पहलवान दी हट्टी (दानी की कहानी )
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काफ़ी छोटी थीं दानी तब जब 'दिल्ली पब्लिक स्कूल' में अपने पिता के पास दिल्ली में पढ़तीं थीं |
तबकी एक मज़ेदार घटना बच्चों को सुनाईं उन्होंने |
छुटियों में कभी-कभी उनके चाचा के बच्चे भी दिल्ली घूमने आ जाते |
उन दिनों उनकी एक चचेरी बहिन व एक भाई गाँव से आए हुए थे |
दानी के पिता ने पीछे की जाफ़री जो उन दिनों लोधी कॉलोनी के सभी क्वार्टर्स में पीछे की ओर बनी रहती थी ,उस पर ख़सख़स के पर्दे लगवा दिए थे |
जिससे बच्चे भयंकर धूप और लू में चोरी-चुपके से बाहर लॉन में झूलों पर न जाएँ|
पड़ौस के बच्चे और दानी व उनके चचेरे भाई-बहन सब मिलकर खूब शरारत करते,लूडो ,कैरम खेले जाते |
कभी-कभी अम्मा जी कहानियाँ भी सुनाने वहाँ आ जातीं |
वो अध्यापिका थीं और उनके पास परीक्षा -पत्र जाँचने के लिए आते रहते थे ,अधिकतर वे व्यस्त ही रहतीं |
पापा का कठोर अनुशासन था लेकिन जब वो ऑफ़िस होते ,उनकी माँ बच्चों के प्रति कोमल हो जातीं |
उन दिनों घर में एक पूरे दिन का सेवक रहा करता था साधुराम ,जो घर के लगभग सभी काम करता था |
सर्दियों में रात में वह ज़ाफ़री में अपनी चारपाई बिछा लेता और गर्मियों में बाहर लॉन में जहाँ सभी सोते थे ,उसकी चारपाई भी गेट के पास रहती |
ज़ाफ़री से सटा हुआ एक छोटा सा स्टोरनुमा कमरा था ,उसका सामान उसमें ही रखा रहता | ज़ाफ़री से एक गलियारा सा भी जाता था जिसमें वाशरूम था |
इसको बाहर से आने वाले ड्राइवर अथवा साधुराम स्तेमाल करते थे | वह वाशरूम ही साधु भैया का कहलाता था |
इस मोटी लकड़ी की जाली वाली सभी क्वार्टरों की ज़ाफ़री को गहरे हरे रंग से पेंट किया गया था और उसका दरवाज़ा बाहर गली की ओर खुलता था |
दिन में जब साधु भैया घर के कामों में या बाज़ार के कामों में अथवा दानी की अम्मा जी के साथ रसोई में व्यस्त रहते,बच्चों को ज़ाफ़री 'एलाट' हो जाती |
दिन में काम करने के बाद अम्मा जी और पापा होते तो वे भी अपने कमरे में आराम करते और साधु भैया रसोईघर की ठंडी ज़मीन पर ही कुछ देर के लिए पलक झपक लेते |
रसोईघर में एक पैडस्टल फैन भी रखा हुआ था जिसे ज़रुरत पड़ने पर प्रयोग में लाया जाता |
दानी के पापा की साधु भैया को ख़ास ताक़ीद थी कि वो पूरे दिन बीच बीच में ख़सख़स के पर्दे गीले करते रहें जिससे बच्चों को कोई परेशानी न हो |
एक और ड्यूटी थी उनकी ,जब वो बाज़ार करने जाते तब दूध की बोतलें और टाट के टुकड़े में बर्फ़ लेकर आते | यह काम वो दिन गर्म होने से पहले ही कर लेते थे |
मार्केट पीछे ही था और वो आराम से थैले में दूध की बोतलें ,साग-भाजी ,फल-फलारी और जी भी ज़रुरत का सामान मंगवाया जाता ,ले आते |
उन दिनों फ्रिज तो होते नहीं थे ,टाट के टुकड़े में कसकर रखकर बर्फ़ साईकिल के कैरियर पर विराजमान होती जो अधिकतर टपकते हुए घर तक पहुंचती थी |
रसोईघर में एक एक्स्ट्रा छोटा सा प्लेटफॉर्म था जिस पर अल्युम्युनियम की सी धातु का एक बड़ा सा बर्फ़ रखने का बॉक्स था |
दूध की बोतले उस डिब्बे में बर्फ़ में रख दी जातीं | यह बर्फ़ अगले दिन तक चलता जिसका अधिक भाग पानी बन जाता.कुछेक बर्फ़ के टुकड़े ही रह जाते थे |
दानी के पापा की ख़ास ताक़ीद थी कि सीधा बर्फ़ का पानी न पीया जाय ,दानी के टॉन्सिल्स का ऑपरेशन पेंडिंग था |
साधु भैया काम खत्म करके लगभग ढाई -तीन बजे थोड़ी कमर सीधी करते ,
चार बजे ठंडे दूध की बोतलें बच्चों को और मालकिन को देने जाते |दानी के पिता ने साधु को भी ठंडा दूध पीने के लिए कहा हुआ था |
पता नहीं क्यों वो दूध पीने में संकोच करते तब दानी को अपनी अम्मा से कहकर साधु भैया को दूध दिलवाना होता जिसे वो रसोईघर में ही कोने में बैठकर पीते |
वो खाना भी वहीं कोने में बैठकर खाते ,किसीके सामने खाने से लजाते थे वो |लगभग पैतालीस वर्ष के साधु भैया को दानी के पापा किसी गाँव से लाए थे |
कुछ दिनों में ही सब कामों में चुस्त हो गए थे वो लेकिन दुनिया की मक्कारी नहीं सीखी थी उन्होंने | सीधे थे बहुत ,बस वही काम करते जो उन्हें कहा जाता |
उन्हें ज़ाफ़री में कई बार चक्कर काटने पड़ते ,ख़सख़स को ठंडा जो रखना पड़ता था |
कभी-कभी वो वहीं फर्श पर बैठकर बच्चों को खेलते हुए देखकर खुश होते |
पिछले सप्ताह से दानी साधु भैया से चार बॉटल दूध ज़्यादा मंगवा रही थीं | दानी ने कहा और साधु भैया लाने लगे | अम्मा तक भी बात न पहुंची |
सबको समय पर दूध मिल जाता ---बस ---
अगले महीने की पहली तारीख़ को पहलवान दी हट्टी के मालिक ने साधुराम को हर माह की तरह दूध और बर्फ़ का बिल भी पकड़ा दिया जिसे साधु भैया ने पापा के ऑफ़िस से आने के बाद उन्हें हर
माह की तरह दे दिया |
"इतना बड़ा बिल ! ये कैसे ? "दानी के पापा चौंके फिर बड़बड़ करने लगे |
"ये हर रोज़ की चार बॉटल्स एक्स्ट्रा कैसे लिखी हुई हैं ? आज तो मुझे ही जाना पड़ेगा इस पहलवान की हट्टी पर ---!"
दानी की माँ भी चौंकीं ,
"इतनी बॉटल्स एक्स्ट्रा ? ये कैसे साधुराम ?"
"अरे अम्मा जी ,मेरी चार सहेलियाँ नहीं आतीं क्या खेलने ? वो भी तो पीती हैं दूध !"
दानी के पिता ने अपने सिर का पसीना पोंछा ,उनका तो सारा बज़ट ही हिल गया था |
एक तो उस माह मेहमान बहुत आए थे ,गाँव से भाई के बच्चे आए हुए थे ---वो सब तो ठीक लेकिन ---एक मध्यम आय पाने वाले के लिए यह बहुत मुश्किल था i
वैसे उन दिनों दानी के पापा 'मिनिस्ट्री ऑफ़ कॉमर्स' में सैक्शन -ऑफ़िसर थे लेकिन ----
दानी के पापा उनकी अम्मा पर नाराज़ हुए ,सही भी था ,उन्हें कुछ पता ही नहीं था ---
"वो बच्चे तो चार बजे चले जाते थे अपने घर ---फिर --" अम्मा ने दानी से पूछा |
"अरे अम्मा जी ,दूध पीकर ही तो जाते थे ---" दानी बड़े आराम से बोलीं |
ऊपर से दानी के चाचा की बिटिया भी बोल पड़ीं ;
"ताऊ जी ! हमारे घर में तो जो कोई भी आता है ,उसे बड़े वाले गिलास में दूध दिया जाता है फिर ये तो छोटी छोटी सी बोतलें हैं |" सरला जीजी ने मुँह बिचकाया |
कोई उत्तर न था लेकिन अब दानी जी के क्रिया कलापों पर अम्मा नज़र रखने लगीं थीं |
डॉ.प्रणव भारती