नो ! Kailash Banwasi द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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नो !

‘नो’!

कैलाश बनवासी

‘‘प्रभा, लोन वाली फाइल का अपडेट करके जाना। ...ये आगे भेजना है। ’’

अविनाश सर ने जब अपने सूखे लहजे में कहा तो उससे कुछ कहते नहीं बना। बोस की कैसे हुक्मउदुली करे वह, वह भी इन चार महीने की छोटी-सी अवधि में?

लगभग प्रार्थना करते हुए उसने कहा, ‘‘सर, आलरेडी छह बज चुके हैं...। ’’ सामने टंगी दीवार घड़ी में छह बीस हो चुके थे।

‘‘नो नो ना, े प्रभा...। इट इज़ मस्ट.!..अपडेशन नहीं होगा तो इंक्वायरी हो जाएगी...। ’’ सुनहरे फ्रेम के चश्मे के भीतर से उनकी आँखें चमक रही हैं।

‘‘सर, पर ये तो आप देख सकते थे’’’...प्रभा को पता है इसे डील करने की जिम्मेदारी अविनाश सर की है, लेकिन उन्होंने तो जैसे ठान ही रखा है भले खाली बैठे रहेंगे, लेकिन काम सारे अपने जूनियर्स से ही करवाएंगे!

‘‘मेरे पास और बहुत से काम हैं। और आप लोग काम नहीं सीखोगे तो करोगे कैसे, आंय? अभी तो आप लोग जुनियर हो, सीखने की उम्र है। आपको पूरा ऑफिस हैंडल करना आना चाहिए...एवरीथिंग...यू हैव टू नो एवरीथिंग...!’’ अविनाश सर कपटभाव से हँसे। हँसने पर उनके होंठ खुल गए और गुटके के आदिकालीन महाउपभोक्ता होने की गवाही देते उनके कत्थई रच चुके दांत अपनी झलक दिखला गए।

उनके चेम्बर में गुटके की पाउच-लड़ियां उनके दराज में पड़ी रहती हैं और वे बेफिक्र होकर उसका सेवन करते रहते हैं। बीच-बीच में पीक मारने खिड़की के पास आते हैं।

‘‘इन्हें तो गुटका कंपनी की तरफ से ‘बेस्ट कस्टमर’का एवार्ड मिलना चाहिये!’’ प्रभा और सुमन आपस में कहकर हँसती हैं-या फिर ‘लाइफ टाइम एचिवमेंट एवार्ड!’

स्टाॅफ में कुल चार लोग तो हैं। वह, सुमन, बोस और टेम्प्ररी बेसिस पर रखी गयी पिअन राधा। लेकिन राधा पढ़ी-लिखी लड़की है। इसलिए ऑफिस के झाड़ूू-पोंछें के बाद वह ग्राहक सेवा वाले काउंटर में बैठती है, लोगों को फार्म देने, फार्म भरने, समझाने जैसे दसियों काम। वह इसी गाँव की है हायर सेकेड्री पास है और अपना काम बखूबी कर लेती है। वह इस ब्रांच में पिछले चार साल से है, जब से यहाँ ब्रांच ओपन हुआ है।

बोस अपने केबिन में। पब्लिक डीलिंग और मैनेजरी उनके जिम्मे। कब कहाँ क्या और कैसे होगा, यह तय करना उनका काम। वे पिछले पंद्रह साल से हैं बैंक में।

सुमन तो कुछ नहीं बोलती। हद से भुनभुनाकर रह जाती है और बात मान लेती है। लेकिन प्रभा की तनातनी बोस के साथ बढ़ती जा रही है, दिनोंदिन।

खासकर इन दिनों।

उसने तो कोई दो महीने पहले ही सर का विरोध किया था जब सर उसे आसपास के गाँवों में बैंक की तरह-तरह की स्कीम्स को प्रमोट करने लोगों से संपर्क करने घर-घर भेजने लगे थे। नयी-नयी थी तो शुरू में कुछ नहीं कहा। उसे ये काम पसंद नहीं था। उसे पता था, इस काम के लिए दूसरी क्वालिटि की लड़कियाँ चाहिये...स्मार्ट, गुड-लुकिंग, प्रोफेशनल, मार्केटिंग में एक्सपर्ट, और बोलने में ही नहीं, सुनने-सहने में आगे जो रहे...। पता नहीं क्यों, प्रभा से यह सब नहीं होता, ना ही उसकी रूचि है ऐसे कामों में। इसके बावजूद उसको भेज दिया जाता है। इसी से तंग आकर उसने एक दिन अविनाश सर से कहा था, ‘‘नहीं सर, प्लीज ये मुझसे नहीं होगा...। ’’

‘‘अर्रे वाह! कैसे नहीं होगा? एू हैव टू डू इट! इट्स आल्सो योर ड्यूटी!’’

यहाँ बोस के खिलाफ जाने का रिवाज नहीं है, लेकिन वह पा रही थी, कि ऐसे तो काम चलने वाला नहीं है। उसने बोस को याद दिलाया था-सर, मेरी पोस्टिंग ‘आॅपरेशन’ में हुई है। मैंने तो अपने इंटरव्यू में सेलेक्टर्स को पहले ही कह दिया था, मैं ‘सेल्स’ में नहीं काम करूँगी करके...। एंड दे नोडेड।

-यस आइ नो इट। यू हैव आलरेडी टोल्ड मी दिस। बट यू सी...इट इज अ स्माल ब्रांच..एंेड वी हैव नाट एनी अदर आॅप्शन...।

अविनाश सर ने फिर अपना वही रटा-रटाया जुमला उछाल दिया था जो पिछले दो महीने से वो सुनती आ रही थी! स्माॅल ब्रांच! वी हैव नो आॅप्शन!यू हैव टू डू!

स्माॅल ब्रांच!!

जबकि ज्वइनिंग के समय उसे यही बात कितना सुकून देती थी- स्माॅल ब्रांच!वो भी एक गाँव में!वाऊ!!.

उसके शहर भिलाई से पचपन किलोमीटर दूर, दुर्ग-बालोद रोड के एक गाँव में स्थित एक छोटा-सा बैंक!.ज्वाइनिंग के पहले उसे बेइंतेहा खुशी थी! सोचती थी, यार, यहाँ तो मैं बोर हो जाऊँगी बिलकुल! भला काम ही कितना होगा? और वैसे भी, जब उसे पता चला था कि यहाँ तो पहले से ही एक सरकारी बैंक है, एस.बी.आई. की, तब तो उसे लगा था कि बस यार, अब तो आराम ही आराम है जिंदगी में!काउंटर पर बैठे-बैठे टी.वी. देखते रहेंगे-सास-बहू वाले सीरियलों की गहनों से मार लदी-फदी और लेटेस्ट फैशन की साड़ी-लहंगे की नुमाइश करतीं खूब गोरी- गोरी और सुंदर सास और बहुएँ!! जिन पर वह हमेशा हँसती रही है, और बाज-वक्त मम्मी को इनके प्रति दीवानगी के लिए डपटती भी रही है!...कि टी.वी. देखते-देखते मस्त एसी की हवा लेते रहेंगे वहाँ ठंडी-ठंडी! उसे याद आया, व्हाटसप् पर पिछले साल जो एक बढ़िया जोक आया था-

‘गरमी से राहत पाने किसी ठंडी जगह जाना चाहते हैं?

तो आइये, इन जगहों पर चलंे

येस बैंक

एक्सिस बैंक

एच.डी.एफ.सी. बैंक

आई डी. बी. आई बैंक

और हाँ, भूलकर भी स्टेट बैंक में न जाएं...क्योंकि वहाँ की एसी पिछले साल से बिगड़ी पड़ी है!’

वह ऐसा ही सोचती थी, और इस पर उसे यकीन भी था, कि आखिर गाँव में , आलरेडी एस.बी. आई. की एक ब्रांच होने पर आखिर यहाँ कितना काम होगा। गाँव में वैसे ही लोग कम पढ़े-लिखे होते हैं और बैंक की लिखा- पढ़ी से बचना चाहते हैं। फिर यह बैंक यहाँ नया है, और सबसे बड़ी बात कि प्राइवेट है! गाँव हो या शहर, सभी सरकारी बैंक को ही प्रिफेंस देते हैं। इसलिए ग्राहक संख्या भी कम ही होगी...।

... और प्रभा ने जो सामने पाया, वह तो उसकी सोच या कल्पना से बिलकुल उलट! असल में पास में एक तहसील है, जिसके ज्यादातर ग्राहक उसके प्राइवेट बैंक के हैं। उसे कितना आश्चर्य हुआ था, कि गाँव जैसी जगह में किसी सरकारी बैंक के होते, एक प्राइवेट बैंक ने-महज चंद सालों में- कितनी होशियारी से, या कितनी कर्मठता और अपने परफार्मेंस से, अपना कारोबार इतना फैला लिया है कि इलाके के सŸार फीसदी कस्टमर यहाँ हैं। सारे ‘क्रीम’कस्टमर यहाँ हैं!सरकारी बैंक के लिए मजबूत प्रतिद्वंद्वी और कठिन चुनौती बन चुके हैं। और ये बाकी के तीस परसेंट को भी खींचकर अपने पास ले ही आना चाहती है- कैसे भी हो! जबकि स्टाॅफ कम है...।

प्रभा को बिलकुल समझ नहीं आता, भला ये कैसे और किन स्कीम्स से, या कि किन प्रलोभनों से हो गया? या कि सरकारी बैंकों की अपनी बंधी-बंधाई परम्पराागत कार्यशैली, नौकरशाही या आलस्य अथवा अपने ढीले-ढालेपन के कारण?कारण चाहे जो हो। लेकिन यहाँ यह बात तय है कि सरकारी बैंक उनके मुकाबले पिछड़ गया है, और बुरी तरह से! और उनके ब्रांच में आज इतना काम है कि खत्म होने का नाम नहीं लेता। सुबह साढ़े नौ बजे से अपनी सीट में प्रभा जो बैठती है, तो फिर कब उठेगी, इसकी कोई समय-सीमा नहीं। इतना काम!!

और इधर पिछले कुछ बरसों से सरकार ने अपनी हर योजना, हर काम के लिए बैंकों को पकड़ लिया है! तब से भीड़ बैंक में दिन-दिन भर बनी रहती है। अपने रूटीन लेन -देन, होम लोन, कार लोन इत्यादि तो हैं ही, इनके साथ गाँव वालों को निराश्रित पेंशन, विधवा पेंशन, कृषि-ऋण, सस्ते दर पर गैस कनेक्शन, आधार कार्ड को खाते से लिंक करना...। । उसने कभी नहीं सोचा था बैंक के इतने सारे काम होते होंगे। उसने तो हद से हद यही सोचा था, पैसे जमा करना और निकालना...। लेकिन उसके बहुत सारे भ्रम नौकरी में आने के बाद टूट गए।

प्रभा ने यों तो इंजीनियरिंग की हुई है-इलेक्ट्राॅनिक्स एंड टेलिकम्युनिकेशन में। पढ़ाई के दौरान वे सभी सुनहरे ख्वाबों में जीते रहे, इंजीनियर बनने का सपना देखते रहे। और इस सपने को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाने का काम यहाँ की प्राइवेट इंजीनियरिंग काॅलेज करती रहीं और अपना दिन-दूनी रात चैगुनी विस्तार करती रहीं। । पढ़नेवाले हर इंजीनियर का सपना कि अच्छे पैकेजवाली बड़ी कंपनियों में जाॅब, या अच्छी सेलेरी वाली सरकारी नौकरी, शानदार ऑफिस, कार, बंगला, नौकर...आॅल इन आॅल, अ वेरी एक्साइटिंग एंड लक्ज़्ारियस लाइफ़!

लेकिन पढ़ाई ख़त्म होते-होते पूरा परिदृश्य ही मानो किसी नाटक के सीन की तरह बदल गया था! मंदी आ गयी। नौकरियों का टोटा हो गया! खासकर सरकारी क्षेत्र में। निजी क्षेत्रों में नौकरी में रखना तो दूर, जो लगे थे और कमा रहे थे, बड़ी तादाद में उनकी छंटनी होने लगी। सोचे हुए सारे ख्वाब मुँह के बल गिर गए, धूल में मिल गए। और आज की तारीख में बी.ई. वालों की तो बहुत बुरी गत है। और उसके पढ़ते-पढ़ते ही इंजीनयरिंग को लेकर कितने तो जोक्स आ चुके थे उनके बीच। जैसे-

‘बी.ई. करने से क्या होता है?

होता कुछ नहीं, बस मन को शांति मिलती है। जैसे तेरहवीं करने से मृतात्मा को शांति मिलती है, वैसे ही। ’

या, एक यह जोक जिसे पढ़कर वह अपनी हँसी नहीं रोक सकी थी-

एक ताजा-ताजा इंजीनयरिंग पास नौजवान किसी मंदिर में पहुंचा। वहाँ उसने बरामदे में दाढ़ीवाले छह साघु बैठे देखे। उसने पूछा, बाबा, मैंने इंजीनयरिंग पास कर ली है। अब आगे क्या करूँ?

एक ने कहा, अरे, इसके लिए भी एक चटाई निकाल!!

इंजीनयरिंग में काम नहीं मिलने के कारण प्रभा पिछले साल बिलकुल बेरोजगार रही। घर पर रहकर रोज माँ-बाप की थकी-झुकी आँखों का सामना बहुत शर्म और ग्लानि के साथ करती रही। हमेशा रोजगार का सवाल सबसे बड़ा सवाल बनकर हर पल कोचता रहता था। और विकल्प भी कुछ नहीं। फिर समय काटने के लिए एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाते हुए बैंक की नौकरी की तैयारी शुरू कर दी थी। आखिर कहीं न कहीं तो जाॅब करना ही है! बैंकिंग में जाॅब स्कोप है, सोचकर। और उसने पाया कि ढेर सारे इंजीनियर्स अब बैंकिग की परीक्षा की तैयारी में जुट गए हैं-उसके कितने ही साथी! आखिर क्या करें? उसने भी बैंकिंग के लिए कोचिंग सेंटर ज्वाइन कर ली। और एक ही साल में उसने इस बैंक के क्लर्क की परीक्षा पास कर ली। और इंटरव्यू भी निकाल लिया। बोर्ड मेम्बर उसकी दक्षता से, जवाबों से बहुत संतुष्ट हुए थे। वहीं उससे पूछा गया था, आप सेल्स में जाना पसंद करेंगी कि आॅपरेशन में। उसने सीधे कहा था- आॅपरेशन!

वह जूनियर थी, इसलिए अक्सर सारे काम उसी के हवाले कर दिये जाते थे। वह देखती थी कि वह काम के ऊपर काम किये जा रही है और उसका बोस बैठा हुआ है। वह मैनेजर है। कुल चार लोग तो इस बैंक में हैं वे। वह और सुमन। बोस कभी कभी उनको खुश करने के लिये मज़ाक में कहता है- मेरे दो अनमोल रतन...प्रभा और सुमन!

वह करती आ रही है। जो जो काम लाकर उसकी टेबिल पर पटक दिया जाय....। क्या करेगी, नौकरी जो करनी है! पापा ने कितने सपनों के साथ उसे पढ़ाया, लिखाया! एक मामूली क्लर्क होते हुए भी। जैसे भी हो, किसी हद तक उनके सपनों को पूरा तो करना ही है! घर में मम्मी-पापा उसकी इस नौकरी से बेहद खुश हैं!समाज में, चार लोगों में अब यह बड़े सम्मान की बात हो गई है कि सुनील भटनागर की बेटी बैंक में नौकरी कर रही है! अभी सत्रह हजार तनखा पा रही है!बाद में और बढ़ेगा!

ज्वाइनिंग के वक्त प्रभा को इस बात की बहुत खुशी हुई थी कि ब्रांच में कोई उसकी हमउम्र भी है। सुमन और उसकी ज्वाइनिंग साथ की है। लगा था, दोनों सहेली बनकर रहेंगे। प्रभा भिलाई की लड़की है और सुमन बागबाहरा महासमुंद की। और यह स्थान और माहौल का फर्क कहें या कि घर की परवरिश का, या कि काम के प्रति अपनी मजबूरी, कि सुमन उससे अलग है। वह बिना कुछ कहे, चुपचाप काम करने वाली लड़की है, चाहे कितना ही काम दे दो।

‘अब नौकरी है, करनी तो पड़ेगी, बहन...। कम्प्यूटर स्क्रीन में डूबे हुए उसके मुँह से निकलता है।

या कभी ऑफिस का काॅमन जुमला दोहरा देती है- प्रभा, बोस इज आलवेज राइट!

लेकिन बोस के ‘आलवेज राइट’ होने में उनकी पोज़िशन टाइट पर टाइट होती जा रही है, दिन पर दिन..। .

बोस अविनाश ने परख लिया है कि प्रभा ज्यादा होशियार है और काम की निपुणता में, परफेक्शन में सुमन उसका मुकाबला नहीं कर सकती। इसलिए होने ये लगा, कि धीरे-धीरे ऑफिस के सारे महत्वपूर्ण दायित्व एक-एक करके उसके कंधों पर आते गए...या कहो कि लदते गए। प्रभा को शुरू-शुरू में यह बहुत सकून देता था, भीतर से कहीं गर्व से फूल जाती थी, कि बैंक का लगभग सारा काम उसके जिम्मे आ गया है। और उसे तो अभी सीखना है।

हाँ, बोस भी उनसे अक्सर यही बात कहता रहता है-अरे, अभी आप लोग नये हो। आप लोगों को तो अभी काम सीखना है। अभी नहीं सीखेंगे तो फिर कब सीखेंगे? इसलिए सीखने से कभी भी पीछे नहीं हटो...डू यू अंडरस्टैंड....?

येस सर...। उनका जवाब।

लेकिन काम का बोझ तो बढ़ता ही जा रहा था, बल्कि अपनी इंतेहा में पहँुचने लगा था...। लग रहा था वे दोनों यहाँ बैल-भैंस की तरह खटने के लिए ही अप्वाइंट किये गए हैं। काम ही काम। आराम के लिए जगह, गुंजाइश नहीं। सिवा छुट्टी के दिनों को छोड़कर। संडे के दिन प्रभा घर में जमकर सोती थी! आखिर कहीं न कहीं से तो भरपाई करनी थी।

पहले दो महीने तक प्रभा अपने घर भिलाई से आना- जाना करती थी। और सुमन पास के तहसील में अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ रहती थी ।

सुबह सात बजे की बस से नौकरी के लिए निकलती थी., जो भी थोड़ा-सा कुछ खाकर। इतनी सुबह वैसे भी भूख कहाँ लगती है? मम्मी दो-चार रोटीया परांठा डाल देती टिफिन में, वही उसके लिए खाना होता। पर भला खाने का समय कहाँ मिलता है इस बैंक में? उसने तो यहीं आकर जाना कि इस प्राइवेट बैंक के रूल्स सरकारी बैंकों से अलग हैं! यहाँ उनके लंच का कोई तय टाइम नहीं है। बैंक का नियम यह है कि काउंटर पर कस्टमर खड़ा है तो आपको उसे निपटाना है। और जाने कैसे इस बैंक में ग्राहकों की संख्या सरकारी बैंक से चार गंुने ज्यादा है। अक्सर ग्राहकों की लाइन खत्म हाने का नाम नहीं लेती! वे दोनों काम से उकता चुके होते, थक चुके होते, लेकिन कस्टमर को लौटाना नहीं सकते! अपना टिफिन लेते उन्हें कभी चार बज जाते तो कभी पाँच। तब तक भूख भी दिन की तरह ढलकर खत्म हो चुकी होती। मम्मी की बनाई रोटियाँ सूखकर कड़ी हो चुकी होतीं और सब्जी का स्वाद उतर गया होता। बेमन से पेट में किसी तरह ठूँसते।

और कई बार तो उनको भूखा ही रह जाना पड़ता है। काउंटर बंद नहीं कर सकते थे।

उसे लगता, ये तो ‘ह्यूमन राइट’ का सरासर उल्लंघन है! आदमी खाने के लिए ही तो कमाता है। और यहाँ तो खाने के लिए भी टाइम नहीं। एक-दो दिन की बात हो तो चलो आदमी कर भी ले। यह तो रोज का सिलसिला है! कब तक ऐसे ही झेलते रहेंगे? बैंक दूर होने से बस से आते दो-ढाई घंटे लगते हैं और इतना ही वक्त लौटने में। घर लौटने में उसे देर हो जाती। अक्सर उसे दुर्ग जाने वाली रात आठ बजे की आखिरी बस ही मिलती। जो रात में ड्राइवर-कंडक्टर की मनमर्जी से से चलती-आठ के साढ़े आठ या कभी-कभी नौ भी बज जाते। और दूसरी मुश्किल यह कि इस समय बस में बस गिनती के ही सवारी होते। और तीसरी मुश्किल-ड्राइवर-कंडक्टर या दूसरे भी मुसाफिर इस समय पिये-पाये होते। कई बार तो उसने पाया है कि वह कुछ आगे जाने के बाद बस में इकलौती सवारी रह गई है। ऐसे में उसे डर लगने लगता-शहर की पढ़ी-लिखी और नौकरीपेशा होने के बावजूद!जाने कितने और कैसे-कैसे भयानक खयाल उसके दिमाग में चक्कर काटने लगते। ड्राइवर-कंडक्टर की सामान्य नजर भी इस समय कुछ और लगने लगती...किसी अश्लील प्यास से भरी...। वह खुद को और-और सिकोड़ने-समेटने लगती, बार-बार। कुछ साल पहले घटित बर्बरता की सारी हदें लाँघता निर्भया कांड दिमाग में मानो फ्रिज हो जाता। उसकी साँस जहाँ की तहाँ...।

घर पहुँचते- पहुँचते उसे रोज दस-ग्यारह बज जातेे थे।

शुरू-शुरू में मम्मी या पापा उससे पूछते थे, अरे, इतनी देर कैसे हो गई? थकान से चूर वह बस इतना बोलकर रह जाती थी, कि बहुत काम रहता है। इससे आगे वे क्या पूछते?लेकिन मम्मी पापा उसके काम का बोझ देख रहे थे, उसका तेजी संे कम होता वजन, दुबलाता शरीर, वह सांवली थी लेकिन चेहरे पर जो सलोनी रौनक बनी रहती थी, वह भी धूमिल हो रही थी। बल्कि चेहरे और आँखों पर काम की थकान इधर उसका स्थायी भाव बन गया था- बुझा-बुझाा सा चेहरा..। लेकिन वे कुछ पूछने या ‘जल्दी आने की कोशिश किया कर’, या ‘बोलके आ जाया कर’टाइप सुझावात्मक वाक्य बोलने के अलावा कर भी क्या सकते थे? जो कुछ फेस करना था, उसे ही।

आने-जाने की झंझट से बचने के लिए उन दोनों ने गाँव में ही बैंक के पास एक घर किराये पर लेकर रहना शुरू कर दिया। दोनों को लगा था, अब कुछ आराम मिल सकेगा। तय कर लिया था कि संडे के संडे घर चली जाया करंेगी। रोज रोज के आने-जाने के झंझट, बस का किराया, जिसमें उसकी तनख्वाह का एक तिहाई निकल जाता था, बंद होगा और राहत मिलेगी।

लेकिन बोस ने तो उनकी इस सुविधा पर अपनी नजर लगा दी थी।

अब उन्हें काम खतम करने के लिए और अधिक देर तक रोका जाने लगा।

तर्क में कहा जाता, अरे, आप दोनों तो यहीं रहती हो! कल के लिए पेंडिग मत रखिये। निपटा के ही जाइये।

दोनों को हेड का कहा मानना होता। घर लौटते सात साढ़े-सात बज जाते।

काम का बोझ उनका बढ़ता ही जा रहा था। लेकिन प्रभा देखती कि सुमन को इसे लेकर वैसी शिकायत नहीं होती थी जैसे उसे। उल्टे, वह प्रभा को ही समझाने लगती, देखो, नौकरी का मतलब ही है नव कर...यानी झुक कर रहना! और फिर ये देखो, कि ये काम हमें ही क्यों मिल रहे हैं? क्योंकि हम इसके लायक हैं! वी डिज़र्व इट!हमें करना आता है! जो जितना जिम्मेदार होगा, उसी को उतना काम मिलेगा न... । और ये तो ईनाम है तुम्हारी क्षमता का!

प्रभा आँखें फाड़े ताकती उसे रह जाती। कौन सी दुनिया में रहती है ये लड़की? उसे दिखाई नहीं देता हमारा इतना ऐ्क्सप्लाॅयटेशन?साढ़े नौ से साढ़े सात तक कंटीन्यु रगड़ाई? सुमन अक्सर कहा करती है, प्रभा, । बी पाॅज़िटिव ंएंड बी कूल...।

उसे लगने लगता, इस लड़की के पास धीरज का कोई अक्षय भंडार है, और यह यहाँ जैसे अनंतकाल तक यूँ ही काम करती रहेगी, चुपचाप...। जो गलत है, एक्सप्लाॅयटेशन है, उसको तक यह अपने जाने कहाँ के वैष्णवी फिलासफी से अपने पक्ष में बताती है!

प्रभा उसे समझाने की कोशिश करती।

जब बार-बार उसने देखा, कि इससे कहने का कोई मतलब नहीं है, क्योंकि वह योग, ध्यान, धीरज और कूल माइंड की बात करने लग जाती है। उसने देखा है, वह हर सुबह ‘यू-ट्यूब’ पर जाने किन-किन गुरूओ-बाबाओं के प्रवचन सुनती है, व्हाट्सअप पर सुबह-सुबह ‘गुड मार्निंग’ के साथ थोक के भाव में भेजे जानेवाले यथास्थितिवादी मैसेजेस् -जिनमें प्रायः खुद को विनम्र, सहनशील, उदार बनााने की आदर्शवादी बातें हुआ करती हैं-को न केवल पढ़ती है, बल्कि प्रभा को भी अक्सर पढ़कर सुनाती हैः

-देख कितना अच्छा मैसेज है-.स्वाद और विवाद दोनों को छोड़ देना चाहिये...स्वाद छोड़ो तो शरीर का फायदा और विवाद छोड़ो तो संबंधों को फायदा...।

- जल से सीखने लायक महत्वपूर्ण बात-कि खुद को हर परिस्थिति और आकार में ढाल लो!

प्रभा जान गई कि एक साथ रहने के बावजूद, विरोध के इस मैदान में वह अकेली पड़ गई है, और उसे अपना मुकाबला खुद करना है।

बोस अपना काम निपटा के साढ़े पांच-छह बजे की बस से निकल जाते हैं-बैंक के बाकी के काम निपटाकर उन्हें बंद करने की हिदायत देकर ।

इधर काम और जिममेदारी अलग बढ़ गयी थी। सर्विस अच्छी देने के कारण कहो, या इनके प्रचार प्रसार के कारण, या सरकारी बैंकों की अपनी कार्यनीति के कारण, बैक बहुत आगे चल निकला। भीड़ हर समय खड़ी मिलती।

नियमतः ब्रांच की क्षमता दो लाख तक ही कैश रखने की थी। इससे अधिक होने पर धमतरी के बैंक में जमा करने का निर्देश था। काउंटर चूंकि वही संभालती थी और इसका हिसाब रखना भी प्रभा की जिम्मेदारी थी। वह सर को बताती, सर, एमाउंट ज्यादा हैं, इन्हें जमा कराने जाना होगा। लेकिन कई बार, अक्सर अपने आलस और आदतवश अविनाश सर काम कल पर टाल देते। और दो लाख की जगह कभी-कभी बीस लाख कैश बैंक में पड़े रह जाते। और प्रभा की जान सांसत में। रात में उसे डर बना रहता कि कहीं डाका पड़ गया तो? जो कि आये दिन इलाके में होती रहती थी। तो ब्लेम उसी के ऊपर आ जाएगा। कैश उसके सिग्नेचर के बाद ही लाॅकर में रखे जाते हैंैं। रात भर उसको धुकधुकी मची रहती। नींद आँखों से दूर। बेचैनी में लगने लगता, खुद जाकर रात भर बैंक की चैकीदारी करने लगे...।

दूसरे, बैंक का पैसा पास के शहर धमतरी में जमा करने के लिए भी उसे ही नियुक्त किया जाता। और उसे लाखों की रकम लेकर कैश-वैन में एक गन वाले गार्ड और ड्राइवर के सहारे पचास किलोमीटर दूर धमतरी में जाना पड़ता। थाने में इसकी सूचना होती, इस ‘विशेष वाहन’ की ट्रैफिक पायलटिंग की जाती, इस के बावजूद, किसी अनहोनी की आशंका से वह हर पल घिरी होती।

इस बारे में भी बोलने पर अविनाश सर उसकी नहीं सुनते। बल्कि सुना देते-इट्स अवर रूटीन वर्क!

उसकी शिकायतों के लिए कोई जगह नहीं थी। यदि हेड ऑफिस उसकी शिकायत की जानी है तो नियमानुसार यह उसके सीनियर के अनुमोदन के बाद ही भेजी जा सकती है। और उसकी शिकायत भला वह ऑफिसर आगे क्यों पहुचाने लगे जिससे उसी पर आँच आए ?

वह जबानी अपने बोस से बोल सकती है। और वही उस दिन उसने किया था।

प्राइवेट बैंकों ने ग्राहकों को लुभाने के लिए कई नयी नीतियाँ अपनायी हैं। उनमें से एक यह है कि जो वी.आई.पी. ग्राहक हैं, उनके बर्थडे पर उनके घरों में जाकर उनको विश करो। ये नहीं कि आपने ऑफिस में बैठे-बैठे उन्हें काॅल करके ‘विश’ कर दिया! नहीं! आप उनके घर जाओ, और बैंक की तरफ से उनको विश करो!

यहाँ भी उसका पालन हो रहा था।

शुरू-शुरू में तो प्रभा नयी थी, सो नौकरी में जो कहा जाय कर देती थी। लेकिन उसे यह काम पसंद नहीं। वैसे भी यह काम सेल्सवालों का है। उसका काम तो ऑफिस तक सीमित होना चाहिये। इस काम के लिये बैंक अलग से अप्वाइंट क्यों नहीं करती? जो इनके चक्कर में फंस गया तो फिर उसे निचोड़ते चलो..?

वह अक्सर इसके लिए मना करने लगी। उसे यह बड़ा अटपटा लगता। व्यर्थ की औपचारिकता! और उसने अनुभव किया है कि गाँव में जाने पर लोगों की नजरें कुटिलतापूर्ण मुस्कातीं ‘कुछ और’ कहने-समझने लगती हैं।

उस दिन पास के एक गाँव के सबसे बड़े किसान का जन्मदिन था। किसान क्या, वह तो जमींदार है और रूलिंग पार्टी का क्षे़त्रीय दबंग नेता। बैंक के प्रचलित शिष्टाचारानुसार उन्हें बर्डे विश किया जाना था, प्रत्यक्षतः। बोस ने सेकेंड हाॅफ में उसे उनके घर जाने के लिए प्रभा से कहा। तो वह अड़ गयी-सर, मैं नहीं जाऊँगी!

-क्यों?

-क्योंकि मेरा अप्वाइंटमेंट ‘आॅपरेशन’ के लिए हुआ है, न कि ‘सेल्स’ के लिए। ये सेल्सवालों का काम है।

-अपने यहाँ कोई सेल्स स्टाॅफ नहीं है। यहाँ जो कुछ करना है वह आपको ही करना है। आपको जाना पड़ेगा।

-सर, आप मुझे जाने को बाध्य नहीं कर सकते। मेरी ड्यूटी काउंटर संभालने की है वो मैं कर रही हूँ।

-नहीं। ये काम भी बैंक का है और आप इसकी इम्पलाॅयी हैं और ये आपकी ड्यूटी है। इसलिये जाना पड़ेगा।

-नो सर!दैट्स नन् आव माइ बिज़नेस।

-लिसन मैडम, आ‘म ब्रांच मैनेजर! आपको क्या करना है क्या नहीं, वो मैं डिसाइड करूंगा!

- नो सर। आ‘म साॅरी। मैं नहीं जाऊँगी! प्रभा के स्वर में गजब की दृढ़ता थी।

- वेल!देन, आइदर यू गो...आॅर गिव योर रेज़िग्नेशन....!! अविनाश सर ने अपना अंतिम हथियार फेंक दिया।

यह नौकरीपेशा लोगों के विरूद्ध ब्रम्हास्त्र है, सबसे बड़ा हथियार, जिसके नाम से ही कर्मचारी दुबक जाते हैं। अक्सर इसका इस्तेमाल करके मामले को सुलटा लिया जाता है।

बोस को पक्का यकीन था कि इस हथियार के सामने प्रभा अपने हथियार डाल देगी। क्योंकि बोस जानता है कि देश के करोडों़ बेरोजगारों के बीच कोई भी नौकरी-सो भी बैंक की-कितनी मशक्कत के बाद मिल पाती है!...रिटर्न टेस्ट, इंटरव्यू.., फिजिकल, मेंटल फिटनेस... इत्यादि-इत्यादि की ढेर औपचारिकताओं के बाद कहीं जाकर सबसे आखिर में आपको नियुक्ति-पत्र मिल पाता है...।

....और यह बात यह लड़की भी जानती है। बहुत अच्छी तरह से। क्योंकि यह एक ज़रूरतमंद लड़की है।

लेकिन अविनाश सर भौचक रह गये, जब प्रभा ने कहा- अभी लिख देती हूँ।

और मैनेजर सहित सुमन, पिअन राधा, गार्ड और बैंक में मौजूद ग्राहक सभी देखते रहे कि प्रभा ने तुरंत एक कागज लेकर लिखना शुरू कर दिया है। सुमन ने प्रभा की बाँह पकड़कर रोकने या कुछ कहने की कोशिश की तो प्रभा ने उसका हाथ झटक दिया ।

अपना रेज़िग्नेशन उसने बोस को सौंपा, उनसे पावती ली और अपना बैग लेकर धड़धडाती हुई बाहर निकल आयी।

सब उसे मुह फाड़े ताकते रह गये।

कोई एक घंटे के बाद वह अपने छोटे से अटैची के साथ बस में सवार हो गयी।

बस अपनी स्पीड से जा रही थी।

खिड़की से आती ठंडी हवा के झोंकों से उसका सारा तनाव धीरे-धीरे बह निकला। अब वह खिड़की से शाम का सूरज डूबता देख रही थी। वह आज जैसे बिलकुल मुक्त हो चुकी थी और फिलहाल अपने बारे में कुछ भी सोचना नहीं चाहती थी। क्योंकि उसे लगा, अगर उसने सोचना शुरू किया तो शायद वापस नहीं जा पायेगी...।

...उसने सिर्फ पापा को फ़ोन किया था, बहुत कठिनाई से, भीतर के जैसे किसी गहरे कुएँ के तल से आती हुई आवाज़ के सहारे उसने कहा था-पापा, मैं आ रही हूँ......।

पापा ने सिर्फ इतना ही कहा था- ठीक है।

और फोन रखने के बाद, अचानक देर से रूका हुआ उसके सब्र का बाँध जैसे फूट पड़ा था और वह बिस्तर पर ढह पड़ी थी, रो रही थी फफक- फफककर...। पिछले एक साल का सबकुछ तेजी से उसकी आँखों के आगे तैर रहा था...।

...वह सबकुछ भूलकर एकटक पश्चिम की आकाश देख रही थी। सहसा उसे महसूस हुआ, उसने जाने कब से ऐसे दिन का डूबना नहीं देखा है....शाम कितनी रंगीन, कितनी खूबसूरत होती है, यह तो वह जैसे भूल ही गयी है! उसे याद आया, यह तो उसका प्रिय शगल रहा है। जब भी पढ़ाई की बोझिलता से वह ऊब जाती, सिर भारी हो जाता और उसे कुछ राहत चाहिये होती, वह चुपचाप घर की छत पर आ जाती और पश्चिम की ओर ताकने लगती....और धीरे-धीरे वह पाती कि आकाश के पल-पल बदलते रंग, बहती ठंडी हवा और हवा में लहराती पतंगें या पंछियों का मंद चाल से अपने घरौंदों को लौटना...सब उसे एक अद्भुत ताजगी से भर दे रहे हंै...और वह खुद को रूई की तरह हल्का और खुश महसूस कर रही है...।

सिंदूरी सूरज और गाढ़ा होकर अब डूबने-डूबने को था। उसने देखा, खेतों के आगे गाँव, गाँव के छोटे-छोटे घरों के पार, दूर आकाश में इस समय कितने सारे रंग बिखरे हैं...सुनहरी, बैंगनी, लाल, नीली, गुलाबी..., दूर पेड़ों के झुरमुटों के पीछे किसी बड़े-से पराट के आकार का सूरज डूब रहा है-सिंदूरी आभा से दमकता हुआ। और आकाश अपने पल-पल बदलते, न जाने कितने शेड्स केे रंगों के साथ जैसे मुस्कुरा रहा है, खुलकर...और प्रभा को लगा, जैसे वह उसको बधाई दे रहा है...।

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कैलाश बनवासी

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