन इलैवन हुआ तो अंकल सैम ने कहा कि तालिबानों को हमारे हवाले कर दो पर हमारे मुल्क की सरकार ने कहा कि पहले सबूत दो कि यह काम तालिबानों ने किया है । बस तब से अंकल सैम हमारे मुल्क से खफा हो गये और हमारे मुल्क में बमों की बरसात कर दी ।” उन्होंने बताया ।

“क्या आपके बेटे ने भी हाथ में गन ले ली ?” मैंने पूछा ।

“पहले नहीं थी पर बाद में ले ली ।” उन्होंने कहना शुरू किया “एक दिन अचानक घर से गायब हो गया । हम लोगों ने बहुत ढूंढा, पर पता नहीं चला । तीन महीने बाद अचानक एक दिन वापस आ गया । एकदम बदला–बदला । बस अल्लाह की राह पर चलने की बात करता था । तब हमें पता चला कि वह उन लोगों के चक्कर में फंस गया था ।’’ उन्होंने अपने बेटे के बारे में बताया ।

“कैसे फंस गया इस चक्कर में ?’’

“पता नहीं कैसे फंस गया इस चक्कर में । जब से इसने हाथ में गन ली, तब से घर की खुशियां तो रेगिस्तान में दफन हो गर्इं, बार–बार घर से गायब होकर पता नहीं कहां चला जाता था । हमने बहुत पूछने की कोशिश की लेकिन कभी बताया नहीं उसने । कुछ दिन अपने घर रहता फिर गायब हो जाता । यह सिलसिला बहुत दिनों तक चलता रहा ।’’ उन्होंने अफसोस से कहा ।

“अकेला वही था या और लोग भी थे उसके साथ ।’’

“नहीं, बहुत सारे लोग थे । उन दिनों फाटा में बहुत सारे लड़के अल्लाह की राह पर चलने की बात करते थे । उन लोगों के कंधों पर गन और हाथों में बम रहता था ।” उन्होंने बताया ।

“आपने अपने बेटे को रोका नहीं ?’’

“बहुत रोका । लेकिन माना नहीं । कहता था इस राह पर चलकर दुनिया की सारी नियामतें मुझे मिलेंगी और यदि मर भी गया तो जन्नत तो नसीब होगी । अल्लाह की राह पर चलने के चक्कर में तबाह हो गया ।” उन्होंने दु:ख और घृणा से मुंह बनाते हुए कहा ।

“यह तो ठीक नहीं हुआ ।’’ मैंने उनके प्रति हमदर्दी जताते हुए कहा ।

“यह सब तालिबानों का किया धरा है ।’’

“वो कैसे––– ?”

“तबाह कर दिया हमारे मुल्क को तालिबानों ने ।’’

“वो कैसे–––– ?”

मुझे थोड़ा–बहुत अंदाजा था, फिर भी मैंने उनसे पूछ लिया ।

“इन तालिबानियों ने ही मुल्क में एक भी ऐसा अस्पताल नहीं बनने दिया । हम लोगों का दाढ़ी बढ़ाना जरूरी कर दिया, हमारी औरतों को बुर्का पहना दिया, टीवी, म्यूजिक, सिनेमा पर पाबंदी लगा दी, लड़कियों को स्कूल नहीं जाने दिया, औरतों पर बेइंतहा जुल्म ढाए, उन्हें नौकरी नहीं करने दी, उन्हें नर्स और डॉक्टर नहीं बनने दिया । पूरा मुल्क बीमार कर दिया । आपको पता है हमारे मुल्क की ज्यादातर औरतों की दिमागी हालत ठीक नहीं रहती ।’’ उन्होंने गुस्से से बताया ।

उनके चेहरे पर गुस्से और आक्रोश की अनन्त रेखाएं उभर आई थीं ।

“ऐसा तो नहीं होना चाहिए था ।’’

“पर हुआ । जब पूरा का पूरा मुल्क साइंस की जगह कुरान को सिर पर उठा लेता है तो उसका क्या अंजाम होता है, यह हमारे मुल्क से सीखा जा सकता है । पूरे मुल्क में बेचैन आत्माएं भटक रही हैं । अब न तो कोई सपना बचा है और न ही कोई भविष्य । पर आप हमें बताइये कि अंकल सैम हमसे इतनी नफरत क्यों करते हैं ? हमने क्या बिगाड़ा है उनका ?’’

मैं उनकी बात का क्या जवाब देता, पर मेरे जेहन में कई बार यह सवाल उमड़ता है कि आम जनता पर बंदूक चलाने वाले लोगों को किस चीज से प्रेरणा मिलती है । उन्हें कौन उकसा रहा है ? उनके जेहन में ऐसी बातें डालने वाले कौन लोग हैं अंकल सैम हैं या कोई और ?

वे कहते जा रहे थे ।

“अब हमारे मुल्क में कुछ भी नहीं है, न बड़े शहर, न कोई इंडस्ट्री, न कारखाने, न खेत । सारे खेत सामूहिक कब्रिस्तानों में बदल चुके हैं । हमारे मुल्क में इस सदी की सबसे बदतर त्रासदी हुई है । हमारे ही लोगों की क़ब्रों पर चढ़कर अंकल सैम ने लूटने की नई राह बनाई जिसे आप लोग कॉरपोरेट जगत् कहते हैं ।’’

उनकी रगों में अंकल सैम के प्रति घृणा खून के रूप में दौड़ रही थी ।

“यह अस्पताल भी तो उसी लूट का जरिया है ।’’ मैंने कहा ।

“ठीक कह रहे हैं आप । मैं कई बार आया यहां । हर बार हज़ारों डॉलर खर्च हो जाते हैं । हर बार कहते हैं कि शरीर से बम के सारे टुकड़े निकल गये । पर वहां जाने पर पता चलता है कि अभी बाकी हैं । फिर से आना पड़ता है । अस्पताल ही नहीं लूट के कई जरिए अंकल सैम ने बनाए हुए हैं ।’’ उन्होंने कहा ।

मैं उनकी बात सुनकर चुप रहा । मेरे पास अल्फाज नहीं थे । वे भी चुपचाप चलते रहे । अस्पताल का मेन गेट आने पर उन्होंने कहा, “आज अस्पताल से छुट्टी मिलने वाली है ।”

“बहुत अच्छी बात है । आज तेजपाल को भी छुट्टी मिलने वाली है । उसका बुखार उतर गया है । ब्लड प्लेटलेट्स नॉर्मल हो गये ।” मैंने बताया ।

“बहुत अच्छा है ।––––” उन्होंने कहा और सलाम वालेकुम–––––कहकर अस्पताल के गेट के अंदर तेज–तेज क़दमों से चले गये ।

शाम को वे मुझे अस्पताल के गेट पर मिल गये । रुआंसे से । उनके साथ सलवार–कमीज पहने उनके कंधे का सहारा लेकर एक युवक चल रहा था । एक पच्चीस–तीस साल का नौजवान था । चेहरे पर भरपूर दाढ़ी थी, देखने में एक मजबूत कद–काठी का दिखाई दे रहा था । पर चेहरे पर न तो वह खुशी मुझे दिखाई दी, जो ठीक होने पर आती है और न ही चाल में रवानगी थी जिससे उसके जोश और उत्साह का पता चल सके ।

“आज जा रहे हैं आप! मैंने विदाई देने के अंदाज में कहा ।

“हां, आज शाम की फ्लाइट है ।’’ उन्होंने मायूसी से कहा ।

“पूरी तरह ठीक हो गया आपका बेटा ?’’ मैंने जानना चाहा ।

“हां अभी तो ठीक लग रहा है । आगे देखते हैं । उन्होंने सहारा देकर अपने लड़के को कार की पीछे वाली सीट पर बिठाया । वे खुद कार के ड्राइवर की बगल वाली सीट पर आकर बैठ गये । कार जब चलने लगी तो उन्होंने हाथ उठाकर मुझे सलाम किया ।

मैंने भी उनके सलाम का जवाब सलाम से ही दिया । मैं सोच रहा था कि चलते–चलते किस मुकाम तक पहुंच गये ।

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हरियश राय
73, मनोचा एपार्टमैंट, एफ ब्‍लाक,
विकासपुरी,नई दिल्ली – 110018
मो : 09873225505
hariyashrai@gmail.com

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