मैं जब बूढ़े बैल(भाई) को याद करता हूँ तो उसकी गाड़ी में बैठने का चाव,गाड़ी में बैठने के बाद मन में हवाई जहाज में बैठने जैसे भाव और वो कागज की नाव मुझे आज भी याद आतीं हैं।बचपन लौटकर नहींआएगा,जिसमें खुशियाँ अपार थी।
अरावली पर्वतश्रृंखला की तलहटी में बसा शेखावाटी अंचल का गांँव गौरीर मेरी जन्मभूमि है। जिससे मैं बेहद प्यार करता हूँ। जिसकी मिट्टी में धमाचौकड़ी करके मैं बड़ा हुआ हूँ।आज चाहे भले ही मैं देश की राजधानी में रहूँ लेकिन इस मिट्टी की सुगंध मुझे अनायास अपनी ओर खींच लेती है।
मैं आज जो कुछ भी हूँ। उसने मेरे दादा-दादी, माता-पिता के द्वारा दी गई बचपन की सीख का पुण्यफल हूँ। मेरे बचपन के दोस्तों का अपार स्नेह का प्रतिफल हूँ कि आज भी मैं अपने गांँव में जाए बगैर नहीं रहता हूँ।
मैं बचपन में मेरे दादाजी के साथ रहता था। मेरे दादा जी कहते थे मूल से प्यारा ब्याज होता है। दादा जी का मैं बहुत दुलारा था,आंँखों का तारा था।वो मुझे भोम सिंह बंजारा, सेठ और मोती कुत्ता, राजा भोज गंगू तेली, सत्यवान- सावित्री, कुछ राजकुमार और राजकुमारियों तथा अपने जीवन की कहानी भी मुझे सुनाते थे। मेरे गांँव के बसासत की कहानी मैंने बचपन में मेरे दादाजी से सुनी थी। मेरे दादाजी किसान थे। हमारे घर में दो बैल थे। एक बैल थोड़ा बूढ़ा हो गया था। हमारे बूढ़े बैल, जिसको मेरे दादाजी "भाई"कहकर पुकारते थे। मुझे आज भी उसके बारे में वो बात याद आ जाती हैं तो श्रृद्धा से मेरी आंँखों में आंँसू छलक जाते हैं। वह वास्तव में मेरे दादाजी का भाई ही था। उससे हमारे परिवार को बहुत प्रेरणा मिली है। जब वह बूढ़ा हो गया था तब मेरे दादा जी एक बैल और खरीद लाए थे। अब हमारे घर में तीन बैल हो गए थे। मेरे दादाजी ने कसम ले रखी थी के मैं मेरे भाई को कभी नहीं बेचूंगा। यह इस ठाण पर ही प्राण त्यागेगा। लेकिन जब साडू की खेती होती या नया अनाज बोया जाता एक हलाई भाई को जुआ में देकर निकाली जाती थी। मेरे दादा जी बोलते "भाई" सब तेरी ही देन है।वह बूढ़ा बैल पूरी ताकत से समर्पित होकर आगे बढ़ता। जवान नारों की जवानी भी उसके आगे फीकी पड़ जाती थी। वह जब तक जीवित रहा तब तक जुआ में बाएं तरफ जुतता था। बैल की जोड़ी में बाएं तरफ जुतने वाला बैल ज्यादा ताकतवर माना जाता है। भाई अपने आप को कभी बूढ़ा नहीं समझता था। मेरे दादाजी को भी इस बात का अह्सास था।मेरे दादाजी पीछे से आवाज देते, साटां हिलाते हैं,रास मारते तब भाई में पूरा जोश भर जाता था । उसका बोया हुआ अनाज सौ- सौ गुणा फला करता था। उसके पैर गिरते उसी खेत में अनाज की रास बढ़ जाती थी। वह इतना समझदार था कि मेरे दादाजी जो कहते अच्छे से सुनता और आदमी की तरह करके भी दिखाता था। हमारे गांँव की सीमा में पाँच जगह खेत हैं। कुआँ वाला खेत मठलाला के नाम से जाना जाता है।
हम छोटे बच्चे थे तब भाई ने अपनी गाड़ी में बैठा कर कई बार सवारी करवाई। आज भी मुझे बचपन का किस्सा याद आता है एक बार मुझे और मेरी बहन को गाड़ी में बैठाकर मेरे दादाजी ने कहा भाई टावरां न हौले-हौले कुआं पर ले जा। भाई गर्दन हिलाकर बता रहा था हाँ ठीक है,ठीक से लेकर जाऊंगा। ऐसा लग रहा था कि भाई ने जैसे मूक भाषा में दादा जी से बात कर ली थी। मेरे दादाजी भाई को यह सब समझा कर गांँव की ओर चल दिए । उनको गांँव में कुछ काम था। हमें अपनी गाड़ी का आनंद देते हुए भाई कुएं वाले सेर पर ले जा रहा था। थोड़ी दूर चलने के बाद सामने से दूसरी गाड़ी आ गई। इस रास्ते में एक गाड़ी निकलने की जगह थी। मैं कोई अच्छा गढ़वाला नहीं था। इस समस्या को देखकर हम दोनों भाई बहन रोने लगे।इब के होवगो। हमें डर लग रहा था कि अब हम कुएं पर नहीं पहुंँच पाएंगे।अप्रत्याशित तो तब हुआ जब भाई ने हमारे रोने की भाषा को पहचान लिया कि टाबर परेशान हैं। उसने पूरी ताकत से गाड़ी को अपने जुआ वाली दिशा में खींच कर ऊपर की ओर एक खेत में ले गया। हम दोनों भाई बहनों ने चैन की सांस ली। भाई ने दादा जी को दिए हुए वचन को निभाया। हम दोनों भाई बहन आपस में बात करने लगे कि अपणो बुढ़ळियो बळद तो भोत सयाणों सै।जब दूसरी गाड़ी चली गई तब भाई ने हमारी बैलगाड़ी को फिर से सेर में उतार लाया। हम कुएं पर पहुँच गए। कुएं पर मेरे परिवार के लोग लावणी कर रहे थे। हमने रास्ते वाली बात सबको बताई। शाम को घर पहुँचते ही मैंने मेरे दादा जी को भी रास्ते वाली बात बताई। मेरे दादाजी अपने भाई के किये काम पर बहुत खुश हो रहे थे। मैं बच्चा था ज्यादा नहीं समझ पा रहा था। मेरे दादाजी चारपाई से उठकर "भाई" के पास गए और उसकी पीठ पर हाथ फेर कर बोले भाई तू बहोत साणों सा।भाई का गर्व से सीना तन रहा था अपना वचन निभा कर फूले नहीं समा रहा था जैसे उसने कोई रण जीत लिया है। दादाजी से पीठ पर हाथ फिरवाकर वह आनंद की अनुभूति कर रहा था। दादाजी और भाई में अद्भुत प्रेम था। दृश्य देखने लायक था। जीवित रहा तब तक हमारे ठाण पर रहा। मेरा पूरा परिवार "भाई" से बहुत प्यार करता था। समय सबका आता है हमारी आंँखों के सामने ही हमारे भाई ने प्राण पसार दिए। हमारा पूरा परिवार उसके लिए बहुत रोया। मेरे दादाजी तो सिर पकड़- पकड़ कर रो रहे थे। आज मेरा भाई चला गया।मैं जब बड़ा हुआ तब पता चला कि मेरे दादाजी उसको भाई क्यों कहते थे।वह मर गया लेकिन हमारे घर में प्रेरणा की गाड़ी चलाकर अमर हो गया। जब कभी मैं बचपन को याद करता हूंँ तो भाई जरूर याद आता है और मैं उसके लिए यह शेर जरूर गाता हूँ-
उम्र थका नहीं सकती ठोकरें गिरा नहीं सकती,
अगर जीतने की जिद्द हो तो परिस्थितियां भी हरा नहीं सकती।
लेखक -जगदीप सिंह मान"दीप"
हिंदी शिक्षक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली।