सदा सुहागिन रहो ! कल्पना मनोरमा द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सदा सुहागिन रहो !



बेटी की शादी के बाद कुलदेवी की पूजा करवाने संजना भारत आई थी । अपने लोगों से चारों ओर खुद को घिरा पाकर उसका मन लाल ऊँन के गोले-सा लुढ़का जा रहा था । चाबियों का गुच्छा निकाल उसने जल्दी से दरवाज़ा खोला तो देखा चारों ओर मकड़ियों के जाले लटक रहे थे । सबसे पहले संजना ने खिड़कियों के पर्दे खोले और ड्राइंगरूम में लगी फैमिली-फ़ोटोग्राफ़ साफ़ करने के लिए बेटी से कहा। सुहानी ने इधर-उधर डस्टर ढूंढा जब नहीं मिला तो वह रूमाल से ही उसे पोंछने लगी ।
”सम्हाल कर सुहानी, फ्रेम का एक कोना टूटा है । तेरे भाई सुखार्थ ने गेंद खेलते हुए इसे गिरा दिया था। ”संजना ने जाले उतरते हुए कहा |
“माँ, यहाँ आकर देखो न! जैसे ये तस्वीर चमक उठी है वैसे ही पापा का घर भी उनका गुणगान करता हुआ-सा लग रहा है ।” बेटी ने चारों ओर अपने घर को निहारते हुए कहा ।
“सुहानी, ये घर नहीं, तेरे पापा के मन का मोती है । नजर मत लगाना...।”गलबहियाँ डालते हुए संजना ने अपनी बेटी को दुलराया ।
“क्या मतलब माँ !” बेटी ने उत्सुकता से पूछा ।
“तेरे पापा का कहना है कि घर छोटा हो या बड़ा, गरीब का हो या अमीर का घरवाले को अपना घर वैसे ही लगता है जैसे सच्ची सीपी को अपना मोती ।"

“माय ग्रेट डैडी ।” बोलते हुए उसका मन अपने पिता के लिए गर्व से भर गया।
माँ-बेटी अभी बातें कर ही रही थीं कि मन्दिर जाने के लिए साहिल का कुनबा जुट आया । चाची-ताई सगुन गाने लगीं और भाभियाँ हँसी-मज़ाक में ऐसी जुटीं कि मंदिर का लंबा रास्ता पता न चला । जब विधि-विधान से पूजा संपन्न हुई तो चाची-ताई ने सुहानी को मुँह भर-भरकर “दूधो नहाओ, पूतो फलो” का आशीर्वाद देने लगीं । संजना ने अपना आँचल फैलाकर उसे समेटा और सुहानी के सिर पर छोड़ दिया । ये देख हँसते-हँसाते सभी गाड़ी की ओर लौट पड़े ।
लेकिन संजना ने सुहानी को फिर आवाज़ देते हुए कहा, “सुहानी, ज़रा यहाँ भी मत्था टेक ले बेटी, उसके बाद घर चलते हैं ।"
“ये तो नीले फूल वाली घास ….“आई मीन टु से” बेल है और मैं इसके आगे मत्था टेक लूँ ?” माँ, कभी-कभी आपकी आस्था मुझे स्ट्रेंज लगती है ।"
“तूने सच कहा बेटा, वैसे तो ये आम बेलों की तरह से ही एक साधारण बेल है, किन्तु मेरे जीवन में इसका महत्व, तेरी नानी से कम नहीं । मुझे आज भी याद है, अपनी पहली विदाई का वो दिन, जब माँ ने विष्णुकांता को मेरे हाथों में रक्खा था । उनकी इस देनी को कोई भी नहीं समझ पाया था, लेकिन माँ की तरह ही इसने लहराकर मेरा माथा चूम लिया था तब सबको लगा था मानो कृष्ण ने ही मुझे सुहाग-वरदान दिया है।”
“देट इज टू गुड माँ ! फिर इतनी महत्वपूर्ण चीज को आप ने यूँ ही लावारिश छोड़ दिया । क्यों माँ ?”बेटी ने ध्यान से माँ को देखते हुए कहा ।

“क्या-क्या ले जाती दूसरे देश कहते-कहते संजना अपने ख्यालों में खोती चली गयी । उसे वे दिन याद आने लगे जब सुखार्थ हमेशा के लिए उसे लेने घर आया था । संजना ने बेटे को देखा तो भाव विभोर हो उससे लिपट गई । कुशल पूछ जल पान करते हुए अपने जीवन के वे संघर्ष याद आने लगे जिनको स्वयं झेला था लेकिन उनकी छाया कभी अपने बच्चों पर नहीं पड़ने दी थी ।
बेटा-बेटी ने भी अपने माँ -पापा की मेहनत का खूब ख्याल किया था तभी तो इतने कम समय में पराये देश में अपना परचम लहरा सके थे । जिसका संतोष सिरोही दम्पत्ति के चेहरे पर साफ़-साफ़ देखा जा सकता था । ऱोज दोनों देशों के समय का मिलान कर भाई माँ-पापा के साथ सुहानी से बातें करता । कुल मिलाकर सब कुछ बहुत अच्छा चल रहा था लेकिन एक दिन सुखार्थ ने वापस जाने की तारीख़ निश्चित की तो संजना का मन कसैला हो गया।
“साहिल आप इतने शांत कैसे रह सकते हो ? कुछ तो समझाओ उसे ।वो तो अभी बच्चा है लेकिन आप तो सब जानते हो न!" संजना ने पति से शिकायत करते हुए कहा ।

“ठीक तो है, जब बच्चे चाहते हैं कि हम उनके साथ रहें, तो हम उनके साथ जरुर जायेंगे । चलो, इस बदलाव का भी हँस कर स्वागत करते हैं ।”
कहते हुए साहिल ने बताया कि आज के युवा जो अकेले रहने में ही सुख मनाने वाले समय में भी यदि उसके बच्चे उसे लेने आये हैं तो जरूर ख़ुदा का रहम है ।

“साहिल आप इतने आराम से इस घर को छोड़ने की बात कर भी कैसे सकते हो ?आपको पता है, इसे बनवाने में हमारे जीवन के कितने दिन-रात बिना सोये लगे हैं ।” बिना कारण या सकारण….संजना के गालों पर कुछ आँसू लुढक आये थे।
“कोई बात नहीं संजू! बहुत छोटी-सी उम्र से मैंने अपने निर्णय स्वयं लिए हैं, शायद ही उनमें कोई दगाबाज निकला हो, ये भी नहीं निकलेगा ।” साहिल ने गर्दन सीधी करते हुए कॉलर ठीक किया ।

“वो सब तो ठीक है साहिल लेकिन घर के सामान का क्या करेंगे ?”संजना ने भी मन मसोसकर अपनी सहमति जताई थी ।
“हूँ, ये बात तो उचित है । उन चीजों को हटाना ही पड़ेगा जो हमारे बिना ख़राब हो सकती हैं ।"
“क्या विष्णुकांता को भी..?”
“हाँ भई, इसे पानी देने, कौन आयेगा ऱोज लंदन से !”कहते हुए साहिल खिलखिलाकर हँस पड़ा।
“साहिल, विष्णुकांता को मैं किसी के साथ साझा नहीं करना चाहती।"
थोड़ी देर के लिए दोनों मौन में चले गये | खिड़कियों के पर्दों से उलझती हवा मौसम की चुगली कर रही थी लेकिन संजना के दुख का ठिकाना न था इसलिए वह उसी में डूबी हुई बोली।
“साहिल बोलो न !”
“बोला तो….हम इसे कुलदेवी के मन्दिर में रोप आएँगे।नदी के किनारे पर अपने आप नमी पाकर ये पुन: जी उठेगी ।”

“हाँ साहिल हाँ , ये ख्याल मुझे क्यों नहीं आया ।”
“हम दोनों के बीच क्या अंतर , संजू ।”
संजना के चेहरे पर पड़ी लट को साहिल ने शरारत से फूँक कर उड़ा दिया ।
"आप भी ... ।” संजना अपने ख़्यालों में बड़बड़ा उठी तो पास बैठी जेठानी ने उसका कंधा हिलाया। हम…..क्या कह रहे थे जीजी ?” संजना डर गई थी।

“माँ आप कहीं खो गयी थीं और बड़बड़ा भी रही थीं ।” सुहानी ने पानी की बोतल उसकी ओर बढ़ते हुए कहा।

“तूने ही तो बेल के बारे पूछा था….? वही तो बता रही हूँ कि इसका फैलाव गाड़ी भर हो गया था इसलिए तेरे पापा ने इसे यहीं छोड़ना बेहतर समझा ।”

भावुक होकर अपनी सुध-बुध खोते सुहानी ने अपनी माँ को कई बार देखा था इसलिए उसने बिना देर किये माँ को गले से लगा लिया, और उसका ध्यान भटकाने के लिए बोल पड़ी…“आज मुझे आपके हाथ की कढ़ी-चावल खाना है। “बोलो माँ बनाओगी?”
संजना ने अपने काले-सफ़ेद बालों का जूड़ा लपेटते हुए हाँ में सिर हिलाया।
बूढ़ी संजना रसोई में खाना पकाते हुए अपने जीवन के अनेक किस्सों में झूलती जा रही थी। साहिल से जुड़ा एक किस्सा तो इतना वर्बोस निकला कि उसको कढ़ी में पड़ी कड़छी बेटी को पकड़ानी ही पड़ी और ख़ुद को बेडरूम की ओर ले जाना पड़ा।

“माँ, दीवारों से कान लगाकर आप क्या सुन रही हो?" बेडरूम में झाँकते हुए सुहानी हैरानी भरे स्वर में कहा।

“साहिल की बातों में कितनी सच्चाई है, समझने की कोशिश कर रही हूँ ।"
“मम्मा, मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा है।”
“ तू तब आई ही कहाँ थी दुनिया में । ये बात सुखार्थ के बचपन की है जब मैं उसकी छोटी-छोटी शैतानियाँ को सेव करना चाहती थी और मेरे पास कैमरा नहीं था। मन इतना दुखी हुआ कि मेरे दुःख का कारण न जाने कैसे तेरे पापा को भी पता चल गया था।"
“फिर माँ !” सुहानी सुनने के लिए उतावली हो गई ।

“तू इतनी परेशान क्यों होती है संजू ! हमारा घर अपनी आँखों और कानों में सेव कर तो रहा है बच्चों की ध्वनियाँ - स्मृतियाँ । जैसे मैं अपनी माँ और बाबू जी की आव़ाज आज भी सुन लेता हूँ। तुम भी…..।”

“साहिल मैं इतनी भी बेवकूफ़ नहीं हूँ.....जितना आप मुझे समझते हो। कैमरा लाकर नहीं देना तो कोई बात नहीं । झूठमूट मुझे बहलाया मत करो ।”

“मैं सच्ची कह रहा हूँ ।हमारा जीवन गूँजों और अनुगूँजों के सहारे ही चलता है, संजना सिरोही! तुम कभी सुनकर देख लेना, तब कहना ।”
"तेरे पापा ने मुझसे कहा था ।"
संजना ने बेटी के आगे अपनी यादों की पोटली ऐसे खोल कर बिखेर दी कि फिर उसे समेटने में उन्हें घंटों लग गए।
“बेटा कल हमें निकलना भी है।तैयारी हो गई है नss?”
डायनिंग टेवल पर माँ को आचनक याद आया ।
“आप चिंता मत कीजिये माँ ! सब सेट है ।"

दूसरे दिन सुबह से साहिल के परिवार वाले विदाई देने के लिए आने लगे थे। बातें करते-कराते शाम हो चली थी । सूटकेस और बैग सड़क पर निकाल, गाड़ी बुक की जा रही थी । संजना अपनी चाबियों का गुच्छा ख़ोज रही थी । इतने में नई-नवेली सुहानी की भाभी थाल में हल्दी-कुमकुम घोलकर सामने आ गई ।“
माँ देखो न ! भाभी क्या गिफ्ट लाई है हमारे लिए ? इसको हम अपने साथ कैसे ले जायेंगे ?”
सुहानी की बातें सुनकर उदास घर भी ठहाके लगाकर हँस पड़ा ।
“मेरी प्यारी बन्नों इससे चौखट पूजना है । आप पहली बार मेंहदी रचाकर इस देहरी पर चढ़ी हो न ! इसलिए ।”

नई बहू ने अपनी नटखट मुस्कान के साथ कहा तो संजना ने उसके सिर पर हाथ रख आशीष दिया ।

सभी इतने प्रसन्न हो गये जैसे बादलों ने नेह बरसा दिया हो....सब आपस में गले मिल ही रहे थे कि बाहर से साहिल के बड़े भाई साहब की भारी-भरकम आव़ाज आई “संजना जी,देख लो भई, कहीं देर न हो जाये । वैसे हमारे लिए तो अच्छा ही होगा |”
“हां जी, भाई साहब बस हम निकल रहे हैं ।” कहते-सुनते हल्दी के थापों से चौखट को संतुष्ट कर माँ-बेटी अपने गंतव्य की ओर निकल पड़ी थीं । सुहानी यात्रा के काजग-पत्तर सम्हाल रही थी और संजना नई-पुरानी यादों की पोटली सम्हाले, मौन भाव से जहाज की खिड़की से ओझल होते अपने शहर को देखे जा रही थी ।
“माँ, आप यूँ ही उदास बैठी रहोगी या मेरी मदद भी करोगी ?”आधे मन से उसने बेटी की ओर देखा ।
बेटी ने झट से एक सुंदर -सी काँच की एक बोतल माँ को पकड़ा दी । बोतल में विष्णुकांता को लगा देख वह उछल पड़ी ।
“ये कैसे संभव…?” उसकी बात सुने बिना ही बेटी ने मुँह पर हाथ रख दिया ।
“नानी माँ के प्यार पर क्या मेरा थोडा-सा भी अधिकार नहीं, माँ !”
अब से विष्णुकांता हमारे साथ ही रहेगी।
बेटी की आव़ाज में साहिल के जीवन की गूँज सुनकर संजना का दिल ख़ुशी से धड़क उठा । कुछ कहना चाहा तो पास में बैठी एक विदेशी महिला बोल पड़ी ।
“सदा सुहागिन रहो ! भारत... बेटी!"
“आप हिंदी बोल और समझ लेती हैं ?” संजना ने आश्चर्य में भरकर पूछा था ।
“बोत अच्ची तरे से बहनजी । मॉएँ मथुरा में, पिछले पाँच सालों से अपने कृष्ण के संग रहती आ रही हूँ ।”
सुनकर संजना ने अपनी पीठ सीट से टिकाते हुए आँखें मूँद लीं । उसके मन का चैन अब उसके झुर्रीदार चेहरे पर दीपदीपा उठा था। ये देखकर बेटी ने भी अपना सिर माँ के कंधे पर टिका दिया था।

-कल्पना मनोरमा
kalpanamanorama@gmail.com