ध्वनियों के दाग  कल्पना मनोरमा द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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ध्वनियों के दाग 


“संयक्त परिवार में अक्सर दोपहर तक के घर के काम निपटाते- निपटाते औरतें थककर चूर हो जातीं हैं , तो उन्हें लगता कि उनके बच्चे भी थोड़ी देर उनसे दूर रहें, उनके पास न आएँ लेकिन साथ में प्राथमिक शिक्षा भी उन्हे मिलती रहे |” नादान की ताई यानी कि बड़ी मम्मी और दादी चर्चा-मग्न थीं | बैठक से पानी पीने आये नादान के दादा जी विनोद ने ठिठककर जब सुना तो वे बिना सोचे- समझे बोल पड़े “अच्छा ये बात है तो कल से दोपहर के बाद घर के सभी बच्चे मेरे पास लॉन में पड़े तख़्त पर ही खेलेंगे |

”कोई खुलकर हँसा तो कोई घूँघट में और नादान की दादी ने अपने पति की उदारता की खुल कर तारीफ की....मुस्कुराते हुए विनोद ने झूले से अपनी सबसे छोटी पोती निहारिका को गोद में उठाया तो पास में बैठा नादान भी बाहर जाने के लिए उनके साथ हो लिया |

पोती को गोद लिए-लिए विनोद सीधे अपने पुस्तकालय में बच्चों के लायक कोई सचित्र पुस्तक खोजने चले गये | इधर-उधर देख ही रहे थे कि सोवियत-संघ की कृषि-पत्रिकाओं पर उनका ध्यान चला गया |

“हाँ, ये अच्छी रहेंगी, इनके द्वारा हम बच्चों को वनस्पति-प्रकृति और भारत के गाँवों-खेतों के बारे में बताते हुए वहाँ की संस्कृति के बारे में उन्हें बता सकूँगा ......स्कूलों में तो वैसे भी मशीनी पढ़ाई होने लगी है |” सोचते हुए उन्होंने कई एक पत्रिकाएँ उठा लीं |

कई दिनों तक तोता उड़ ,मैना उड़ वाला खेल खिलाने के बाद आज विनोद पोती को प्राम-गाड़ी में लिटाकर नादान को उन्हीं पत्रिकाओं में से एक पत्रिका लौट-पलट कर दिखा रहे थे। बच्चा जिस पर ऊँगली रख देता वे उसी को पूरे मनोयोग से समझाने लगते |

रंगीन चित्रों को देखकर चकते हुए नादान आचनक ज़ोर से बोल पड़ा …”ये कितना सुन्दर है, य़ार दादू !” विनोद पोते की बात पर मुस्कुरा पड़े |

नादान अपने दादू के संग-साथ से होशियार हो चला था तो वहीँ पर उनकी नकल उतारकर उनकी बातें भी दोहराने लगा था लेकिन घर के सभी सदस्यों को उसकी इन ‘नॉलेजेबल’ शैतानियों में खूब रस आ रहा था |

आज सुबह-सुबह घूमने के लिए मना करके विनोद ने अपने और पोते नादान के बीच छोटा-मोटा मन-मुटाव पैदा कर लिया था |

“अबे साले बेहा….|’ कहता हुआ नादान कोने में मुँह डालकर सुबकने लगा |

घर में तो जैसे हडकंप मच गया था | नादान की माँ दौड़कर डंडा उठा लाई तो दादी ने कान खींचने के लिए हाथ बढ़ा दिये और बड़ी मम्मी तो बंटे जैसी आँखें काढ़कर उस पर झपट ही पड़ीं |

“नहीं..नहीं..नहीं कोई भी उसको कुछ नहीं कहेगा क्योंकि उसे शब्द का अर्थ और व्यक्ति की माननीयता नहीं पता ।उसे तो ये शब्द अपना गुस्सा व्यक्त करने का जरिया मात्र लगे।

“कैसी बातें करते हो बाबूजी!.......इसकी इतनी हिम्मत जो आपको ……|”

“इसमें उसकी हिम्मत नहीं, मेरी गलती है | डाँटना है तो मुझे…|” विनोद ने गम्भीर स्वर में कहा तो सब एक दूसरे से नजरें चुराने लगे।

“दरअसल कल मैंने इन्ही शब्दों को बोलकर अपने चहेते नौकर को उसकी गलती पर बहुत डाँटा था और ये बात बिल्कुल भूल गया था कि नादान मेरे पास ही खेल रहा है|” कहते हुए विनोद ने सिर झुका लिया |

-कल्पना मनोरमा