कश्मीरियत के सौ सालों की दास्तां “रिफ्यूजी कैंप” Keshav Patel द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

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कश्मीरियत के सौ सालों की दास्तां “रिफ्यूजी कैंप”

आशीष कौल व्हाइट शर्ट में ब्लैक टाई लगाए कोई मार्केटिंग या पीआर एजेंसी का हिस्सा नहीं हैं, जो दावा करें कि हमने नई किस्म की खुशबूदार बोतल या फिर कोई मौजे या टूथपेस्ट, बाजार में उतारे हैं. उन्होंने तो बस लिखने का तरीका बदला है, उन्होंने महज़ एक कहानी इत्मीनान से स्टडी रूम में बैठकर नहीं लिखी. उन्होंने किसी प्रेम की दास्तां को सेक्स और तीखेपन में नहीं परोसा है, उन्होंने अपनी कलम में वो धार दोबारा पैदा की जो 70 और 80 के दशकों तक आते- आते कहीं खो गई थी, यह सच है कि ‘जिस दिन छूट नहीं मिलती, हिंदी की किताब नहीं बिकती’, ऐसे समय में आशीष कौल की ये किताब हाथों हाथ बिकी,400 रुपये इस किताब का 20 दिन में ही तीसरा संस्करण का बाज़ार में आ जाना कोई आम बात नहीं।
यही इस किताब की सबसे बडी ख़ासियत है। इस किताब का एक अनछुआ पहलू यह भी है की कहीं खुद अभय प्रताप कौल ने इस किताब को खरीद कर पढ़ा है। कहीं दूर मुख़्तार कि आंखें एक बार फिर नम हुई है। कहीं से फिर एक बार रोशनी की हलचल ने दिलों-दिमाग में चोट की है। कहीं से एक बार फिर भारत की भूमि से अलग होकर भारत में शरणार्थी होकर जी रहे लोगों की पूछ परख बढ़ गई है। ये हिन्दी साहित्य के कम उपन्यासों में मिलता है कि उसके लिखें जाने से पहले उसके बारे में चर्चा हो, मुझे याद है करीब दो साल पहले जब रिफ्यूजी कैंप के लिखने के शुरुआती दौर थे, मेरे आस-पास के सब लोगों की ज़बान से यही निकल रहा था कि आशीष कौल कोई किताब हिन्दी में लिख रहे हैं, मुझे सुनकर बडी हैरानी हुई थी कि एक अंग्रेजीदा आदमी जिसकी विरासत, अंग्रेजी से शुरू होकर अंग्रेजी में ही ख़त्म हो जाती है, हिन्दी में कोई उपन्यास लिखें बडी अजीब बात है, लेकिन जब किताब हाथों में आई तो यकीन हुआ कि हिन्दी को लिखने पढ़ने और समझने वाले अभी बाकी हैं, जहां तक भाषा की बात है तो रिफ्यूजी कैंप ने हिंदी साहित्य के उस स्वर्णिम युग की याद दिला दी जहां मैंने कृष्णकली के साथ चंदर औऱ सुधा को पढ़ा और जाना था, शब्दों की वही सरगोशियां जिनके आलम में दिन कभी ढला नहीं और रात कभी गुजरी नहीं. लेकिन दूसरी सबसे बडी बात है, कि यह महज़ शब्दों की एक जादूगरी भर नहीं है, यह सच का वो हिस्सा है जिसने वर्षों पहले खुद की जमीं और आसमान को खो देने का दर्द दोबारा जिंदा किया। ये उनके जीवन का वो हिस्सा है, जिन्होंने रोना आरती की गोद में सीखा, बचपन शहनाज़ की गोद में बिताया लेकिन जवानी फुटपाथ के किनारे चाय के जूठे कप को धोते गुजरी।
पिछले कुछ वर्षों में आई बहुत सी ऐसी किताबें हैं जिनको पढ़कर यह सहज महसूस किया जा सकता है कि कहीं अचानक हिंदी साहित्य की भाषाई शुद्धता का दौर खत्म सा हो गया है। इस दौर के लेखकों ने हिंदी साहित्य को अगर समझा है तो महज़ एक बेडरूम स्टोरी के हिस्से से। लव, सेक्स और धोखे के नाम पर ना जाने कितने उपन्यास बिक गए या कहूं कि बिकवा दिए गए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। ऐसे दौर में रिफ्यूजी कैंप जैसे एक हिंदी के साफ सुथरे साहित्य का आना ना सिर्फ एक सुगम संयोग है, बल्कि हिन्दी साहित्य उपन्यास के नाम पर बाजारू लेखन बेच रहे लोगों के चेहरे पर एक करारा तमाचा भी है। पिछले कई सालों से लगातार देखते आ रहा था कि जब भी कोई आशीष कौल की कद काठी का आदमी कोई भी किताब लिखता है तो सारे देश में हल्ला मचाना शुरू कर देता है, अव्वल तो वह यह मान लेता है कि उसकी इस किताब का विमोचन किसी बडे आदमी, बडे नेता या फिर किसी बडे कार्यक्रम या इवेंट होना चाहिए, फिर किसी बडे लेखक या आलोचक या समीक्षक जैसा कोई आदमी उसे पढकर या बिना पढे उस पर अपनी राय यानी की समीक्षा लिखें। और फिर दौर शुरू होता है बस स्टैंड से लेकर रेलवे स्टैंड तक के बुक स्टाल्स तक किताब को ठिकाने लगाने का। लेकिन इससे बड़ा एक दौर और भी चलता है और वो है जहां कहीं भी हिन्दी साहित्य से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन होता है वहां उस किताब के बारे में चर्चा करने का। काव्य गोष्ठियों , विचार गोष्ठियों से लेकर छोटे बडे-शहरों में होने वाले साहित्य समारोह में किताब के विमोचन का सिलसिला लगातार चलता रहता है। लेकिन उस किताब की पहुंच आम पाठक तक सीमित ही रहती है, हिन्दी साहित्य के लेखकों के इसी मिथक को तोडने का काम बखूबी किया आशीष कौल ने, उनकी इस किताब का विमोचन ना तो किसी बडे राजनेता किया, और ना ही इसे किसी बडे समारोह में पाठकों के बीच उतारा गया, इसके उलट किताब के बाजार में आने का पता तो खुद प्रकाशक ने दिया कि रिफ्यूजी कैंप दो दिन हुए बाजार में आ गई है, लेकिन इससे भी सुखद यह रहा कि बिना किसी तय एजेंडे के इस किताब ने एक नया पाठक वर्ग खड़ा कर दिया। एक महीने के भीतर-भीतर किताब का तीसरा संस्करण बाजार में लाना पडा, खुद प्रकाशक भी इस बात को लेकर उत्साहित था कि किसी लेखक की पहली किताब पर इतना जबरदस्त रिस्पांस पहले दिन से मिले यह दुर्लभ है। यही इस किताब की विशेषता भी रही की बिना किसी औपचारिक विमोचन समारोह के रिफ्यूजी कैंप को पूरे देश से समर्थन मिला और लोगों ने ऑनलाइन जाकर या फिर कैसे भी लेकिन इस किताब को पढा। और दूसरे लोगों को पढने के लिए प्रेरित भी किया। रिफ्यूजी कैंप की इस दीवानगी के चलते ही यह भी पहली बार हुआ कि किसी सामान्य आदमी की पहली किताब वो भी हिन्दी में और उसे अंग्रेजी के अख़बारों ने सराहा, अंग्रेजी के सबसे बडे अख़बार Hindustan Times लेकर जम्मू और कश्मीर के The Daily Excelsior तक कई अख़बारों ने रिफ्यूजी कैंप को अपने पन्नों पर जगह दी। और यह इस किताब का हक भी है क्योंकि इससे पहले किसी भी किताब में कश्मीर और उसकी कश्मीरियत की सौ सालों से भी ज्यादा की दास्तान किसी को पढने में नहीं मिली थी। रिफ्यूजी कैंप भारत में वह पहली किताब है जिसने कश्मीर को सिर्फ अख़बारों और न्यूज चैनलों की हेडलाइंस में देखते और समझते आ रही जनता को उसे और करीब से जानने का मौका दिया। रिफ्यूजी कैंप वह किताब है जिसने लोगों को यह सोचने में मजबूर कर दिया कि क्या कोई आदमी अपने ही देश में रिफ्यूजी हो सकता है? और अगर नहीं हो सकता तो, क्यों घाटी में अपने पुरखों के खून पसीने से सींची गई धरती की माटी की खुशबू को इन कश्मीरी पंडितों के खून से बैरंग कर दिया गया।