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आघात - 37

आघात

डॉ. कविता त्यागी

37

न्यायालय की सहायता से आर्थिक संबल प्राप्त करने के लिए भी उसको आने-जाने तथा अधिवक्ता को देने के लिए रुपयों की आवश्यकता थी । इसके लिए वह रुपये कहाँ से लाये ? यह भी एक बड़ी समस्या थी । इस समस्या ने उसे विचलित कर दिया। उसके पास आय का कोई स्रोत नहीं था । पढ़ी-लिखी होने पर भी व्यावसायिक प्रशिक्षण के अभाव में वह जीविकोपार्जन करने मे असमर्थ थी। उसके बच्चे अभी इस योग्य नहीं थे कि वे कुछ जीविकोपार्जन कर सकें ।

पूजा यह भी सोचती थी कि यदि पेट भरने के लिए तीनों प्राणी कहीं कोई छोटा-मोटा कार्य करेंगे, तो दोनों बच्चे जीवन भर ऐसी ही स्थिति में जीने के लिए विवश हो जाएँगे, क्योंकि पेट भरने की चिन्ता में उनकी शिक्षा बिल्कुल बन्द हो जाएगी !

इसी प्रकार सोचते-सोचते वह समय आ गया, जबकि पूजा के घर में खाने के लिए कुछ शेष न रहा और खाने-पीने की व्यवस्था करने के लिए उसके पास रुपये-पैसे भी समाप्त हो चुके थे। भूखे-पेट बैठे -बैठे तीनों माँ-बेटों को सुबह से शाम हो गयी। प्रियांश ने माँ से कहा कि वह अब बच्चा नहीं है ! बड़ा हो चुका है, इसलिए घर में बैठकर भूख-प्यास से तड़पने की अपेक्षा अच्छा है कि अपनी सामर्थ्यानुसार और योग्यतानुसार कोई कार्य करके अपनी आवश्यकताएँ पूरी कर ली जाएँ ! सुधांशु ने भी प्रियांश का समर्थन किया। दोनों भाई जीविकोपार्जन के लिए कुछ भी कार्य करने के लिए तैयार हो गये । न उन्हें उस समय अपनी पढ़ाई-लिखाई की चिन्ता थी, न अपने भविष्य में कुछ बड़ा करने का सपना उस समय उनकी आँखो में था । उस समय उनके पेट की भूख बलवती थी और आँखों में विषम वर्तमान था !........ और मस्तिष्क में था - उस विषम वर्तमान को पराजित करने का संकल्प !

पूजा के समक्ष केवल वर्तमान को जीतने की चुनौती नहीं थी । वर्तमान की विषमता से संघर्ष करते हुए तो उसका आधा जीवन बीत चुका था । आज वर्तमान के साथ-साथ उसकी आँखो में अपने बेटों के उज्जवल भविष्य को लेकर अनेक सपने भी थे। उन सपनों को साकार करने के मार्ग में अनेक बाधएँ और चुनौतियाँ भी थी, जिन्हें पार करके ही पूजा के सपने साकार हो सकते थे।

पूजा भली-भाँति जानती थी कि यदि आज किशोरावस्था में पदार्पण करते हुए अपने बेटों की शिक्षा बन्द करवाकर उन्हें स्कूल के स्थान पर पेट की आग बुझाने के लिए किसी कार्य में लगा दिया जाएगा, तो भविष्य में कुछ बड़ा करने का उनका सपना मिट्टी में मिल जाएगा। इन सभी बातों पर विचार करने के पश्चात् पूजा को एक उपाय सूझा। उसने अपने दोनों बेटों को अपनी ही विशिष्ट शैली में आश्वासन दिया कि वह शीघ्र ही खाने-पीने और उन्हें पढ़ानें के लिए धन की व्यवस्था कर लेगी ! दोनों बच्चे माँ की ओर आशा भरी प्रश्नसूचक दृष्टि से देख रहे थे कि आखिर अचानक उनकी माँ धन की व्यवस्था कहाँ से करेगी ? पूजा ने बच्चों की दृष्टि को समझते हुए उनकी ओर मुस्कराकर रहस्यमयी मुद्रा में कहा -

‘‘तुम दोनों निश्चिंत होकर अपनी पढ़ाई करो ! मुझे लौटकर आने में मात्र आधा घण्टा लगेगा ! तुम्हारी स्कूल-फीस और खाने-पीने की सारी व्यवस्था अच्छी प्रकार से हो जाएगी !’’

यह कहकर पूजा अलमारी की ओर बढ़ी और उसमें से अपने कुछ गहने निकालकर अपने पर्स में रख लिए । प्रियांश और सुधांशु को अब अपने चित्त में उठ रहे सभी प्रश्नों के उत्तर मिल चुके थे। उन्होंने आगे बढ़कर माँ द्वारा किये गये उस उपाय पर प्रश्न लगाते हुए कहा -

‘‘मम्मी जी ! आपको अपने आभूषण बेचने की आवश्यकता नहीं है ! ये आभूषण आपके पास नाना जी और नानीजी की यादों के रूप में सदैव रहने चाहिए ! आप इन्हें वापिस रख दो ! हम दोनों भाई सबकुछ सम्भाल लेगे !’’

‘‘तुमसे मूल्यवान और तुम्हारे भविष्य से महत्त्वपूर्ण मेरे लिए कुछ भी नहीं है ! ये आभूषण भी नहीं ! अब रही बात तुम्हारे नाना-नानी की यादों को संजोकर रखने की, तो उन्होंने ये आभूषण आपातकाल में मेरी सहायता के उद्देश्य से ही दिये थे ! पिताजी ने मुझे अनेक बार ऐसी कहानियाँ सुनायी थी, जिनमें बेटी को स्वर्णाभूषण या चाँदी देने का उद्देश्य उसे आपत्ति के समय सामर्थ्यवान बनाना होता है !’’

अपने दोनों बेटों को तार्किक उत्तर देकर पूजा मुस्कराती हुई प्रसन्नवदन घर से बाहर चली गयी और सर्राफा में जाकर अपने आभूषण बेच दिये। लगभग आधा घण्टे के अन्दर ही वह घर लौट आयी और बच्चों के प्रिय खाद्य-व्यंजन बनाकर सस्नेह उन्हें खिलाया, स्वयं भी खाया और उसके बाद निद्रा की गोद में समा गये।

अपने आभूषण बेचने के पश्चात् पूजा में अपने अधिकारों के प्रति एक नयी और अभूतपूर्व चेतना का उन्मेष हुआ था । अब तक वह रणवीर से केवल अपने बच्चों का पालन-पोषण और उनकी शिक्षा-प्रशिक्षण हेतु धन की आवश्यकता को पूरा करने के लिए न्यायालय की शरण लेना चाहती थी । इसके लिए भी उसके पास धन नहीं था। कहाँ से वकील की फीस दे ? कहाँ से कोर्ट तक आने-जाने का किराया भाड़ा दे ? कोर्ट के अन्य खर्चों के लिए धन की व्यवस्था कहाँ से करे ? आदि प्रश्नों के साथ घर में खाने-पीने की व्यवस्था करने के लिए भी धन का अभाव उसके जीवन को निराशा के अंधेरे में ढ़केल रहा था। परन्तु, अपने आभूषण बेचने के पश्चात् उसके हृदय में क्रोध और चेतना का एक ऐसा समन्वित नया भाव जाग्रत हो रहा था, जिसमें रणवीर के अपराधों को क्षमा करने की अपेक्षा दण्ड का संकल्प था ।

उसने संकल्प किया कि अब अपने अधिकारों के लिए उसे न्यायालय में जाना ही होगा ! अब वह रणवीर जैसे पुरुषों को दिखा देना चाहती थी कि एक स्त्री में असीमित शक्तियाँ समाहित हैं ! वह अपने जीवन में आने वाली प्रत्येक बाधा पर विजय पा सकती है ! वह अबला नहीं है ! उसके स्त्रियोचित उदात्त स्वभाव और उदारता का निर्वाह करने के कारण उसे अबला समझकर उस पर अत्याचार करने वालों पर वह सदैव भारी पड़ती है ! पूजा ने यह भी संकल्प किया कि उसे किसी भी दशा में हारना नहीं है, क्योंकि उसकी हार केवल उसकी हार नहीं होंगी, बल्कि एक पत्नी की तथा एक माँ की भी हार होगी ! मर्यादा का निर्वाह करते हुए पति के प्रति एक पत्नी के प्रेम और समर्पण की हार होगी, एक माँ की ममता की हार होगी, जो अपने बच्चों के लिए पिता के स्नेह की अभिलाषा करती है ! इन सबकी हार समाज के लिए कल्याणकारी नहीं हो सकती ! अतः अन्याय के विरुद्ध उसे लड़ना भी होगा और जीतना भी होगा !

अपने संकल्प को दोहराते हुए पूजा ने अपने अन्तःकरण में अनुभव किया कि अब वह अशक्त नहीं हैं ! उसके अन्दर की माँ और पत्नी उसको अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए शक्ति प्रदान कर रही थी । इसी शक्ति को अनुभूत करके पूजा ने अपने वैवाहिक जीवन की दूसरी संघर्ष-यात्रा आरम्भ कर दी। आज तक उसके संघर्ष में उसके शस्त्र सहनशीलता और क्षमाशीलता जैसे उदात्त गुण रहे थे, किन्तु आज उसको अपने संघर्ष साधनों - अपने शस्त्रों में परिवर्तन करना पड़ा था । आज तक पूजा अपने कर्तव्यों पर अपना सारा ध्यान केन्द्रित करके उन्हें पूरा करने में तन-मन से लगनशीन रहती थी, किन्तु आज वह अपने अधिकारों के प्रति सजग थी ।

अपने अधिकारों के प्रथम संघर्ष का श्रीगणेश करते हुए पूजा ने सर्वप्रथम एक वकील से सम्पर्क करके उसे अपनी सारी स्थिति से अवगत कराया और अपने पक्ष में सम्भावनाओं की जानकारी ली। पूजा की सम्पूर्ण स्थिति से परिचित होने के पश्चात् वकील ने उसको घरेलू हिंसा, गुजारा भत्ता तथा अन्य स्त्री के साथ रणवीर के अवैध-सम्बन्ध आदि के अनेक केस रणवीर के विरुद्ध फाइल करने का परामर्श दिया। वकील ने पूजा से कहा -

"वाणी के साथ रणवीर के अवैध सम्बन्धों का समर्थन करने वाले उसकी माँ, बहन, भाई आदि परिवार के अन्य लोगों को सही राह पर लाने के लिए घरेलू हिंसा का केस करना आवश्यक है ! किन्तु, पूजा ने केवल गुजारे-भत्ते की फाइल को ही आगे बढ़वाना उचित समझा। वह आज भी रणवीर से और उसके परिवार के किसी सदस्य से प्रतिशोध लेने की मानसिकता नहीं रखती थी । न ही उन्हें किसी प्रकार का कष्ट देने के लिए अपने मूल्यवान समय और धन का अपव्यय करना चाहती थी । अब भी वह केवल रणवीर से उसके बच्चों के लिए तथा स्वयं के लिए गुजारे-भत्ते के रूप में आर्थिक अवलम्ब प्राप्त करना था ।

न्यायालय की सहायता से अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए पूजा को पर्याप्त धन की आवश्यकता थी। वकील और कोर्ट की फीस, वहाँ तक आने-जाने का किराया तथा अन्य इसी प्रकार के अनेक खर्च थे, जिन्हें वह अपने आभूषण बेचकर प्राप्त हुए रुपयों से पूरा नहीं करना चाहती थी। आभूषणों को बेचकर प्राप्त धन को वह केवल अपने बच्चों के खाने-पहनने और उनकी पढ़ाई पर ही खर्च करना चाहती थी। वह नहीं चाहती थी कि बच्चों के खर्च के विषय में सोचे-विचारे बिना ही वह उस धन को कोर्ट-केस में खर्च दे और अन्त में बच्चों की पढ़ाई बन्द करनी पड़े तथा घर में खाने-पीने की व्यवस्था करने के लिए भी समस्या खड़ी हो जाए ! यद्यपि पूजा के पास अभी कुछ आभूषण शेष बचे थे, तथापि वह उन्हें केवल उस समय ही बेचने के पक्ष में थी, जबकि कोई विपत्ति आ पड़े ! कोर्ट में केस लड़ने के लिए नहीं ।

पूजा जानती थी कि गहने बेचकर उसकी गुजर अधिक समय तक नहीं हो सकती है। अतः उसने आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए अपने भाई यश से समपर्क किया। यश ने प्रथम निवेदन पर ही अपनी नकारात्मक प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए स्पष्ट कर दिया कि वह पूजा की किसी प्रकार से कोई सहायता नहीं करेगा ! यश के विचार से पूजा का कोर्ट में जाना और रणवीर के विरुद्ध केस फाइल करना न केवल पूजा की बल्कि उसके निकट-सम्बन्धियों की सामाजिक मान-प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला देगा । ऐसी स्थिति में वह पूजा का साथ देकर, उसका सहयोग करके अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी नहीं मार सकता था।

यश से नकारात्मक उत्तर मिलने के पश्चात् किसी अन्य से आर्थिक सहायता मांगना पूजा को उचित नहीं लगा। अब न तो वह किसी से आर्थिक सहायता की अपेक्षा रखती थी, और न ही अपने शेष बचे हुए आभूषण बेचना चाहती थी। अतः अब उसने दृढ़तापूर्वक एक अन्य श्रेष्ठतर विकल्प चुना। उसने स्वावलंबी बनने का निश्चय किया और अपनी शिक्षा के बल पर आर्थिक स्वावलंबन प्राप्त करने की दिशा में अपना कदम बढ़ाना आरंभ कर दिया। इस क्रम में सर्वप्रथम उसने वर्षों से धूल चाट रहे अपने शैक्षिक अंकपत्रों तथा प्रमाणपत्रों को एकत्र किया । तत्पश्चात् समाचार पत्रों में अपनी योग्यता और रुचि के अनुरूप रिक्तियाँ छाँटकर विज्ञापन देने वाली जॉब एजेंसियों से सम्पर्क करना आरंभ किया ।

जॉब एजेंसियों में से अनेक ने शत-प्रतिशत जॉब दिलाने का वचन दिया था और इसके लिए ऑफिस में आकर फॉर्म भरने का निर्देश दिया था । उनके निर्देशानुसार पूजा उनके ऑपिफस में गयी, जहाँ पर एक-एक हजार रुपये फॉर्म-फीस लेकर उन्होंने पूजा को कॉल करके स्वयं ही बुलाने का आश्वासन देकर भेज दिया। चार-पाँच दिन तक पूजा ने उनकी कॉल आने की प्रतीक्षा करने के पश्चात् स्वयं ही सम्पर्क करके अपनी जॉब के विषय में जानकारी प्राप्त करने का प्रयास किया, परन्तु वहाँ से उसको कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिला। सन्तोषजनक उत्तर न मिलने पर वह ऐजेंसी के उसी कार्यालय पर पुनः आयी, जहाँ पर उसने फार्म-शुल्क के रूप में एक हजार रुपये का भुगतान किया था । पूजा को वह कार्यलय बन्द मिला । पास-पड़ोस में उसके विषय में पूछने पर पूजा को ज्ञात हुआ कि वे एजेंसी चलाने धोखेबाज लोग थे और पुलिस के भय से यहाँ से अपना धंधा बंद कर चुके हैं । वह अपने उस दिन पूजा को अनुभव हुआ कि जॉब ऐजेंसियाँ लोगों को लूटने का धंधा करती हैं ! अतः उसने जॉब ऐजेंसियों का सहारा छोड़कर सीधे उन विज्ञापन-दाताओं से सम्पर्क किया जो किसी ऐजेंसी की भागादारी के बिना स्वयं ही योग्य अभ्यर्थियों से आवेदन मांगते हैं। पूजा ने ऐसी अनेक जगहों पर आवेदन किया, परन्तु कहीं पर वेतन बहुत कम था, कहीं पर कार्य उसकी रुचि के अनुरूप नहीं था। जहाँ पर वेतन और कार्य दोनों उसकी इच्छा के अनुरूप थे, वहाँ पर उसे अयोग्य सिद्ध कर दिया गया। उसकी अयोग्यता का मुख्य बिन्दु तकनीकी ज्ञान के साथ किसी क्षेत्र विशेष में कार्यानुभव का अभाव रहा था।

डॉ. कविता त्यागी

tyagi.kavita1972@gmail.com

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