कब मिलेगा आवास जगदीप सिंह मान दीप द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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कब मिलेगा आवास


पग-पग पर पीड़ा उठाते हुए घर पहुंँचने का बीड़ा उठाया है।अपने घरों की ओर चलने के लिए तैयार हैं। अपनी मंजिल को ध्यान में रखते हुए अथक अविश्रांत आगे बढ़ते जा रहे हैं। एक ही मंजिल है एक ही विचार है और एक ही संकल्प है, बस घर पहुंँचना है।
मैं फलवाले की दुकान पर खड़ा था। बहुत से मजदूर आज अपने छोटे-छोटे बच्चों को गोद में लेकर, अपनी पत्नियों का सानिध्य पाकर और अपने सिर पे समान की गठरी रखे मजबूत इरादों के साथ आगे बढ़ रहे थे। समस्याओं से बेखबर हजारों मील की दूरी तय करने के लिए आतुर लग रहे थे। आज भी इनके उत्साह को सैल्यूट करने का मन करता है।दृश्य बड़ा ही कारुणिक था,ये वही फौज है जो घंटों भर लाइन में लगकर सरकार चुनती है।मेरे मन में तरह-तरह के विचार आ रहे थे। मैं मन ही मन सोच रहा था।अरे! ईश्वर ये क्या हो रहा है? क्या ऐसे ही चलता रहेगा.....
अरे! कोरोना तू ही तो मजदूरों के जीवन में बेकारी लेकर आया है आज मजदूर मजबूर हो गया है। उनका दिन का चैन और रात की नींद उड़ गई है, उनकी रातें और अंँधियारी हो गई, आज उनका आशियाना छूट गया है और ये भूखे प्यासे अपने घरों की ओर निकल पड़े हैं।
मैं मेरे जीवन में पहली बार मजदूरों का इतना बड़ा पलायन देख रहा था। ये आपदकाल है या समय का बदलाव, कल क्या होगा? मेरे भी समझ में नहीं आया था।
बेचारे असहाय लोग तपती सड़कों पर,नंगे पांँव अविराम अथक दिन रात आगे बढ़ रहे हैं।
ये लोग गर्मी की छुट्टियों में अपने बच्चों को लेकर नहीं बल्कि-
अपनी बेबसी,अपनी लाचारी,अपने गमों की गठरी, मकान मालिकों की निष्ठुरता,व्यवस्था की विकलता,भविष्य की चिंता,कल की कामना और जीवन को बचा लेने की हसरतों का बोझ उठाकर अपने गांँव की ओर चल पड़े हैं।
कभी से सुनते आ रहे हैं जमाने से कि-
"व्यापार में बहुत जोखिम होता है"
आज यह बिल्कुल झूठ साबित हुआ है.....।
व्यापारी तो आज‌ भी जैसे-तैसे अपनी सेटिंग करके संकटकाल में भी सफल हो जाते हैं।और जोखिम-
जोखिम तो वो लोग उठा रहे हैं जिन्हें जीवन जी कर दिखाना है। बेबस मजदूर मजबूर हैं,अपनी साइकिल रिक्शे को ही घर बनाकर,घरबारी अपने घर की ओर चल पड़े हैं।चिलचिलाती धूप,तपती सड़कें,नंगे पांँव,बिलबिलाते बच्चे, हाथों में पानी की बोतलें लिए,घर पहुंँचने की लालसा को ध्यान में रखते हुए,जीवन पथ पर अपनी 11 नंबर की गाड़ी से मजबूरी की की सवारी कर रहे हैं।
इन्हें आभास है कि इस पथ पर कांँटे ही कांँटे हैं, पर क्या करें?
बेचारों के जीवन में लिखा ही प्रवास है। समय ने इन्हें बेसहारा बना दिया है, इन्हें घर के अलावा और कुछ आश्रय दिख ही नहीं रहा है,सब्र का बाँध टूट गया है। संकटकाल में चना चबा चबाकर पानी पी पीकर जैसे-तैसे दिन-रात अपनी मंजिल की ओर बढ़ रहे हैं।
कुछ लोग तो इनकी मासूमियत को नासमझी कह रहे हैं।
यह पलायन बड़ा ही कारुणिक है,भयावह है और विचारणीय भी।
बेबस मजदूर आज कैसे बेगाना हो गया,जीवन नैया कैसे भंँवर में हिचकोले खा रही है
कब मिलेगा आवास.....।
परेशानियों का पहाड़ भी इनकी मजबूत मनोरथ के आगे बौना साबित होता दिखाई दे रहा है एक बात तो समझ में जरूर आ गई है कि मजदूरों का ना कोई मजहब होता है और ना कोई जाति। उनका जीवन केवल कर्म पर टिका होता है।वो पूरी दुनिया का निर्माण करके, किनारे खड़ा होकर उसी दुनिया की तरफ देखकर ठगा सा महसूस करता है।
हाँ प्रश्न बड़ा भयावह है
क्या हो रहा है?
पर ये तय है मजबूर हैं पर मजबूत है
वाह! रे निर्माता तू आज भी नहीं हारा.....
मेहनतकश मजदूर का मजबूरी में आगे बढ़ना... इसका कुछ तो समाधान होना..... चाहिए।
पता नहीं जीवन कब पटरी पर लौटेगा?
पता नहीं ये आपदाएं कब तक खेलती रहेंगी खेल?
क्या ऐसे ही मजबूर मजदूर का निकलता रहेगा तेल?
क्या यही है जीवन सार?
कभी होता है दबदबा कभी होता है तार-तार

लेखक-जगदीप सिंह मान "दीप"
हिंदी शिक्षक,राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली