फ्लाई किल्लर - 3 SR Harnot द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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फ्लाई किल्लर - 3

फ्लाई किल्लर

एस. आर. हरनोट

(3)

एक दिन पंक्ति में खड़ी-खड़ी वह अचानक गिरी और बेहोश हो गई। उसने अपने नोटों की परवाह न करते हुए तत्काल उसे अपनी बोतल से पानी पिलाया और 108 एंबुलैंस को बुला कर अस्पताल भिजवा दिया। वह कभी उससे उसके परिजनों के बारे में भी नहीं पूछ पाया। न ही उसने कभी किसी और को उसके साथ देखा। जब उसे एम्बुलैंस में स्ट्रेचर पर रख रहा था तो उसकी मुट्ठी में एक नोट दिखा। उसने धीरे से उसे खींचा और देखा कि वह पांच सौ का पुराना नोट है। वह अचम्भित रह गया कि महज पांच सौ रूपए के लिए वह बेचारी इतने दिनों से परेशान थीं। उसने नोट को अपने पास रख कर अपनी जेब से सौ-सौ के दस नोट निकाले और 108 में सेवारत महिला डाक्टर की उपस्थिति में उसकी जेब में डाल दिए। वह उस के साथ जाना चाहता था पर खुद भी कई दिनों से नोट बदलवाने और जमा करने के चक्कर में परेशान था। इसलिए उसका जाने का मन नहीं हुआ। उसने देखा कि जहां वह खड़ा था वहां अब लोग एक दूसरे से चिपक गए थे। वह अपनी जगह खड़ा होना चाहता था लेकिन लोगों ने उसे लाइन में पीछे खड़े होने के लिए बाध्य कर दिया। सभी के सामने वह घटना घटी थी और वे जानते थे कि उसने लाइन से बाहर होकर एम्बुलैंस बुलाई थी पर किसी को उससे कोई लेना-देना नहीं था। वह आहत, अपराजित, असहाय सा चुपचाप सबसे पीछे खड़ा हो गया था। अब उसने महसूस किया कि वह अधेड़ औरत उसके भीतर पसर गई है। उसने अपने शरीर को बेतहाशा भारीपन से लबरेज महसूस किया और एक पल के लिए जमीन पर बैठ गया। उसे दिमाग में वह पांच सौ का नोट घुसता महसूस हुआ। इस बीच बैंक में लंच हो गया और सभी को दूसरे दिन आने की हिदायत दे दी गई थी कि आज नोट नहीं बदलवाए जाएंगे।

लोग धीरे-धीरे लाइनों से बाहर हो लिए। सभी के चेहरों पर अपने ही पैसों के बोझ की ऐसी विकट थकान थी जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता था। केवल देखा और परखा जा सकता था। महसूस किया जा सकता था। वह बैठा-बैठा सभी के चेहरों की उस थकान को अपने भीतर कुछ देर जुगालता रहा और फिर ऐसे उठा जैसे टांगों में जान ही नहीं रह गई हो। उसका एक मन हुआ कि वह अस्पताल जाकर उस औरत की सुख-सांद लें पर दूसरे पल सोचा कि इतने बड़े अस्पताल में बिना उसका नाम-पता जाने उसे कहां तलाश करेगा।

चलते-चलते उसने अपने भीतर पता नहीं कितने शब्द उठते-बैठते, बिलखते, अटपटाते, चीखते, विलगते महसूस किए थे...........सरकार, रोमियो, नोटबंदी, पुलिस, लड़की, आईसक्रीम, चिनार, मौसम, 108 एम्बुलैंस और पांच सौ का नोट........ये शब्द नहीं जैसे नुकीली छुरियां हों जो उसे भीतर ही भीतर घोंपती चली जा रही हो।

थका हारा वह बैंच तक गया और हाथ से पत्तों को साफ करके वहां बैठ गया। अब पत्ते कम होने लगे थे। जैसे वे अपने-अपने घर चले गए हों और जो कुछ बिरल चिनार की टहनियों और बैंच तथा उसके आसपास थे वे मानों किसी का इंतजार कर रहे हो।

संयोग से उस दिन उसे मिलने कोई नहीं आया। उसे पेड़ पर हल्की सी कांव-कांव की आवाज सुनाई दी। ऊपर देख तो एक कौवा बैठा उसी की तरफ नीचे देख रहा था। सोचा वह भूखा होगा। उसने उठ कर पास वाली दुकान से एक बिस्कुट का पैकिट लिया। उसे खोला और दो बिस्कुटों को कुतर-कुतर कर बैंच के बांए किनारे डाल दिया। कौवा पेड़ से आकर उन्हें खाने लगा। इसी तरह लगभग पांच मिनट की अवधि में उसने कौवे को सारे बिस्कुट खिला दिए। वह खुश हुआ कि उसकी सेवानिवृत्ति के बाद बैंच और चिनार के साथ उसका एक और दोस्त भी हो गया है। वह इस बात के लिए अपने को धन्य समझ रहा था कि उसने अपने पित्रों को आज खुश कर दिया है। बचपन में स्कूल के समय जब गांव में श्राद्ध होते तो उसकी दादी और अम्मा दोनों मिलकर पहले कौवों को खाना खिलाया करतीं थीं। दादी एक थाली में रोटी के टुकड़े करके आंगन की मुंडेर से ‘आओ कागा, आओ कागा, बोल कर आवाजें लगाती तो कई कौवे पलक झपकते ही वहां आ जाते और सारी रोटियां खा जाते। उसके बाद जब वह शहर आया, जैसे कौवों को देखना ही भूल गया। कभी कभार ही ऐसा होता कि कोई कौआ उसे कहीं पेड़ पर चुपचाप बैठा दिखाई देता। उनकी नस्लें जैसे गुम होने लगी थीं। कौवा तो उड़ गया था लेकिन ‘कौआ‘ शब्द उसके सीधे मन में बैठ गया।

वह बैंच से उठा और घर की तरफ चलने लगा। बैग में रखा पुराने नोटों का बंडल इस दृष्टि से देखा-छुआ कि कहीं गिरा तो नहीं दिया है। एक छोटे से काम के लिए इतनी मशक्त उसे शायद ही जीवन में करनी पड़ी हो। आज वह इसलिए भी अपनी ही नजरों में अपमानित महसूस कर रहा था कि पहली बार वह अपने परिवार का इतना छोटा सा काम नहीं कर पाया है। चलते-चलते किसी ने उसे बताया कि जिस अधेड़ महिला को उसने अस्पताल भिजवाया था वह अब नहीं रही।

‘वह बेचारी अपने सांजे हुए पैसे के लिए मर गई।‘

उसकी आंखें भर आईं थीं। वह उसे नहीं जानता था पर एक इनसानियत का रिश्ता तो था ही। फिर वह तो अभी भी शब्दों में उसके भीतर जिंदा थीं। उसे एकाएक वह कौआ याद आ गया। शायद वह मौत का संकेत लिए वहां आया होगा। उसे एक पल के लिए अच्छा लगा कि उस महिला के लिए ही कहीं वह बिस्कुट का श्राद्ध तो नहीं लगा होगा। अब दो और शब्द उसके भीतर पसर गए थे। श्राद्ध और कौआ। पर उन सब पर भारी ‘मौत‘ शब्द था जिस पर वह कई तरह से सोच रहा था। यह बात उसके भीतर कहीं चिपक गई थी कि इस आजाद देश में और वह भी इक्कीसवीं सदी के समय में कोई अपने ही पैसे बैंक से लेने लिए कैसे मर सकता है ? पर सच तो यही था।

वह आज बहुत निराश, आहत और दुखी मन से घर पहुंचा। कई पल दरवाजे के बाहर ऐसे खड़ा रहा जैसे किसी अजनबी घर के बाहर खड़ा किसी का पता ढूंढ रहा हो। बहुत हिम्मत से उसने डोरबैल दबा दी। पत्नी ने दरवाजा खोला था। आज पत्नी ने उसे नहीं टोका कि नोट बदले या नहीं। वह जानती थी कि इन दिनों किसी बुजुर्ग का लाइन में खड़ा होना कितना खतरनाक हो रहा है। टीवी पर दिखाई जाने वाली खबरों से वह पूरी तरह वाकिफ हो गई थीं। वह दबे पावं, हारा हुआ सा अपने कमरे में चला गया। आज उसे दरवाजे के पास बूट खोलने की याद भी नहीं रही। उसकी पत्नी ने ही उसके बूट उतारे थे और सामने एक पानी का गिलास रख दिया था। उसने एक ही घूंट में पूरे गिलास को भीतर उड़ेल दिया। बहुत राहत मिली उसे। लगा कि जितने भी शब्द भीतर जोश में उछाल मार रहे थे, वे पानी में कहीं विलुप्त हो गए हैं।

उसे नींद आनी कम हो गई थी। वह देर रात तक खबरें देखता और सुनता। उसने अपने जीवन में अखबार और टीवी समाचारों को कभी इतनी गंभीरता से नहीं लिया था, जितना अब लेने लगा था। पहले तो काम के बोझ से वह समय ही नहीं निकाल पाता था। उसने आज एक टीवी रिपोर्ट देखी थी जिसमें भारत में हुए आतंकी हमलों के साथ-साथ दुनिया में हुए कुछ बड़े नर संहारों को भी दिखाया गया था। साथ ही अपने देश में किसानों को किस तरह आत्महत्या करने के लिए विवश होना पड़ रहा है, इस पर कुछ निष्पक्ष विशेषज्ञों की बहस आयोजित की गई थी। 1990 के बाद जिस तरह की परिस्थितियां देश में उत्पन्न हुई, उसने अब तक लाखों किसानों को आत्महत्या करने पर विवश कर दिया। सŸााएं अपने स्वार्थ और अतिजीविता के लिए कितनी क्रूर और आततायी हो सकती हैं, ये रिपोर्टें उसका अभूतपूर्व उदाहरण थीं।

एक चैनल पर देश में मासूम लोगों पर गौ-रक्षकों के हमलों से मारे गए कुछ अल्पसंख्यक और दलितों के बारे में रिपोर्ट दिखाई जा रही थी।

वह इन रिपोर्टों को देखकर बहुत विचलित हो गया था। उसके दिमाग में पहले से घुसे कई शब्दों के बीच अब आत्महत्याएं, आतंकी हमलें, नरसंहार और गौ-रक्षक जैसे शब्द ऐसे घुस गए थे कि वह बार-बार उन्हें याद करके भयभीत होने लगा था। इन शब्दों को अपने दिमाग से कई बार बाहर निकालने का प्रयत्न किया पर उसे लगा जैसे ये शब्द फेबीकोल के जोड़ की तरह मजबूती से भीतर फंस गए हैं।

उसने अपना कम्प्यूटर बंद कर दिया और अरामदेय कुर्सी पर पीछे की तरफ गर्दन लटकाए आंखे बंद करके बैठ गया। उसने लाइट बुझा दी थी। वह चाहता तो अपने दिमाग को आराम देने की गरज से सो भी सकता था परन्तु उसे लगा कि वह कुर्सी पर आगे-पीछे झूल कर थोड़ी राहत महसूस कर लेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। उसका विचलन बढ़ता ही गया। उसने जो टीवी में देखा था और जो कुछ समय≤ पर अपनी स्मृतियों में संजोया था उसके धुंधले से परिदृश्य भीतर उमड़ने-घुमड़ने लगे थे। उसे पहले मुबई का छग्ब्बीस ग्यारह याद आया। फिर अमेरिका का नौ ग्यारह और पेशावर के स्कूल में मारे गए बच्चे याद हो आए। फिर न जाने दुनिया के कितने आतंकी हमलों ने उसे घेर लिया। उसने अपने भीतर ऐसा घमासान महसूस किया जैसे अभी एक विस्फोट हो जाएगा और अपने घर समेत उसके परखचे उड़ जाएंगे। उसने अंधेरे में ही मेज पर रखी पानी की बोतल का सारा पानी एक सांस में गटक लिया। भीतर ऐसे लगा जैसे ठंडा पानी गर्म तवे पर गिरा हो। वह अप्रत्याशित काले धुंए के मध्य घिर गया और कुर्सी से उठ कर बदहवास सा अंधेरे कमरे में भागता रहा। कुछ देर बाद अचानक एक निस्तब्धता कमरे में पसर गई। उसने सोने का जैसे ही प्रयास किया उसके सिरहाने दुनिया के कई नरसंहार आकर बैठ गए थे।

उसे पहला विश्वयुद्ध याद आया जिसमें अंदाजन एक करोड़ लोगों की जानें चली गई थीं। इससे कहीं अधिक बीमारियों और कुपोषण से मर गए थे। आर्मीनिया उस समय आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से बेहद सम्पन्न था। यह नरसंहार आर्मीनियाइयों के प्रति तुर्की सरकार की गहरी नफरत का नतीजा था। वह यह सोचकर दहल गया कि किस तरह सैंकड़ों लेखकों, पत्रकारों, वैज्ञानिकों और अन्य बुद्धिजीवियों को पकड़ कर विशाल रेगीस्तानों में मरने के लिए छोड़ दिया गया था। मजदूरों और आमजन तो कीड़े-मकोड़ों की तरह मसल दिए गए थे।

अब दूसरे विश्वयुद्ध का नरसंहार हिटलर के रूप में उसकी छाती पर बैठ गया। उसकी आंखों में करीब सात करोड़ लोगों की लाशें तैरने लगी। हिटलर उसे बहुत याद आया क्योंकि वह अपने आॅफिस में अपने कई उच्चाधिकारियों को हिटलर के नाम की संज्ञा देकर नवाज चुका था। हिटलर ने किस तरह अपनी डेथ यूनिट्स को बेरहमी से यहूदियों को कत्ल करने के आदेश दे दिए थे और देखते ही देखते साठ लाख से ज्यादा यहूदियों को बेरहमी से मार दिया गया। उसके तुरन्त बाद उसे हिरोशिमा और नागासाकी याद आ गए। उसका कलेजा जलने लगा जैसे वह भी कहीं ‘लिटल बाॅय‘ और ‘फैट मैन‘ परमाणु बमों के घ्वंस के मध्य आखरी सांस ले रहा हो। उसकी सांसे तेज-तेज चलने लगी थीं। वह बिस्तर से उठना चाह रहा था लेकिन उसे लगा कोई भारी चीज उसे दबाए हुए है।

काफी देर बाद वह उठ कर बैठ गया था। उसने शांत होने के लिए ओम का मन ही मन उच्चारण आरम्भ कर दिया। लेकिन वे नरसंहार पहले से ज्यादा मुखर होकर कमरे के अंधेरे खोह में विचरने लगे और एक-एक कर पुनः उसके कानों से होते हुए मस्तिष्क में घुसने लगे थे। इस बार उसे चीन के नरसंहार ने परेशान किया जो दुनिया के सर्वाधिक क्रूरतम नरसंहारों में से एक था। उसे अचानक चीनी साम्यवादी नेता माओत्सेतुंग याद आ गए। जिसने भी माओ की सरकार का विरोध किया था वे मौत के घाट उतार दिए गए।

तदोपरान्त उसके दिमाग में बारी-बारी चलचित्र की तरह युगोस्लाविया, यूगांडा, पूर्वी पाकिस्तान, चिली, कंबोडिया, इथोपिया, इरान, अफगानिस्तान, श्रीलंका और फिलीस्तीन के नरसंहार घूमने लगे थे। उसने मन को थोड़ा एकाग्र और शांत करने के लिए भ्रामरी प्राणायाम का सहारा लिया। उसी बीच वह अपने बाल्यकाल में लौट आया जब वह 10-12 साल का रहा होगा। उसके दादा उस समय शहर में एक अंग्रेज अधिकारी के पास रसोईए का काम करते थे। देश आजाद हुआ तो उसके दादा का अंग्रेज अफसर भी देश छोड़ कर चला गया। दादा फिर काम की तलाश में शहर ही रहे। दादा बताते थे जब देश का बंटवारा हुआ तो कितने लोगों का कत्ल हो गया। भाई-भाई, पड़ोसी-पड़ोसी एकाएक कैसे एक दूसरे के खून के प्यासे हो गए थे।

अब वह भ्रामरी मुद्रा में ही 1984 में पहुंच गया। उसके सामने हजारों सिक्ख भाईयों की लाशों के ढेर बिछ गए। फिर वह 2002 में चला आया और मुसलमान भाईयों के कत्लेआम का साक्षी बन बैठा। वहां से निकला तो किसानों की आत्महत्याओं के मध्य फंस गया। एक पल उसे लगा जैसे वह अपने ही पंखे से लटक गया है और घुट-घुट के मर रहा है। उसने भ्रामरी मुद्रा तोड़ी और दोनों हाथों से गला ऐसा पकड़ा जैसे फांसी की रस्सी को खींच कर निकाल रहा हो। पर वहां कुछ नहीं था। उसकी गर्दन में अथाह पीड़ा होने लगी थी। वह महसूस करने लगा कि उसके पास लाखों का कर्ज है........साहुकारों ंऔर बैंक के दलाल हाथ में डंडे लिए उसके दरवाजे पर खड़े हैं........जैसे वे उसकी ज़मीन हथियाना लेंगे.......गौशाला से बैलों को खोल कर ले जाएंगे............उसकी पत्नी और बेटियों से बदसलुकी करेंगे........? मानो अब उसके पास कोई रास्ता नहीं है और वह अपने कमर में लपेटी चादर को पेड़ में बांध कर उस में लटक गया है....?

क्रमश...