आघात - 45 Dr kavita Tyagi द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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आघात - 45

आघात

डॉ. कविता त्यागी

45

पूजा सोच रही थी -

‘‘मैंने बेटों के प्रति अपने दायित्व का पूर्ण निर्वाह करते हुए इन्हें सुयोग्य नागरिक बना दिया है ! अब ये जैसा चाहें, अपने विचारों के अनुरुप जीवन जिएँ ! मुझे इनके किसी भी विषय में हस्तक्षेप की सीमा पार नहीं करनी चाहिए ! आज मैं आत्मनिर्भर हूँ ! मुझे अपने लिए किसी की आवश्यकता नहीं है ! न रणवीर की है, बच्चों की ! आज तक विवाह-विच्छेद न हो, इसके लिए प्रयास करने का कारण भी मेरा स्वंय का स्वार्थ नहीं था ! अपने बच्चों के हितार्थ ही तो मैंने ऐसा किया था ! परन्तु, आज प्रियांश ने अनजाने ही मुझे स्वतन्त्रता का एक नया एहसास कराया है ! जीवन को जीने की एक नयी दिशा प्रदान की है !’’

सामाजिक रूढ़ियो से वैचारिक-मुक्ति पाकर पूजा ने अपने जीवन के लिए विविध प्रकार की कल्पनाएँ कर डालीं और विविध योजनाएँ बना डालीं । जीवन में आज पहली बार उसने स्वयं को इतना भार-मुक्त अनुभव किया था । आज न किसी प्रकार की चिन्ता का भार था न किसी प्रकार की विवशता का भार था, न कोई कष्ट था।

संयोगवश, उसी दिन पूजा की भेंट अचानक दो ऐसे व्यक्तित्वों से हुई, जिन्होनें उसको इस विषय पर विचार करने के लिए प्रेरित किया कि उसे अपना शेष जीवन किस प्रकार व्यतीत करना चाहिए ? इनमें से प्रथम व्यक्तित्व अविनाश का था, जो पूजा की दृष्टि में एक सुलझा हुआ, प्रभावशाली और संभ्रान्त परिवार का सज्जन व्यक्ति था । लम्बे समय के पश्चात् आज पूजा से अचानक भेंट होने पर अविनाश ने उसके साथ पर्याप्त समय तक खुलकर बातचीत की थी ।

अविनाश ने अपनी वर्तमान स्थिति के विषय में बताते हुए अपने हृदय में वर्षों से दबाकर रखी गयी भवनाओं को आज पहली बार पूजा के समक्ष व्यक्त किया था । उसने पूजा को बताया कि वह उसको उस समय से प्रेम करता है, जब वे दोनों कॉलिज से आते हुए बस में पहली बार परस्पर मिले थे । आज से पहले वह अपना प्रेम कभी उसके समक्ष व्यक्त नहीं कर पाया था, किन्तु आज भी वह पूजा को उतना ही प्रेम करता है, जितना उस समय करता था । पूजा के यह पूछने पर कि इतने वर्षों से दफन अपने हृदय के प्रेम को व्यक्त करने की सामर्थ्य आज उसमें अचानक कैसे आ गयी ? उसने बताया-

‘‘पूजा, मैं चाहता था कि मेरा विवाह तुम्हारे साथ सम्पन्न हो जाए ! परन्तु, जब तक मैं अपने मनोभाव तुम तक या तुम्हारे घरवालों तक पहुँचाता, उससे पहले ही तुम और रणवीर परस्पर परिणय-सूत्र में बंध चुके थे और मैं तब हाथ मलने के अतिरिक्त कुछ न कर सका !’’

‘‘उसके पश्चात?’’

‘‘उसके पश्चात् मैं किसी अन्य के साथ वैवाहिक बधन में बंधना नहीं चाहता था । मेरे परिवार वाले मेरी इस बात का समर्थन करेंगे, इसमें मुझे सन्देह था, इसलिए इस विषय में मैने परिवार में किसी को कुछ नहीं बताया और उन्होंने एक कुलीन-सुन्दर लड़की के साथ मेरा विवाह सम्पन्न करा दिया ।’’

‘‘अविनाश ! अपने घर में सुन्दर, सुशिक्षित पत्नी होते हुए घर से बाहर किसी अन्य स्त्री के समक्ष प्रेम की दुहाई देते हुए तुम्हें जरा-सा भी संकोच नहीं हो रहा है ? मैं तुम्हें आज तक नेक और सज्जन व्यक्ति मानती थी, पर तुम भी रणवीर जैसे ही हो !’’ पूजा ने अविनाश की ओर घृणापद दृष्टि से देखते हुए क्रोधावेश में कहा ।

‘‘नहीं, पूजा ! तुम गलत समझ रही हो ! तुमने अभी मेरी पूरी बात नहीं सुनी है ! पूरी बात सुनकर तुम्हारी यह धरणा बदल जाएगी !’’

‘‘चलो, सुनाओ पूरी बात !’’

यह कहकर पूजा अविनाश की आपबीती सुनने के लिए तैयार हो गयी। पूजा का सकारात्मक दृष्टिकोण देखकर अविनाश ने एक लम्बी साँस ली और अपनी आत्मकथा सुनाने लगा -

‘‘मेरी पत्नी का नाम उर्वशी था । उसका सौन्दर्य इस धरती पर देवलोक की अप्सराओं की याद दिलाता था और उसका नाम उसकी सर्वांगिक सुन्दरता को सार्थक करता था । जैसा सुन्दर उसका तन था, वैसा ही निर्मल मन तथा वैसा ही मधुर व्यवहार था । उसको पत्नी के रुप में प्राप्त करके मैं प्रसन्न था । मुझे लगता था कि वह मेरे अन्तर्मन के उस खाली स्थान को भरने में सक्षम है, जो मेरे जीवन में तुम्हें खोकर आया था । परन्तु, नियति को यह स्वीकार नहीं था कि मेरा वह खालीपन भर सके !’’

‘‘अविनाश ! पहेलियाँ मत बुझाओं ! साफ-साफ बताओ, आगे क्या हुआ ?’’ पूजा ने जिज्ञासावश उतावली होकर कहा।

अविनाश अपने जीवन की मुख्य घटना के विषय में बताते-बताते अब गम्भीर मुद्रा ग्रहण कर चुका था । उसे देखकर प्रतीत होता था कि वह अपने अतीत में पूर्णतः खो चुका था । पूजा के प्रश्न को सुनकर वह अपने अतीत की स्मृतियों से बाहर आया और उसने एक शान्त दृष्टि पूजा पर डालते हुए पुनः कहना आरम्भ कर दिया -

‘‘विवाह के चार माह पश्चात् ही उर्वशी ने मेरा साथ छोड़ दिया ! वह स्वर्ग सिधर गयी ! वह मेरे लिए बनी ही नहीं थी ! मैने उसका बहुत इलाज कराया ! उसके लिऐ अच्छे डॉक्टर और आधुनिकतम चिकित्सा पद्धति उपलब्ध कराये, परन्तु वह बच नहीं सकी ! ईश्वर ने उसे इस धरती पर मेरे लिए भेजा ही नहीं था !’’

‘‘क्या हुआ था उर्वशी को ?’’

‘‘उर्वशी को बचपन से ही हृदय-सम्बन्धी बीमारी थी । परन्तु उस समय उसका इलाज नहीं कराया गया । समय बीतने के साथ-साथ उसकी बीमारी भी बढ़ती गयी । उर्वशी की युवावस्था आते-आते उसकी बीमारी इतनी बढ़ गयी थी कि बचपन में थोड़ी-सी सावधनी और इलाज से ठीक हो सकने वाली बीमारी ने अब असाध्य रोग का रूप धारण कर लिया था । डॉक्टर से यह ज्ञात होने पर कि उर्वशी का रोग अब असाध्य बन चुका है और वह अब कुछ ही समय की मेहमान है, उसके माता-पिता ने उसका विवाह करने का निश्चय किया था, ताकि वह कुँवारी मृत्यु को प्राप्त न हो जाए !’’

‘‘तुम्हें विवाह से पहले उसकी बीमारी के विषय में सब कुछ ज्ञात था ?’’

‘‘नहीं ! मुझे या मेरे परिवार के किसी सदस्य को कुछ भी ज्ञात नहीं था ! उर्वशी के माता-पिता ने मेरे साथ उसका विवाह धोखे से किया था !’’

‘‘उर्वशी का तुम्हें बीच-धारा में अकेले छोड़ जाना, वास्तव में दुख की बात है ! उर्वशी के देहान्त के पश्चात्.....?’’ पूजा ने अविनाश के जीवन से सम्बन्धित आगे की घटनाओं के प्रति जिज्ञासा व्यक्त करते हुए कहा ।

‘‘उर्वशी के जाने के पश्चात् मेरे चित्त में एक प्रकार का विराग-सा उत्पन्न हो गया था ! परिवार वाले चाहते थे कि मैं पुनर्विवाह कर लूँ ! मैं इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं था ! उर्वशी के देहान्त के एक वर्ष पश्चात् ही एक सडक दुर्घटना में मेरी बड़ी बहन की मृत्यु हो गयी। उस समय उनकी एक आठ वर्ष की बेटी तथा एक पाँच वर्ष का बैटा - दो बच्चे थे । दीदी अपने दोनों बच्चों की खातिर आजीवन अकेले, दूसरा विवाह किये बिना अपना जीवन जीना चाहती थी । परिवार वाले भी उनके निर्णय से सहमत थे । उस समय मैंने अनुभव किया कि दीदी को एक अवलम्ब की अति आवश्यकता है । ऐसी स्थिति में मैंने निश्चय किया कि ‘मैं’ अपनी बड़ी बहन का सहारा बनूँगा ! तब से अब तक मैं अपनी दीदी के साथ रहता हूँ और उन्हें तथा उनके बच्चों को हर प्रकार की सुरक्षा देते हुए इस बात का एहसास कराता हूँ कि वे किसी भी प्रकार असुरक्षित या निरावलम्ब नहीं हैं !’’

अविनाश के जीवन की कथा सुनकर पूजा की संवेदना जाग्रत हो उठी । वह उसकी मानवता, परिवार के प्रति समर्पण और प्रेम-भाव का अनुभव करके उसके प्रति मन-ही-मन नतमस्तक हो रही थी । उसे अचानक ही वह समय स्मरण हो आया था, जब पहली बार अविनाश ने निस्वार्थ-भाव से बस में उसकी सहायता की थी तथा कालान्तर में दूसरी बार, जब वह रणवीर से मतभेद होने पर सुनसान सड़क पर अकेली स्वयं को असुरक्षित अनुभव कर रही थी, तब अविनाश ने उसको सुरक्षित उसके पिता के घर पर पहुँचाया था ।

दोनों घटनाओं का स्मरण करके पूजा उस संवाद पर विचार करने लगी, जिसमें अविनाश ने कुछ ही मिनट पूर्व स्वीकार किया था कि वह आज भी पूजा को प्रेम करता है । उसके प्रेम-प्रस्ताव का अध्ययन विश्लेषण करके पूजा ने यह निष्कर्ष निकाला कि आज भी अविनाश अपने जीवन-साथी के रूप में उसको स्वीकार करने के लिए तत्पर है ।

क्या वह स्वयं भी ऐसा ही चाहती है ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिए पूजा स्वयं में ही उलझ गयी । अपने ही प्रश्न के उत्तर में उलझी हुई पूजा ने अविनाश के प्रेम-प्रस्ताव के प्रति उस समय अपनी ओर से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त तो नहीं की, परन्तु मैत्री-भाव से उसे अपने घर आने के लिए आमन्त्रित किया और उस समय विदा लेकर भविष्य में शीघ्र ही मिलने का मन ही मन में निश्चय किया । पूजा ने जाते-जाते अपने घर का पता तथा सम्पर्क नम्बर अविनाश को देकर उसका सम्पर्क नम्बर ले लिया और शीघ्र ही पुनः मिलने की आशा व्यक्त करके वहाँ से चल दी ।

अविनाश से बात करने के पश्चात् पूजा के हृदय में एक विशेष प्रकार का उत्साह भर गया था । उससे विदा होने पर भी वह निरन्तर उसी के विषय में सोचती रही थी । जिस कार्य के लिए वह अपने घर से निकली थी, उसके विषय में तो जैसे वह भूल ही गयी थी । इसलिए अब वह अपने गन्तव्य-स्थान की ओर यन्त्रवत् बढ़ती जा रही थी ।

अविनाश से सम्बन्धित विचारों की दुनिया में खोई हुई तथा उत्साह से भरी हुई पूजा अपने गन्तव्य-स्थान तक पहुँच भी नहीं पायी थी, संयोगवश पूजा की अप्रत्याशित भेंट एक और महान व्यक्तित्व से हो गयी । यह महान व्यक्तित्व एक ऐसी समाज-सेविका थी, जो राष्ट्रीय स्तर की अनेक स्वयं-सेवी संस्थाओं से जुड़कर निर्बलों की सेवा-सहायता करती रही थी । अपने सेवा परायण-स्वभाव के विषय में चर्चा करते हुए उसने पूजा को बताया कि वह राजकीय महाविद्यालय के प्राचार्य पद से सेवा निवृत्ति के पश्चात अपने पति, जोकि विद्युत-विभाग में अवर-अभियन्ता के पद से सेवानिवृत्त है, के सहयोग से एक स्वंयसेवी संस्था के माध्यम से एक वृद्धाश्रम तथा एक अनाथाश्रम संचालित कर रही है ।

समाज-सेविका की बातें सुनकर पूजा की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी । अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए उसने उनसे अनेक प्रश्न किये । जिज्ञासा शान्त होने पर पूजा का हृदय भी समाज-सेवा के पवित्र-निष्काम कृत्य की ओर झुकने लगा । उसने उसी समय समाज-सेविका के समक्ष अपनी इच्छा व्यक्त करते हुए कहा कि वह भी उस संस्था से जुड़कर समाज-सेवा करना चाहती है ।

दूसरी ओर, पूजा का हृदय अविनाश की और भी आकृष्ट हो रहा था। कुछ समय तक वह अनिश्चय के झूले में झूलती रही थी । उसको समझ में नहीं आ रहा था कि कौन-सा जीवन उसके लिए ग्राह्य है ? अपने सुख-स्वार्थ का या समाज-सेवा का ?

कुछ ही समय में उस समाज-सेविका की प्रेरणा से पूजा का अन्तर्मन अत्यधिक विस्तार पा चुका था । अब से थोड़ी देर पहले अविनाश के साथ अपने शेष-जीवन को जीने के प्रश्न पर उलझी हुई पूजा का नारी हृदय अब निर्बल लोगों के कष्टों को दूर करने के लिए उद्वेलित होने लगा था । पूजा के हृदयगत भावों को देखकर वह समाज सेविका इतनी प्रभावित हुई थी कि उसने उसी समय पूजा को अपने आश्रम पर आने तथा अपनी स्वयं सेवी-संस्था से जुड़ने के लिए आमन्त्रित कर दिया । पूजा ने उसका आमन्त्रण सहज स्वीकार कर लिया और यथाशीघ्र उनके आश्रम में आने का वचन देकर अपने गन्तव्य स्थान की ओर चल पड़ी ।

अब पूजा के अन्तस् में एक अपूर्व शान्ति थी, मानो उसकी सभी इच्छाएँ तृप्त हो चुकी थी, कोई भी इच्छा शेष नहीं रह गयी थी। अविनाश से मिलने और विदा लेने के पश्चात् वह जिस प्रश्न में उलझी हुई थी, उसका उत्तर भी उसको स्वतः ही मिल गया था कि अब वह अपने लिए नहीं जिएगी, बल्कि समाज में रहने वाले उन अनेकानेक प्राणियों के कष्ट-निवारणार्थ अपना जीवन समर्पित कर देगी, जिन्हें उसकी आवश्यकता है !

दो दिन पश्चात् कोर्ट में पूजा की तारीख थी । वह निर्धरित समय पर निश्चित और स्पष्ट विचारों के साथ कोर्ट में उपस्थित हो गयी । उस दिन से पहले उसके विचारों में इतनी स्पष्टता कभी नहीं आ पायी थी । इसी स्पष्टता के कारण उस दिन वह अपने अन्दर एक प्रकार की अतिरिक्त ऊर्जा का अनुभव कर रही थी । चूँकि पूजा दो दिन पूर्व ही अपने जीवन को एक नयी दिशा प्रदान कर चुकी थी, इसलिए वह उस दिन कोर्ट में भी एक नयी सोच के साथ उपस्थित हुई थी । इसके विपरीत पूजा के जीवन की नयी दिशा और नयी सोच से अनभिज्ञ रणवीर उस दिन भी अपनी छद्म प्रकृति के अनुरूप विवाह-विच्छेद के लिए अड़ा हुआ था ।

रणवीर के विचारों और व्यवहारों के विषय में सोचकर कुछ क्षण तक पूजा शान्त, गम्भीर मुद्रा में खड़ी रही । वह सोच रही थी -

‘‘रणवीर का उद्देश्य मुझको पीड़ा देना है, किन्तु मैनें तो दूसरों के कष्टों को यथासम्भव दूर करने के लिए, उनकी सेवा तथा सहयोग करने का संकल्प लिया है ! क्यों न मैं अपने संकल्प का प्रारम्भ अभी से कर दूँ ? यदि रणवीर विवाह-विच्छेद चाहता है, तो मुझे उसकी इच्छा के विरुद्ध उसको बन्धन में बांधकर रखने के स्थान पर उसको मुक्त कर देना चाहिए ! वैसे भी, मैं विवाह-विच्छेद का विरोध केवल प्रियांश और सुधांशु के हितार्थ कर रही थी । अब, जबकि उनके वर्तमान और भविष्य पर मेरे विवाह-विच्छेद का कुछ भी विशेष नकारात्मक प्रभाव नहीं पडेगा, तब मेरे विरोध का कोई औचित्य नहीं रह गया है ! प्रत्येक व्यक्ति को अपने भावों और विचारों के अनुसार अपना जीवन जीने का अधिकार है, इसलिए रणवीर को भी यह अधिकार मिलना चाहिए ! वह जिसके साथ रहकर अपना जीवन व्यतीत करना चाहता है और जैसे जीना चाहता है, जिए ! मेरे जीवन की दिशा तो अब रणवीर से नितान्त भिन्न है !’’

इस प्रकार सोच-विचार करके पूजा ने अपना संकल्प एक बार पुनः दोहराया -

‘‘मुझे अपना विस्तार करना है ! अपने बेटों को सुयोग्य और संस्कारवान व्यक्ति बनाकर मैने उनके प्रति निष्ठापूर्वक अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है ! अब मुझे अपने समाज-सेवा के व्रत को पूर्ण करने हेतु सभी प्रकार की संकीर्णताओं से ऊपर उठना चाहिए ! यही उचित समय है, जब मुझे अपने व्रत-संकल्प की दिशा में पहला कदम बढ़ा देना चाहिए !’’

बहस चल रही थी और पूजा शान्त-गम्भीर मुद्रा में विचार-मग्न खड़ी थी । न्यायाधीश ने पुनः पूजा से उसका मत व्यक्त करने का आग्रह किया था । न्यायाधीश द्वारा पूछा गया प्रथम प्रश्न वह सुन ही नहीं पायी थी, इसलिए दूसरे प्रश्न को आधा-अधूरा सुनकर वह हड़बडा कर बोल उठी -

‘‘जज साहब, मैं रणवीर को तलाक देने के लिए तैयार हूँ ! मैं इन्हें किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं देना चाहती हूँ, न ही मेरी कोई शर्त है ! मैं आज ही, अभी से इन्हें अपने वैवाहिक-बन्धन से और उस बन्धन के सभी दायित्वों से मुक्त करती हूँ !’’

‘‘आप इस बयान को किसी प्रकार के भय अथवा दवाब में आकर तो नहीं दे रही हैं ?’’ न्यायाधधीश ने पूजा से पूछा ।

‘‘नहीं सर, यह बयान मैंने किसी प्रकार के दबाव के बिना अपनी इच्छा से और पूरे होश-हवास में दिया है ।’’

पूजा की आत्मविश्वास से परिपूर्ण मुद्रा को देखकर तथा उसके द्वारा दिया गया सपाट बयान सुनकर रणवीर के पैरों के नीचे से जमीन खिसकने लगी । उसको समझ में नहीं आ रहा था कि आज तक अपनी यथाशक्ति विवाह-विच्छेद का विरोध करती रही पूजा आज अचानक इसके लिए सहमत कैसे हो गयी ? वह सोचने लगा -

‘‘क्या वास्तव में पूजा ने मुझे वैवाहिक-बन्धन से और उससे सम्बन्धित दायित्वों से मुक्त करने का निश्चय इसलिए किया है कि वह मुझे कोई कष्ट नहीं देना चाहती है ? क्या वह वास्तव में यही चाहती है कि मै उसको बन्धनमुक्त करके स्वंय अपनी इच्छानुसार जीवन व्यतीत करुँ ? यदि यह सच है कि पूजा मुझे बन्धन-मुक्त करके सुख का अनुभव कर रही है, तो अवश्य ही इसके पीछे कोई ठोस कारण है ! जो विवाह-विच्छेद की चेतावनी देते ही भय से काँप उठती थी, वह पूजा आज इतनी सहजता से कैसे सहमत हो सकती है ?’’

कुछ क्षणों तक रणवीर का मस्तिष्क इन्हीं तर्को-वितर्को में फँसा रहा । तत्पश्चात् उसने न्यायाधीश से शान्त और विनम्र मुद्रा में निवेदन किया -

जज साहब आज मेरी पत्नी के व्यवहार में बड़ा परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है, इसलिए संभव है कि हमारा वैवाहिक सम्बन्ध पुनर्जीवित हो पाए ! जिस प्रकार धूप में रहकर व्यक्ति को छाँव के महत्त्व का अनुभव हो जाता है, उसी प्रकार मेरी पत्नी को भी संभवतः समय की विषमता ने उसकी व्यवहारिक गलतियों और पति के महत्त्व का अनुभव करा दिया है ! शायद धीर-धीरैे मेरी पत्नी का हृदय परिवर्तन हो रहा है, इसलिए अपना निर्णय सुनाने में शीघ्रता न करें ! उसके लिए अगली तिथि निर्धरित कर दें !"

न्यायाधीश ने रणवीर का निवेदन स्वीकार कर लिया और अपना निर्णय सुरक्षित रखते हुए कहा कि न्यायालय का उद्देश्य किसी भी दम्पति को एक-दूसरे से अलग करना नहीं है । उसकी प्राथमिकता पति-पत्नी दोनों को समझाकर परस्पर साथ रहने के लिए प्रेरित करना है ।

डॉ. कविता त्यागी

tyagi.kavita1972@gmail.com