लत का गुलाम Vijay Singh Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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लत का गुलाम

लत का गुलाम

अगहन का महीना था, सर्दी पड़नी शुरू हो गई थी। फसल पानी मांग रही थी, तभी आसमान में घटा होने लगी। शायद वर्षा हो, ऐसा लगने लगा था। इसी इंतजार में आसमान की तरफ देखते-देखते कई दिन बीत गए। फिर एक दिन सुबह को हेता ने अपने दोनों बेटों से कहा -
"अब तौ भइया मेह बरसतौई नांय दीखै है, बादरन की मांई देखत-देखत कई दिन ह्वै गए। अब गेहूं बिगरन लगंगे । या ते तो आज तुम दौनों भइया जायकै नाली छीलिआऔ , कल ते गेंहून में पानी लगायनौ शुरू कर दइयों।"
अगले दिन सुबह हेता ने अपने दोनों बेटों, घासी और कल्लन के सोकर उठने से पहले बैलों को चारा खिलाकर तैयार कर दिया। और स्वयं बैठकर हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। जब घासी और कल्लन सो कर उठे तो हेता ने तुरंत ही उनसे कहा -
"बैलन नै न्यार खाय लियौ है। दोनों भइया बैलन नै लेकै रहट चलावे कू जाऔ। ठन्डी कॉ मौसम है अब, सांझ कू जल्दी ठन्ड परन लागै है, अब जल्दी चले जाओ, अर सांझ कू जल्दी घर आय जइयों।"
पिता के आदेश को मानते हुए घासी और कल्लन ने शीघ्र ही कलेवा खाया और बैलों को लेकर रहट चलाने के लिए चले गए। दोनों ने कुएं पर पहुंचकर बैल रहट में जोड़ दिए और रहट चलानी शुरू कर दी । कुएं से पानी निकलना शुरू हो गया।
रहट, पुराने जमाने में कुएं से पानी निकालने का साधन था , टिन की चादर की कुछ चौकोर बाल्टियों को एक दूसरे से जोड़कर एक माला बनायी जाती थी। एक लोहे का लम्बा लट्ठा, जिसका एक सिरा कुएं के ऊपर बीचों-बीच दीवार पर फंसा रहता था। लोहे का एक चरखानुमा गोल घेरा लट्ठे में कुएं के बीचों-बीच कसा होता था । उसी चरखानुमा गोल घेरे पर बाल्टियों की माला पहना दी जाती थी, जो नीचे कुएं में पानी में डूबी रहती थी। लट्ठा के दूसरे सिरे में एक चकली लगी होती थी । चकली के ऊपर एक बड़ा चकला लगा होता था । दो मोटी लकड़ी व लोहे के पटरों को जमीन में गाड़कर दोनों को ऊपर से एक तीसरे पटरे से जोड़ कर एक मजबूत ढांचा खड़ा किया जाता था। , ऊपर वाले पटरे में चकला के धुरे को ऊपर निकाल कर लोहे की एक मोटी प्लेट से जोड़ दिया जाता था। जिसके ऊपर एक लम्बी, मोटी लकड़ी दो प्लेटो के बीच कसी रहती थी। जिसे पाट बोलते थे। पाट के बाहर वाले सिरे को एक मोटी रस्सी द्वारा बैलों के जुए में बांध दिया जाता था। ढांचे और कुए के बीच में इतनी दूरी होती थी कि बैल आराम से घूमते रहें। जैसे-जैसे बैल पाट को लेकर गोल-गोल घूमते थे वैसे-वैसे ही चकला घूमता और साथ में चकली को भी घुमाता, चकली के साथ लट्ठा और लट्ठे में कसा हुआ चरखा भी बाल्टियों की माला को साथ लेकर घूमता रहता था। जब बाल्टी पानी में से ऊपर को आती थीं तो पानी भरकर लातीं और कुएं के ऊपर बीचों-बीच रखे एक बड़े पात्र में उड़ेलती हुई खाली होकर एक-एक करके नीचे कुएं में जाती रहतीं और फिर पानी भरकर ऊपर आती रहतीं। बड़े पात्र से पानी नाली में चला जाता था, बस यही क्रम चलता रहता था, इसी को रहट कहते थे।
कल्लन बैल हांकने लगा। घासी फावड़ा कंधे पर रखकर खेत की तरफ चल दिया और खेत में जाकर पानी लगाने लगा। लगभग दस बजे होंगे, कल्लन को अपनी मां, हुलासो खाना लेकर दूर से ही आती हुई दिखाई दी। मां को खाना लेकर आते हुए देखकर कल्लन बहुत खुश हुआ क्योंकि भूख के मारे उसके पेट में चूहे उछल-कूद कर रहे थे।
हुलासो ने कुएं पर पहुंचकर घासी को खाना खाने के लिए आवाज लगाइ। घासी खेत से दौड़कर कुएं पर आया और खाना खाने लगा। घासी ने खाना खाने के बाद कल्लन को खाना खाने के लिए कहा और स्वयं बैल हांकने लगा। कल्लन को खाना खिलाकर हुलासो गांव आ गई और वे दोनों भाई पानी लगाते रहे।
करीब दो बजे होंगे, कि उनकी बीड़ी खत्म हो गईं। बीड़ी के बिना दोनों भाई बेचैन हो रहे थे। लेकिन क्या किया जाए, गांव दूर था । बीडी लेने के लिए गांव जाने में काफी समय लगता । इतना समय उनके पास नहीं था। रहट से करीब पचास मीटर की दूरी पर ही रास्ता चलता था , जिस पर दूर-दूर के लोगों का आवागमन रहता था। घासी ने सोचा, क्यों न रास्ते पर जाकर किसी राहगीर से बीड़ी मांग ली जाए। अब उसकी नजर रास्ते पर ही लगी हुई थी । कुछ ही देर में घासी ने देखा, रास्ते में कोई अनजान आदमी आ रहा है। उस आदमी ने भी उनकी रहट चलती देखी और पानी पीने के लिए वह कुएं पर ही आ गया।
घासी ने जब राहगीर को कुएं की तरफ आते देखा, तो वह भी कुएं पर ही आ गया। पहले तो राहगीर की उन दोनों से राम-रहीम हुई और फिर उसने पानी पिया। पानी पीकर उसने अपनी जेब से बीड़ी का बंडल निकाला और बीड़ी जलाई। बीड़ी जलती देखकर घासी की तलब और भी अधिक बलवती हो गई।
अपने पहनावे से वैसे तो वह राहगीर संपन्न दिखाई दे रहा था , पर शर्म के मारे घासी अपने लिए बीडी मांगने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। वह आदमी बीड़ी पीता हुआ चलने लगा, पर घासी बीड़ी नहीं मांग सका।
घासी और कल्लन , दोनों भाइयों के रंग-रूप और शरीर में काफी अंतर था। घासी गोरे रंग का हष्टपुष्ट था, कल्लन का रंग काला था और शरीर में भी कुछ हल्का था । अचानक ही घासी के मन में एक तरकीब सूझी ! उसने राहगीर से कहा -
"अरे भइया ! सुनियों !"
राहगीर घासी की बात सुनकर रुका, और बोला-
" हां भइया, बताओ!"
घासी ने राहगीर से कहा!
आज हमारे जा नौकर की बीड़ी खत्म ह्वै गईऐं। मैं बीड़ी पीऊं नाय हूं, जो याहै बीड़ी दै देतौ। जो भइया तुमारे धौरै बीड़ी होय तौ एक बीड़ी जा चूहरे के बी दै द्यो !"
यह सुनकर राहगीर अपनी जेब से बीड़ी का बंडल निकालते हुए बोला-
"हां भइया, बीड़ी हैं ! ल्यो, अबी तो तुम्हें य्हां ब्हौत देर काम करनौ है ! ल्यो , तुम एक ना, चार बीड़ी ले ल्यो !"
घासी ने उस राहगीर का बड़ा एहसान जताते हुए, उसका बड़ा गुणगान किया और कल्लन को डांटते हुए बोला -
"अपनी बीड़ी पूरी लै कै आयौ कर। आज तौ मैंने इनते दिवाय दईऐं।"
राहगीर तो बेचारा बीड़ी देकर अपने रास्ते की ओर चल दिया। कल्लन तुरंत ही बीड़ी जलाकर पीने लगा । घासी से तो उसने पूछा भी नहीं। घासी कल्लन से बोला -
"बीड़ी तो मैंने मांगीऐं अर मोते पूछी बी नांय है, आपहुं आप पिए जा रह्यौ है। कल्लन बोला -
"नौकर तौ मैं बनौ हूं, अर ऊं बी चूहरे कौ। वा आदमी नै मेरे लइयांई तौ बीड़ी दई हीं, मैं तोहै बीड़ी क्यों दऊं।"
यह सुनकर घासी अपनी धूर्तता को चतुराई का चोला पहनाते हुए बोला-
"भई मांगी तो मैंनैई हीं, मैं इतनी अक्लमंदी ते काम ना लेतौ, तौ तू बीड़ी कहां ते पीतौ ।"
यह सुनकर, कल्लन बोला -
" देख भई, बीड़ी तो अब मेरी हैं। अर चूहरे के ते बीड़ी मांग कै पीनौ एक बामन कू शोहै नाय है, यू तौ कहीं शास्त्रन में भी नाय लिखौ।"
घासी ने कहा -
"अब तौ तू मेरौ छोटौ भइया है ! तू मोहै बस बीड़ी प्याय दै। मोयै बीड़ी की ब्हौत तलब आ रईऐ!"
कल्लन ने घासी को धिक्कारते हुए बीड़ी दे दी और उसकी धूर्तता की कहानी गांव में जाकर सबको बतायी।