मंजिल जगदीप सिंह मान दीप द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

मंजिल

"इसे कहते हैं पास होना" वाले शब्दों ने मेरे कदम मंजिल की ओर बढ़वा दिए।
उस समय मैं जवाहर नवोदय विद्यालय वालपोई उत्तर गोवा,गोवा में हिंदी शिक्षक के रूप में कार्यरत था। एक दिन शाम को मैं और मेरा साथी अध्यापक एस. एन. सिंह सर कुछ ‌समान खरीदने के लिए वालपोई वगायत बाजार गए हुए थे। अचानक फोन की घंटी बजी। दोस्त के फोन से आ रही घंटी की आवाज सुनकर मुझे बड़ी खुशी हो रही थी। उस समय मेरे पास स्मार्टफोन नहीं था,नोकिया 1100 था। जिसकी काॅलर टुन भी मैंने नवोदया नमोस्तुते नवोदया नमोस्तुते लगा रखी थी। यह नई नई नौकरी का प्रभाव था। दोस्त के फोन से आ रही घंटी की आवाज सुनकर मुझे बड़ी खुशी हो रही थी। यह मेरे बचपन का अज़ीज़ मित्र सुरेश था। मेरे गाँव के तीन अच्छे मित्र हैं,इन तीनों के नाम सुरेश ही हैं।
मैंने फोन पिक किया,हैलो
फोन में आवाज आई
अरे भाई क्या कर रहा है ?
मैं सुरेश बोल रहा हूँ... मेरे अज़ीज़ मित्र की आवाज सुनकर मुझे बड़ी खुशी हो रही थी। मैंने कहा अरे भाईजान मैंने पहचान लिया है। सुनाओ क्या हाल हैं? तब ही उसने बात करते-करते खुशी का समाचार मुझे दिया। उसने कहा अरे भाई दिल्ली अध्यापक परीक्षा के प्रथम चरण का परिणाम घोषित हुआ है। पीजीटी केमिस्ट्री के लिए तीन सीटों पर नौ अभ्यर्थी पास किए हैं, मैं प्रथम चरण में पास हो गया हूंँ, "इसे कहते हैं पास होना"। मैंने कहा वाह! मान गए आपको सुरेश। मैं मन ही मन सोच रहा था सुरेश को ये नौकरी मिलनी ही चाहिए,ईश्वर करे दूसरे चरण का पेपर ठीक हो जाए।मित्र का परीक्षा परिणाम सुनकर मैं बहुत खुश हो रहा था। मैंने कहा भाई द्वितीय चरण की तैयारी करो। पर "इसे कहते हैं पास होना" वाले शब्द मुझे चुनौती भरे लगे। इन शब्दों ने मुझे अंदर तक हिला दिया। मैं मन ही मन दिल्ली को अपनी अगली मंजिल मानने लगा। सुरेश के ये शब्द मेरे लिए तंज नहीं थे बल्कि चुनौती थे और उत्प्रेरणा बने।व्यक्ति के जीवन में दो प्रकार के उत्प्रेरक होते हैं। एक वे जो सकारात्मक सोच लेकर आते हैं दूसरे वे जो नकारात्मक सोच पैदा करते हैं। हमें सकारात्मक सोच वाले उत्प्रेरक की ओर सदैव ही ध्यान देना चाहिए। वे हमारे भविष्य का मार्ग प्रशस्त करते हैं। मेरे मन में कोई संकीर्ण विचार नहीं आया। मैंने इतना जरूर कहा सुरेश भाई फिर कभी दिल्ली में अध्यापकों की भर्ती के फॉर्म निकलें तो हमें भी बताना। घर से बहुत दूर नौकरी कर रहे हैं। अब हम मजाक की बातें करने लग गए। गांँव के बारे में थोड़ा बहुत पूछने लगे। अक्सर जब दो मित्र आपस में बातें करते हैं तो गाँव की पुरानी ‌यादों का स्मरण हो ही जाता हैं।
समय का चक्र घूम ही रहा था संयोग से एक दिन मेरे साथी अध्यापक,दलबीर सिंह सकलानी सर कंप्यूटर लैब में कुछ काम कर रहे थे। मैं पास में ही बैठा था। सर कंप्यूटर पर उस महीने का रोजगार समाचार पढ़ने लगे।उन्होंने कहा 'मान' सर दिल्ली में अध्यापकों की भर्ती के फॉर्म निकले हैं पर फॉर्म भरने की अंतिम तारीख परसों ही है। मैंने कहा सकलानी सर ये फाॅर्म तो मैं जरूर भरुंगा। गोवा में उस समय बारिश का मौसम था। हल्की-हल्की बारिश हो रही थी। मैं और सकलानी सर बारिश में भीगते हुए वालपोई गये। वहां फॉर्म का प्रिंट करवाया और फार्म भर दिया तथा पोस्टल आर्डर लगाकर उसी दिन फार्म को डाक घर के लैटरबाॅक्स में भी डाल दिया। मेरे मन में कई दिन तक तो यह असमंजस रहा की फार्म समय पर पहुँचा होगा या नहीं। एक दिन मैं मेरे क्वार्टर पर बैठा था, मेरे पास सकलानी सर भी बैठे थे। सकलानी सर मुझे बराबर पढ़ने के लिए प्रेरित करते रहते थे।हम दोनों में गहरी दोस्ती थी। हमारा क्वार्टर भी पहली मंजिल पर आमने-सामने था। हम अक्सर साथ-साथ रहते थे।एक दिन सकलानी सर कहने लगे अरे 'मान' सर आपने दिल्ली अधीनस्थ सेवा चयन बोर्ड ‌में फार्म भरा था उसके लिए कुछ पढ़ाई वगैरा कर रहे हो क्या? या ये ही चलेगा जीवन में।मुझे मेरे दोस्त के वो चुनौती भरे शब्द पुनः याद आ गए। मैं पढ़ने लग गया। समय का पहिया घूम ही रहा था कि मेरा स्थानांतरण गोवा से गुजरात हो गया। मैं यहांँ आकर पूरी मेहनत से नियमित अध्ययन करने लगा। सपनों की जड़ों को परिश्रम रुपी नियमित अध्ययन के पसीने रुपी पवित्र जल से सींचने लगा। तब मेरे सपनों के पंखों को एक नई उड़ान मिल रही थी। जुनून में जान आने लग गई थी। मैं मेरी मंजिल को पाने के लिए श्रम की समिधा, धैर्य की धूप अध्ययन की आहुति देने लग गया था। मैं मेरे मन में कुछ बेहतर करने की सोच रहा था। इसी दौरान गृहस्थ जीवन और पारिवारिक समस्याओं ने अपना जलवा दिखाना शुरू कर दिया। घर में परेशानियाँ भी बहुत आई पर ईश्वर की कृपा से सबकुछ धीरे-धीरे सब ठीक होता चला गया। मैंने सोचा आशा की एक किरण पर दुनिया कायम है। आज सफ़ीना भले ही भंँवर में है कल तो साहिल पर आ ही जाएगी। वह पथ क्या? पथिक कुशलता क्या?जिस पथ में बिखरे शूल ना हो, नाविक की धैर्य परीक्षा क्या? जब धाराएं प्रतिकूल ना हो। दिनकर जी के ये शब्द मेरा हौसला बढ़ा रहे थे। मैंने पुनः पढ़ाई शुरू कर दी। मैंने सोचा चलता रहूंँगा पथ पर, तो चलने में माहिर बन जाऊंँगा या तो मंजिल मिल जाएगी या अच्छा मुसाफ़िर बन जाऊंँगा। मैंने महापुरुषों की ढ़ेर सारी जीवनियाँ पढ़ी थी, विपरीत परिस्थितियों में व्यक्ति का व्यक्तित्व निखर जाता है। सोना तप कर ही कुंदन बनता है।मैं पढ़ाई में जुट गया। परीक्षा की घड़ी आई मैं पेपर भी दे आया प्रथम चरण में पास भी हो गया। द्वितीय चरण की परीक्षा देने के लिए संयोग से मैं और सुरेश पेपर देने के लिए साथ ही दिल्ली गए थे। उसे विज्ञान विषय की परीक्षा देनी थी और मुझे हिंदी विषय की। पेपर देकर हम दोनों एक ही बस में बैठकर गांँव वापस आ रहे थे। बस में बैठे बैठे हमने परीक्षा पर चर्चा की। मैंने पूछा सुरेश भाई पेपर कैसा किया है?
सुरेश ने कहा मेरा पेपर तो अच्छा हुआ है। फिर सुरेश ने मुझसे पूछा आपका पेपर कैसा रहा? मैंने भी कहा पेपर तो मैंने भी अच्छा किया है। संभवतः ईमानदारी रही तो भाई काम बनेगा। हम बात करते करते गांँव पहुंँच गए। हमें बातों में पता ही नहीं चला कब गांँव आ गया।समय बीतता गया एक दिन रिजल्ट आया, जिसकी मुझे उम्मीद थी वही हुआ मैं द्वितीय चरण में पास हो गया। मुझे मेरी "मंजिल" मिल गई थी।मैंने नवोदय विद्यालय समिति से त्यागपत्र दे दिया। जिससे मुझे बहुत प्रेम था वह मेरी पहली सर्विस थी।मैंने मेरे मन में जो सपने संजो रखे थे वो पूरे हो गए थे, मैं अपने गांँव का दिल्ली में पहला शिक्षक लगकर स्वयं को गौरवान्वित महसूस कर रहा था।फिर मैंने एक दिन सुरेश से कहा,सुरेश भाई आप वाली वो बात मुझे आज भी याद है "इसे कहते हैं पास होना" आपको भी शायद याद होगी। इस बात को मैंने चुनौती के रूप में स्वीकार किया था। जिसने मुझे दिल्ली वाली मंजिल के लिए तैयार कर दिया था।
इरादे अच्छे और पक्के हो तो जिंदगी मंजिल तक जरूर पहुंँचाती है। हौसला आजमाई करना सबसे बड़ी इंसानियत है, हौसला पाकर डूबता हुआ व्यक्ति भी किनारे पर पहुंँच जाता है। आज भी मैं और मेरा मित्र,हम आपस में एक दूसरे के लिए प्रेरणा स्रोत हैं। व्यक्ति को जीवन में अच्छी बातें कहीं से, किसी भी माध्यम से मिलती हैं तो उन्हें सह्रदय स्वीकार कर लेना चाहिए। जब भी हम मजाक करते हैं तो मैं कहता हूँ अरे मित्र आपके एक फोन की घंटी ने मुझे देश की राजधानी में बसा दिया और हम हंँसने लग जाते हैं। मेरा मित्र सुरेश भी आज केंद्रीय विद्यालय में एक शिक्षक के रूप में कार्यरत है जिसकी मुझे बहुत खुशी है।

जगदीप सिंह मान "दीप"©
हिंदी शिक्षक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, भारत।