रँगरेज़ा के रंगों की थाप कल्पना मनोरमा द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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रँगरेज़ा के रंगों की थाप

घर में जब से स्वच्छंद विचार धारा वाली बहू ब्याहकर आई थी तब से घर की रंगत ऐसी बदली कि अपने भी अपनों को पहचानने से इनकार करने लगे थे |

हर छोटी-बड़ी वस्तु में स्वयं को नया बनाने की होड़ पैदा हो गयी थी | पुरखों के हाथ की चीजों को या तो एंटीक बना कर घर के कोने में सजा दिया गया था या स्टोर-रूम के अँधेरे को सौंप दिया गया था |

सदरद्वार के पाँवदान से लेकर शयनकक्ष के दीये तक सभी अपनी नई मालकिन की ख़िदमत में लगकर मौज मना रहे थे। ये देखते हुए सास कभी डरते-डराते अपने लाडले बेटे से शिकायत करने का मन बनाती तो वह अतिव्यस्त होने का राग सुनाकर माँ को ही शांत करा देता।
निष्कंटक राज्य का सुख परलोकगामी सास की बहू इतना नहीं मनाती... जितना ज़िंदा-लाचार सास की जमी-जमाई गृहस्थी में अपने मन के कँगूरे काढने वाली बहू मनाती है |

इस बहू ने भी घर की हर छोटी-बड़ी परम्पराओं और चाबियों पर अपना अधिपत्य जमाकर अपनी पाज़ेब की झंकार में सबको झंकृत करने का मन बना लिया था ।

अब हाल ये था कि सास कुछ भी कहने के लिए अपना मुँह खोलती तो बहू आँखों ही आँखों में कुछ ऐसा कह देती की सास सन्न रह जाती |
कहने का मतलब नई दलीलों और न्याय-नीतियों के साथ बहूरानी ने सास की वसीयत उनके हाथों के नीचे से अपने नाम करवाकर उन्हें गैल की गुट्टी बना दिया था।

माता-पिता के उच्च विचारों से सजे मनबढ़ बच्चों ने भी अपनी दादी और बुआ को पाँव पड़ा कंकड़ ही समझ लिया था । शायद इसीलिए वे बड़ों को झुकर न अभिवादन करते और वेद-मंत्रों को अपनी जुबान को छूने देते । दादी के जीवन की धज्जियाँ उड़ना शुरू कर दिया था |
पहनावा-ओढ़ावा ऐसा कि दादी तौबा कर अपनी आँखें मींच लेती। न खाना खाने का समय निश्चित होता और न ही स्थान।

बुआ पवित्रता को तो उसकी माँ के सामने ही सिरे से भुला दिया गया था।
अपनी बनी-बनाई साख़ मिट्टी में मिलते देख सास ने अपनी क्वारी बेटी के साथ इच्छामृत्यु को याद करना शुरू कर दिया था ।
फिर एक दिन अचानक सूरज उन दोनों के मनपसंद रंगों से उनका घर-आँगन रंगने लगा । ऐसी आशा तो उन्होंने कभी की ही नहीं थी सो रंगरेजा की कूँची की थाप माँ-बेटी को सुकून से जब भरने लगी तो उनके मन की इन्द्रधनुषी आभा में घर के सारे लोग एक साथ बैठने-उठने लगे | उनका खाना-पीना ,वाद-व्यवहार, परिधान सब बदलने लगे | सड़कों पर घूमते अधनंगे दिन-रात ने भी अपने को ढंकना शुरू कर दिया ।

ये देखकर बेटा विकास कोमा में चला गया तो बहूरानी सभ्यता , असहनीय पीड़ा से भर कर कराह उठी | चीख़-चीख़कर उसने अपने बच्चों को पुराना ढर्रा न छोड़ने के लिए खूब कहा लेकिन आदमी भी बड़ी चालू चीज है, वह उसी का साथ देता है जिसके साथ उसका अहम ज़िंदा रह सके।

आज सभ्यता की कोख़ से जन्में बच्चे अपनी ”दादी संस्कृति” और “बुआ पवित्रता” के साथ अपनी सगी माँ सभ्यता के आँगन में धूप-दीप-लोभान सुलगा कर
पिता विकास के साथ उसकी को धुँआ देने में जुटे दिख रहे थे।

कल्पना मनोरमा