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उत्तम खेती मध्यम बान निषिद्ध चाकरी भीख निदान

उत्तम खेती मध्यम बान निषिद्ध चाकरी भीख निदान


एक जमाना था , जब विज्ञान की कोई चमक-दमक नहीं थी और न कोई औद्योगिक विकास ही हुआ था, तब खेती को उत्तम दर्जे का पेशा माना जाता था। उस समय खेती करने के लिए बड़ी-बड़ी मशीनें , जैसे - ट्रैक्टर, ट्राली, कंपास, कटर आदि नहीं थे और न ही सिंचाई के लिए इंजन और विद्युत नलकूप थे। यातायात के साधन रेल, हवाई जहाज, मोटर, कार, बाइक आदि भी नहीं थे, पैदल ही चलते थे या फिर घोड़े, ऊंट और बैलगाड़ी द्वारा यात्रा तथा माल की ढुलाई की जातीं थी। छोटे-बड़े सभी काम श्रमिकों और पशुओं की सहायता से ही कराये जाते थे। राजा हो या रंक, मजदूर हो या व्यापारी सबके काम की धुरी खेती ही थी। सभी किसी न किसी तरह किसान पर ही निर्भर रहते थे।
किसान के खेत में अच्छी लहलाती फसल को देखकर सभी का मन प्रफुल्लित होता था। मकर संक्रांति और लोहड़ी का पर्व इसी के प्रतीक हैं। मकर संक्रांति पर रबी की फसल अच्छी हरी-भरी लहलाती दिखाई देने लगती थी। गेहूं, जौ, जई में बालियां निकलनी शुरू हो जाती थीं और चना, मटर, मसूर, सरसों में फलियां बन जाती थीं। जिसे देख कर किसान, मजदूर, पशु-पक्षी व व्यापारी सभी के मन में उम्मीद की किरण चमकने लगती थी कि अब तो कुछ समय की बात है, फसल जल्दी ही आने वाली है। उस समय अनाज की बहुत कमी रहती थी। क्योंकि संसाधन न होने के कारण पैदावार का औसत बहुत ही कम रहता था।
अक्सर फसल पकने तक गांव में किसी-किसी के ही घर में अनाज रहता था। अधिकतर लोगों के घर में अनाज खत्म हो जाता था। फसल पकने का एक-एक दिन का इंतजार करते थे। उस समय शहरीकरण नहीं था, अधिकांश जनता गांवों में ही रहती थी। ऐसे समय में साहूकारों के भरोसे ही जिंदगी चलती थी। उनसे ही उधार लेकर गुजारा करते थे। फसल आने पर उनका कर्ज पटा देते थे। जब फसल पक कर तैयार हो जाती थी, उस समय मजदूर वर्ग घोर परिश्रम करके फसल की कटाई करते थे ताकि अधिक-से-अधिक अनाज इकट्ठा कर सकें।
व्यापारी वर्ग भी अपनी खास-खत्तियों में अधिक से अधिक अन्न का भंडार भर लेते थे, जिससे आगे चलकर अच्छा खासा लाभ कमा सकें।
उस समय सब कुछ प्रकृति पर ही निर्भर रहता था। यदि जाड़ों में वर्षा अच्छी हो जाती थीं तो फसल अच्छी होती थी। किसी प्राकृतिक आपदा, जैसे ओले-पाले या अनावृष्टि के कारण फसल में क्षति हो जाती थी तो हर वर्ग के मन में एक चिंता बन जाती थी कि अबकी साल कैसे कटेगी, कैसे अन्न की पूर्ति होगी। सबके मन में अकाल की आशंका बढ़ जाती थी। अकाल पड़ने पर कितने लोग भूख से मर जाते थे। राजा को भी बड़ी चिंता हो जाती थी कि जब पैदावार अच्छी नहीं हुई है तो लगान ही कहां से मिलेगा और जब लगान नहीं मिलेगा तो राज के काम में भी क‌मी आयेगी। देश की जनता और सेना को अन्न कहां से मिलेगा। देश की आर्थिक स्थिति व सैन्य शक्ति भी कमजोर पड़ जाएगी, क्योंकि उस समय किसानों और साहूकारों की वसूली से ही राज का सब काम चलता था।
मजदूर को भी अपने परिवार को पालने की चिंता हो जाती थी, क्योंकि मजदूर को उधार भी बड़ी मुश्किल से मिलता था, कि यह पटाएगा ही कहां से?
उस समय मजदूर की मजदूरी निश्चित नहीं होती थी और ना ही पैसों में दी जाती थी। मजदूर की मजदूरी फसल के हिसाब से ही दी जाती थी। मजदूर वर्ग के महिला-पुरुष सभी किसानों के यहां काम करते थे और वहीं से अपना पेट पालते थे। लुहार व बढ़ई खेती में काम आने वाले औजार, हल, जुआ, खुरपा व दरांती आदि बनाते थे। अहेरिया टोकरा, पलड़ा बनाते थे। चमड़े का काम करने वाले चमार खेती में काम आने वाली चमड़े की वस्तुएं बनाते थे। कुछ सेवा कर्मी भी थे, जैसे सफाई कर्मी सफाई करते थे। नाई बाल काटते थे व धींवर कुएं से पानी भरकर लाते थे और कुछ खानाबदोश जाति, नट कंजर आदि मांगने वाले, सभी फसल कटने की आस लगाए रहते थे।
जब फसल कटती थी, तब ये सभी लोग अपना-अपना रस्सा लेकर खेतों में पहुंच जाते थे और किसान, जैसा जिसका काम होता था, वैसा ही उन सबको लांक अर्थात कटी हुई फसल दे देते थे। जिसे गड्डी बांधकर सब अपने-अपने घर ले जाते थे। यदि लांक या लान थोड़ा लगता था , तो ये किसान से निवेदन करते थे -
"लंबरदार अबी तौ थोरौई है, थोरौं सौ और धर देऔ!"
किसान कह देता था -
"अरे भाई अबकै तौ फसल हल्की रह गई है। जब आगे कू जादै होयगौ, तौ जादै ले लीजों,। अब तौ याही में सबर करौ।"
रबी और खरीफ की दोनों फसलों में ऐसा ही होता था। रबी की फसल को मुख्य रूप से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता था क्योंकि खरीफ की फसल में अनावृष्टि अतिवृष्टि व खरपतवार का फसल पर बुरा प्रभाव पड़ता था। सब कुछ राम भरोसे पर ही रहता था। बीच-बीच में किसानों के यहां जो भी कुछ खेतों में पैदा होता था, फल, सब्जी, शकरकंद, गुड़, गन्ना, भूसा, हरा चारा सभी में सबकी इसी तरह भागीदारी होती थी। और अपनी हर आवश्यकता किसानों के यहां से ही पूरी करते थे।
बस यही तो था, जिस पर किसान अपने आप पर गर्व महसूस करता था कि इतने लोग मेरे यहां काम करते हैं और अपनी जरूरत के अनुरूप कुछ न कुछ मांगने के लिए आते ही रहते हैं। सब इतना सम्मान करते हैं कि दूर से देखते ही हाथ जोड़कर लम्बरदार कहकर राम-राम करते हैं। लम्बरदार के सामने सब मजदूर जमीन पर ही बैठते थे। बस इसी से तो लम्बरदार का सीना चौड़ा रहता था।
मैंने भी एक बड़े जमींदार परिवार में जन्म लिया था। अब तक गांव में भी शिक्षा का काफी विकास हो गया था । जब मैं पढ़-लिखकर बड़ा हुआ तो मैंने देखा, कि कुछ लोग , जो रोजगार की तलाश में गांव छोड़कर शहर में नौकरी करने के लिए चले गए थे , उनका रहन सहन, बातचीत करने का ढंग अब गांव के लोगों की अपेक्षा बहुत बदल गया है। उनकी जेब में अब हर समय पैसे भी रहते हैं और जब वे गांव में आते हैं, तो अपने घर वालों को रुपए भी लाकर देते हैं। जबकि गांव में तो पैसे का बड़ा अभाव रहता था।
उन लोगों से प्रेरणा पाकर मैंने भी अपने दादा जी से कहा -
"दादा जी , अब मैं पढ़ लिखकर बड़ा हो गया हूं। मेरा मन चाहता है कि मैं शहर में जाकर नौकरी करूं।"
मेरे दादा जी ने जब मेरे ये शब्द सुने, तो वे मुझ से बोले-
"अच्छा, तौ अब तू शहर में नौकरी करने कू जावैगौ। अपनौ काम तौ तोपै देखौ ना जाय। हमारे य्हां इतने आदमी काम करें हैं, अर तू शहर में जाकै दूसरेन की ताबेदारी बजायगौ। जब वहां कोई तोय डांटेंगौ, तौ शरम ना आबैगी। यामै हमारे घर की बदनामी की बात ना है। हमारौ अपने इलाके में कितनौ आदर-भाव करें हैं लोग। सब कहवंगे, कै तुम इतने बड़े जिमींदार हौ, तुम्हारे यहां सु कितने आदमी अपनौं पेट पालैं हैं अर तुम्हारौ बालक डोलै दूसरेन की नौकरी करतौ।
दादा जी की नसीहत के साथ बस, मैं गांव में ही रह गया और खेती करने लगा। उस समय खेती को सबसे उत्तम व सम्मानजनक माना जाता था। घाघ कवि ने कहा भी है कि -
उत्तम खेती मध्यम बान। निषिद्ध चाकरी भीख निदान।।
जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे ही सब कुछ बदलता चला गया। आज नौकरी को उत्तम माना जाने लगा है, और खेती तीसरे स्थान पर अर्थात निषिद्ध हो गई है, न सम्मान ही रहा और ना पैसा ही। आज तो खेती करने वाले लड़के की शादी के भी लाले पड़ जाते हैं। प्रत्येक लड़की वाला अपनी लड़की के लिए नौकरी वाला ही लड़का ढूंढना चाहता है, जबकि नौकरी करने वाले लड़के पर यदि जमीन भी ना हो, तो भी समय पर ही शादी हो जाती है। मैं एक बड़े जमीदार का बेटा था, मेरी शादी एक अच्छी पढ़ी-लिखी, सुंदर व सुशील लड़की के साथ हुई थी। जो एक उच्च कोटि के विचारों वाली अर्थात एक आदर्श चरित्र वाली लड़की मिली। मेरी शादी, जमीन को खेती करने के लिए नहीं, बल्कि संपत्ति मानकर ही हुई थी कि संपत्ति है, तो कुछ भी कर सकते हैं, कहीं भी रह सकते हैं। आज की युवा पीढ़ी में कोई भी खेती करना नहीं चाहता, सब शहर में रहना और नौकरी करना चाहते हैं।
पढ़ी-लिखी होने के कारण मेरी पत्नी भी बच्चों को शहर में पढ़ाना चाहती थी। किंतु, मुझे अपनी जमीन, घर-घेर आदि गांव की संपत्ति से इतना लगाव हो गया था कि मेरा मन खेती छोड़कर गांव से बाहर जाने को नहीं करता था। मैं पत्नी की बात को टालता रहा, एक दिन पत्नी ने कहा, जमीन को लगान पर उठा दो, और शहर में चलो, क्योंकि शहर जैसी शिक्षा गांव में नहीं मिलेगी। यहां तो आप बच्चों से भी खेती के काम में सहायता लेने लगोगे, जिससे उनकी पढ़ाई नहीं हो सकेगी।
आखिर कब तक टालता, वह दिन आ ही गया कि मुझे भी गांव छोड़ना पड़ा। समय को पहचानते हुए मुझे भी बच्चों के उज्जवल भविष्य के बारे में सोच कर उनके विचार से सहमत होना पड़ा। फिर तो मैं भी खेती छोड़कर, बच्चों को शहर में लेकर आ गया। जहां शिक्षा और संस्कार दोनों ही अच्छे मिलें, ऐसा स्कूल तलाश करके बच्चों का एडमिशन करा दिया। आज बच्चे पढ़ लिख कर अच्छी सर्विस कर रहे हैं। अब तो मेरी भी समझ में आ गया कि आज खेती उत्तम नहीं रही है।

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