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फ्लाई किल्लर - 2

फ्लाई किल्लर

एस. आर. हरनोट

(2)

उसका माथा पसीने से तरबतर था। जितना पोंछता उतना ही गीला हो जाता। अपने को इतना कमजोर और असहाय कभी महसूस नहीं किया जितना उसने इन दिनों बैंक की लाइन में खड़े खड़े किया था। उसने कई बार बैंक में फोन पर बात करनी चाहिए लेकिन सभी के फोन बंद मिले। दिन को अब वह बेटे के कमरे में जाकर समाचार देख लिया करता था। जिस चैनल पर भी देखों, बैंक के बाहर लम्बी लम्बी लाइनें ही नजर आतीं। कहीं पैसों के लिए झगड़े होते तो कहीं भीड़ पर पुलिस वाले लाठियां बरसाते रहते। फिर खबरंे आने लगीं कि लाइनों में खड़े-खड़े कई बुजुर्ग बेहोश होकर मरने भी लगे हैं। उसके मन में अचानक विचार आया कि उसके साथ भी तो ऐसा ही कुछ हो सकता है। वह एक पल के लिए जड़ सा हो गया। दूसरे पल सोचने लगा कि थोड़े से पैसों के लिए वह अपने को क्यों इतना विवश या मजबूर कर देगा कि वह इस परिस्थिति तक पहुंच जाए। लेकिन जिस तरह का माहौल बन रहा था उससे उसे यह चिंता जरूर थी कि वह समय रहते परिवार के इस छोटे से काम को कैसे निपटा पाएगा ? रिटायमैंट से पूर्व आॅफिस में रहते हुए तो उसके सारे काम चपड़ासी या उसका कोई क्लर्क करवा दिया करता। उसके मन में यह भी ख्याल आया कि क्यों न वह अपने दफतर जाकर किसी को इन पैंसों को दे दें ताकि वह अपनी सुविधा से जमा करवा दें या उन्हें नए नोटों से बदलवा कर उसे दे दे। फिर उसे कई पहले के रिटायर लोगों का ध्यान आया कि जब वे उसके अपने दफतर आते थे तो लोग कैसे उनकी उपेक्षा करने से नहीं चूकते। अब वह भी उन्हीं की श्रेणी में शामिल है। .....यह सोचते-सोचते उसे लगा कि वह ‘रिटायरमैंट‘ शब्द कहीं उसकी जीभ पर चिपक गया है। उसने एक दो बार जीभ के मध्य दांत फंसा कर उसे बाहर निकालना चाहा लेकिन वह धीरे-धीरे कहीं भीतर घुसता चला गया था।

आज पहले वह बैंक की कतार में लगा रहा। भारी जद्दोजहद के बावजूद उसकी बारी नहीं आ सकी। फिर थका हारा वह कई दिनों बाद चिनार के पेड़ के नीचे लगी बैंच पर बैठने चला आया। वहां पहुंचा तो देखा कि उस पर सूखे पŸाों की कई परतें जमी पड़ी थीं। पतझड़ के महीनें जैसे हर टहनी पर बैठे उम्रदराज पत्तों को एक-एक करके बेघर करने में लगे थे। वह कभी बैंच को देखता तो कभी नंगे होते उस चिनार को। हल्की सी हवा से कोई पत्ता नीचे गिरता तो उसे लगता जैसे अथाह वेदना से वह कहरा रहा है। वह घिसटता, लड़खड़ाता सा अधमरा हो कर दूर-पार चला जाता। हवा तेज चलती तो बहुत से पंखो भुरभुराकर उसके आसपास और कुछ उसके ऊपर गिरने लगते। उसने देखा कि समय के साथ-साथ कितना कुछ नहीं बदल जाता ? यह सोचते वह ‘समय‘ शब्द पर अटक गया। एक समय था जब वह नौकरी के लिए शहर आया, एक समय था जब उसकी नौकरी लगी, एक समय था जब उसकी शादी हुई और बच्चे हो गए, एक समय यह भी है जब वह रिटायर है और अकेला-अकेला सा चिनार और पŸाों का सहारा ढूंढ रहा है.....असहाय सा बैंक के बाहर लगी पंक्तियों में दिन भरा खड़ा रहता है और अपने ही थोड़े से पुराने नोटों को बदलवाने में नाकामयाब हो रहा है।

पर वह इस मौसम का क्या कर सकता था जो अब चिनार के साथ उस पर भी बैठने लगा था। कई प्रश्न उसके मन में आए थे.....कि क्या वह भी इस चिनार का ही कोई प्रतिरूप है.........क्या वर्ष भर के सारे मौसम उस पर भी ऐसेे ही आकर बैठ जाते हैं...........उसका या किसी का भी जीवन इसी चिनार जैसा है.....? उम्र के अंतिम पड़ाव में आदमी का जीवन भी सभी मौसमों से विछिन्न हो जाता है। पर एक मौसम हमेशा उसका साया बनकर उसके साथ अंत तक होता है, कभी विलग नहीं होता--पतझड़। वह निराश होकर कभी उस बैंच को देखता। कभी चिनार को तो कभी अपने ढलते जीवन को। तभी उसे लगता जैसे वह चिनार उससे बतियाने लगा हो..........उस से कह रहा हो कि.......देखो मैंैं भी तो सर्दी में ठिठुरता रहता हूं। सांस भी नहीं ली जाती। फिर भी मुझे डट कर इन प्रतिकूलताओं का सामना करना है, ताकि मौसम खुद-ब-खुद चल कर आए और फिर से मुझे हरा-भरा करें। देखो, मैं कहीं नहीं जाता। एक जगह अडिग रहता हूं। भयंकर अंधेरों में भी। तूफानों में भी। मुसलाधार वर्षा में भी और बर्फ के दिनों में भी।

इन्हीं खयालों में खोया वह बैंच की तरफ बढ़ा और हाथ से सारे पत्ते हटा लिए। फिर अपनी जेब से रूमाल निकाला और उस पर जमी धूल की परत को साफ कर दिया। बैंच पहले जैसा चमकने लगा था। पता नहीं कितने दिनों से उस पर कोई नहीं बैठा होगा।.....क्या लोग अब किसी पेड़ की छांव में नहीं बैठते होंगे.....क्या लोगों ने अब आराम करना छोड़ दिया होगा......क्या अब सभी के भीतर पतझड़ घुस गया होगा.....उसके मन में ऐसे कई विचार कौंधे और चले गए। उसने महसूस किया कि जैसे चिनार और बैंच उसके जीवन के दो छोर हो। एक जीना सिखा रहा है और दूसरा घड़ी-दो घड़ी उस जीने को ठहराव दे रहा है। यह ठहराव आराम है, जो जीवन का अभिन्न अंग हैं। इसी के साथ उसने एक ओर बैग रखा और बैठ गया था।

आज वह बैंच के मध्य नहीं बैठा। किनारे बैठ गया था। इसलिए ही कि शायद कोई दूसरा थका हारा, उस जैसा, आए तो पल दो पल यहां आराम कर लें। बैठते-बैठते उसे नई सरकार के बदलने के बाद के कई परिदृश्य याद आ गए। अचानक वह एंटी रोमियो सेना और गौररक्षक की कुछ असभ्य वारदातों के मध्य उलझ गया। पिछली रात जो कुछ समाचार उसने अपने और कई दूसरे शहरों के देखे-सुने उन्होंने उसे बहुत विचलित कर दिया था।........बैंको के बाहर लम्बी कतारें, लोगों का आक्रोश, पुलिस का लाठीचार्ज और लड़का-लड़की को एक साथ देख कर पुलिस और लोगों द्वारा उनकी पिटाई। वह उन स्मृतियों और छवियों को अपने मन से ऐसे बाहर निकालने का प्रयास करता रहा जैसे कोई कोट पर बैठी धूल को झाड़ता है, लेकिन उन समाचारों या घटनाओं के धुंधलेपन को वह झाड़ने और बाहर निकालने में पूरी तरह नाकाम रहा था। वह उसी तरह बैंच पर बैठ गया कि दो-चार घड़ी सुकून से गुजारेगा।

वह अभी बैठा ही था कि सामने से एक लड़की आती दिखाई दी। उसने अंदाजा लगाया कि उसकी उम्र सात या आठ बरस होगी। उसके हाथ में आइसक्रीम थी। उसकी नजर अचानक लड़की के दांई ओर पड़ी, जहां एक बंदर आइसक्रीम को झटकने की ताक में था। वह झटके से उठा और उसे पकड़कर बैंच तक ले आया। लड़की बंदर को देखकर घबरा गई थी। उसने उसे अपने साथ बिठा दिया। उसका दिल जोर जोर से धड़क रहा था। वह स्थानीय नहीं थी। बाहर से अपने परिजनों के साथ घूमने आई थी। उसने उसकी पीठ सहलाई और ढाढस बंधाया कि उसे डरने की आवश्यकता नहीं है। लड़की थोड़ा सहज होकर जल्दी-जल्दी बची हुई आइसक्रीम खाने लगी। वह इधर-उधर देखता रहा कि उसके परिजन उसे लेने आएंगे पर पता नहीं वह उसे छोड़ कहां निकल पड़े थे। वह यूं ही उससे बातें करने लग गया था।

तभी अचानक दो तीन पुलिस वाले कुछ युवाओं के साथ वहां धमक पड़े। नौजवानों के गले में एक विशेष रंग के पट्टे थे जिन पर लिखा था एंटी रोमियो सेना। उसे कुछ समझ नहीं आया। तभी एक पुलिस वाले ने पूछ लिया,

‘तुम्हारी लड़की है घ्‘

‘नहीं तो.......।‘

‘फिर ये इधर कैसे.......?‘

वह कुछ बोल पाता, पीछे से एक नौजवान ने आकर सीधा उसका कालर पकड़ लिया।

‘हम बताते हैं न अंकल। ऐसे ही तुम इसे फुसलाओगे, बहलाओगे और गलत काम करके निकल जाओगे। जानते हैं हम तुम जैसे बूढ़ों को। ले चलो इसे पुलिस थाने।‘

उस नौजवान की हरकत से पुलिस वाले एक पल के लिए भौचक्क रह गए पर क्या करते अब माहौल ही इसी तरह का था।

उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा है। उस नौजवान ने उसका कालर अभी भी पकड़ा हुआ था। उसने पुलिस वालों की तरफ इस आस के साथ देखा कि वे इस बतमीजी के लिए उसकी मदद करेंगे। जब कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई तो उसने झटके से उस नौजवान का हाथ कालर से हटा दिया। झटका इतना तेज था कि वह तकरीबन दस फुट दूर औंधे मुंह गिर पड़ा।

‘तुमको इतनी भी शर्म नहीं है कि सिनियर लोगों से कैसे बात करते हैं। मैं तुमको बदमाश, गुण्डा दिखता हूं ......?‘

कालर सीधा करते हुए वह उन नौजवानों और पुलिस वालों पर टूट पड़ा था। उन्होंने सोचा भी नहीं था कि पतला-दुबला दिखने वाला वह आदमी पल भर में एक हंगामा खड़ा कर देगा। वे कई लोग थे। उसे क्या मालूम की अब इस तरह कोई अधेड़ या युवा किसी लड़की के साथ नहीं बैठ सकता। साथ नहीं चल सकता। कोई बच्ची भी किसी पराए आदमी के साथ नहीं बैठ सकती।

काफी देर वहां हंगामा होता रहा और आखिर उसे पुलिस वालों के साथ थाने में जाना पड़ा। बच्ची के परिजन अभी भी नहीं आए थे।

पुलिस स्टेशन में जब उसे ले जाया गया तो वह गुस्से से तमतमाया हुआ था। भीतर जाते ही उसने जेब से अपना फोन निकाला और सीधे सिटी के एस0पी0 को लगा दिया। पुलिस वालों ने कभी सोचा भी नहीं था कि इस तरह कुछ हो जाएगा। इससे पहले कि पुलिस वालों को बात समझ आती उसने सारी बात एसपी को बता दी थी। एस.पी ने इस मध्य चैकी इन्चार्ज से बात कर ली थी। चैकी प्रभारी ने स्थिति को ज्यादा बिगड़ने नहीं दिया और समझा बुझा कर इस मामले को खत्म करवा लिया। शायद अब पुलिस वालों और उन नौजवानों को थोड़ा एहसास हुआ होगा कि उन्होंने बिन वजह ही यह हंगामा कर दिया। लड़की अभी भी सहमी हुई थीं। इसी बीच उसके परिजन वहां पहुंच गए थे। पुलिस वालों ने उसे उनके हवाले कर दिया।

इस छोटे से वाक्य ने उसे भीतर तक हिला दिया था। वह सड़क पर चल तो रहा था लेकिन उसे लगा जैसे उन नौजवानों के गले के पट्टे उसके अपने गले में फंसने लगे हों। वह चलते-चलते जैसे उनको गले से उतार कर फैंकने की कोशिश कर रहा हो। उसने इस तरह कई बार कोशिश की लेकिन गले में कुछ नहीं था। वह सड़क में सभी से बच कर चल रहा था। विशेषकर उसे कोई बच्ची या लड़की दिखती तो उसकी सांसे रूक जाती। वह झटपट उनसे दूर हो जाता या भाग कर निकल पड़ता। राह चलते लोगों की आंखे उसे दूर तक जाते देखती रही। उन्हें वह शायद साधारण आदमी नहीं लग रहा था........कोई मानसिक विक्षप्त व्यक्ति जो इस तरह की सायास हरकतें करता चला जा रहा है। उसे इस बीच कोई भी परिचित नहीं मिला। वह अपने साथ हुई और अपने द्वारा की जा रही तमाम बातों से इस तरह परेशान हो गया जैसे उसने न जाने आज कितनी शर्मनाक हरकतें कर ली होंगी। शर्म जैसी कोई चीज उसके शरीर और भीतर तक ऐसे महसूस हुई जैसे किसी मोबाइल या कम्प्यूटर में कोई खतरनाक वायरस घुस गया हो। फिर लगा कि यह वायरस कहीं उस नई सरकार के साथ-साथ तो नहीं चला आया है जो इस शहर जैसे कई शहरों में घुस कर उसे अशांत कर देगा। घर तक वह कई ऐसी बातें सोचता रहा था जिनका कहीं कुछ औचित्य नहीं था पर वे जैसे होने को तैयार बैठी थीं। घर पहुंच कर उसे कुछ राहत महसूस हुई पर न जाने क्यों उन पट्टों पर लिखा ‘एंटी रोमियो‘ और थोड़ी देर मस्तिष्क में कौंधा ‘वायरस‘ शब्द उसकी आंखों में घुस गए। वह सीधा बाथरूम गया और पानी से आंखे धोता रहा। वे शब्द अब आंखों के पारों से निकल कर अपने कानों में पसरते लगे। उसने दांए और बांए हाथ की तर्जनी से कई बार कान खुजलाए लेकिन लगा कि वे कहीं उसके भीतर घुस कर बैठ गए हैं।

उस दिन के बाद कई शब्द जैसे उसकीे आंख, कान, गले और मस्तिष्क में चिपक गए थे। कभी वे आंखों में चुभने लगते तो अजीब तरह से आंखे इधर-उधर घुमाता। खोलता और बंद कर देता। दूसरे पल कान खुजलाने लगता। उन्हें कुछ पल बंद किए रखता। फिर उसके हाथ अनायास ही नाक के नथूनों को बांए हाथ की तर्जनी और अंगूठे से बंद कर लेते। वह भीतर ही भीतर कपाल-भाती जैसा कुछ करता और जोर से उज्जैयी प्राणायाम की मुद्रा में आ जाता।

आज फिर सीधा वह बैंक चला गया था। लोगों की पंक्तियां अभी भी समाप्त नहीं हुई थीं, जैसे सभी काला धन लेकर बैंक के बाहर खड़े हांे। बहुत मशक्कत और जद्दोजहद के बाद भी वह अपने नोट नहीं बदलवा पाया। वह पिछले कई दिनों से देख रहा था कि एक पतली सी अधेड़ महिला लाठी के सहारे जब भी आती तो सबसे पीछे पंक्ति में खड़ी हो जाती। कुछ देर के बाद वह बैठ जाती। फिर उठती और कुछ हिम्मत जुटा कर लाइन में लग जाती। अचानक वह खांसने लगती तो जैसे सारे शरीर का बोझ दोनों हाथों की हथेलियों से जमीन में गड़ाई लाठी पर सिमट जाता। वह काफी आगे लोगों के मध्य खड़ा होकर उसे देखता तो लाइन तोड़ कर उस औरत को अपनी जगह खड़ा करने का प्रयास करता। लोगों की असंवेदनशीलता और अधैर्य इतना हो जाता कि वह जहां से पंक्ति से बाहर होता उस औरत के वहां पहुंचाने तक लोग एक दूसरे से चिपक जाते और उसे उनसे बहुत अनुनय करके उसे वहां खड़ा करना पड़ता। परन्तु वह देखता कि उसका भी कोई लाभ उस बेचारी को नहीं मिलता और वह दिनभर उसी हालत में खड़ी रहती।

क्रमश....

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