कहने को तो समय के साथ कई कहानियां कही जाती हैं, लेकिन कई कहानियों का अधूरापन समय की तमाम कोशिशों के बाद भी खाली ही रह जाता है। प्रमित किसी कहानी का एक बिम्ब मात्र नहीं है। वह जीवन का, वह हिस्सा है, जहां लौटकर जाने के लिए शायद एक पूरा जीवन काफी ना हो। और फिर लौटकर जाने के लिए निराशा और दर्द के ना जाने कितने समंदरों को पार करना पड़े, कोई नहीं जानता। प्रमित जीवन के उस हिस्से का वो धुंधला पहलू है, जिसके जह्न में खामोशी और खुद को तबाह करने के ना जाने कितने सैलाब ज्वार-भाटे की तरह आत्मा से टकराते हैं। प्रमित जीवन का वह रुदन है, जो अपने ही भीतर के शोर का क़त्ल करने के लिए ना जाने कितनी बार आत्महत्या करता रहता है। अपने ही घर की खाली कमरों की दीवारों पर नाखूनों से अधबुने डरे सहमें चित्रों से खुद के अस्तित्व पर सवाल करता रहता है। लेकिन सवाल भी ऐसे की जिनके जबाव की उसको कोई परवाह नहीं। उसे एक अपने जीवन के सारांश की तलाश है, गाथा उसी सारांश का हिस्सा बनकर उसके जीवन में आती है। अनजाने में ही सही गाथा का प्रमित से यह टकराव मात्र एक अनसुलझी पहेली, या एक कहानी नहीं है, वह अपने जीवन के किसी हिस्से में प्रमित का अस्तित्व भी तलाशती है। यह एक अद्भुत संयोग ही है कि वर्चुअल इमोशन की इस दुनिया में, परछाई की तरह ही सही उसे एक ऐसा प्रेमी मिलता है, जिसके भूतकाल से लेकर वर्तमान तक, उसके पैदा होने से लेकर उसके अस्तित्व के खो जाने तक ना जाने कितनी पीडाओं में वह प्रमित के साथ रहना चाहती है। उसे नहीं पता कि वो शख्स जो हर बात में गाथा के प्रेम और उसकी भावनाओं को अपने तर्क के पहाड़ की ना जाने कितनी ऊंची चोटियों से कितनी ही बार नीचे फेंक देता है, उसके लिए आखिर वह क्यूं इतनी परेशान है। उसे इस बात का सुकून है कि इस वर्चुअल इमोशन की दुनिया में उसका रियल इमोशन अभी जिंदा है। यही बात गाथा की बातों से भी साबित होती है, और प्रेम तो फिर प्रेम होता है। और उसकी स्वीकारोक्ति भी उतनी ही सुकून देती है जितनी की उसका समर्पण। पहले कवि और बाद में नक्सली के रूप में पहचान देने वाला प्रमित, झील की तरह शांत गाथा के लिए तेज हवाओं में सूखे पत्ते की तरह उड़ता किसी रहस्य से कमतर नहीं है। वह कई बार उससे जानने की कोशिश करती है लेकिन प्रमित हर बार उसके लिए रहस्य की एक और परत ओढ़े उसके सामने नज़र आता है। इसी उधेडबुन उससे अनजान जगह पर मिलने पहुंची गाथा के लिए इंतजार की वे घडियां जीवन के उस सच से उसका सामना करवाती हैं जहां उसे एहसास होता है, हर वो चीज जो दिल के करीब हो मिल जाए मुमकिन नहीं। उसे एयर पोर्ट पर बैठे प्रमित के ई मेल से पता चलता है कि वह जितना इस दुनिया से नाराज है उससे कहीं ज्यादा वह अपने आप से भी नाराज़ है। गाथा की वो सारी कोशिशें नाकाम होती हैं, जिससे वह प्रमित को मुख्य धारा पर वापिस ला सके और शायद यहीं कारण है कि लेखिका ने इस उपन्यास को एक दुखद अंत दिया। दोनों के बीच का झूठा वार्तालाप आत्मिक प्रेम की वह सच्ची कहानी है जो कहीं ना कहीं हमारे दिलों दिमाग के किसी अंधेरे कोने में पड़ा अर्धनारीश्वर की तरह गाथा और प्रमित के बीच भटकता रहता है। गाथा की गाथा महज़ एक कहानी भर बनकर हमारे सामने नहीं आती है बल्कि वह उस समाज का एक अक्स हमारे सामने रखती है, जिसका एक हिस्सा आत्मा की कसमसाहट से मुक्ति चाहता है। दुनिया की तमाम बडी कहानियों के बीच गाथा का यह अल्प विराम सुकून देने वाला है। कम से कम आज के भयावह माहौल में प्रमित उस सर्वहारा वर्ग को चिह्नित करता नज़र आता है जिसके लिए दुख और सुख के मायने एक जैसे हैं। वह ना तो दुनियावी गोरखधंधे में फंसना चाहता है और ना ही किसी भीड़ का हिस्सा बनना चाहता है। गाथा की किसी अनजान के लिए इतना चिंतित होना स्त्री के, सच में स्त्री के होने, मायने बताता है। लेकिन गाथा कहानी के उस हिस्से की तलाश में प्रमित को खोज लेना चाहती है जहां वह प्रमित के रूप में उस अर्धनारीश्वर को एकांगी रूप से देख सके, यही कारण है कि बिना किसी की परवाह किए तमाम उलझनों के बाद भी वह प्रमित से मिलने अनजान रास्तों पर निकल पड़ती है, लेकिन उसे पता ही नहीं प्रमित और कोई नहीं उसके जीवन का वो बचा हुआ हिस्सा है, जहां आज तक उसने किसी की रोशनी नहीं पड़ने दी। गाथा लिखना चाहती है वो कहानी, जिसके पार प्रमित को मोक्ष मिल जाए। इस उपन्यास का दुखांत यह नहीं कि प्रमित कभी गाथा की उन अंधेरी कोठरियों से बाहर उजालों में ना आ सका बल्कि इस गाथा का दुखांत यह कि प्रमित जिस अंधेरे से उसके सामने आया था, उसी धुंधलके साथ वह वापिस उसी अंधेरे में कहीं खो गया।
समीक्षक – केशव पटेल
पुस्तक- सच्ची झूठी गाथा
लेखक- अलका सरावगी
प्रकाशन- राजकमल प्रकाशन
मूल्य-147