कुर्सियां की वंश बेलि
मनुष्य का स्वभाव जन्म जन्मांतरों के कर्मों के अनुसार बनता है। कुछ गुण-दोष वंशानुगत भी आते हैं। जो किसी में कम, किसी में ज्यादा, पीढ़ी दर पीढ़ी आगे चलते ही रहते हैं और अनुकूल वातावरण मिलते ही वे पनप जाते हैं। तामसिक प्रवृत्ति के लोगों में सहनशीलता का अभाव होता है। ऐसे लोग अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को हानि पहुंचाने में जरा भी संकोच नहीं करते हैं। झूठ बोलने से लेकर चोरी, हत्या करने तक जैसे भी उनका स्वार्थ सिद्ध होता हो, वे कर डालते हैं।
"बचपन में मैंने अपने ताऊ जी हमारे एक पड़ोसी से कहते सुना था -
"रामसिंह तौ भैया बड़ौ ही कुन्हियां आदमी हौ। एक बेर काई सू तन्नक सी बात हो गयी, तौ वाय कभी ना भूलै हौ। ब्हौत देख जलनौ आदमी हौ, ऊ तौ काई बी आदमीयै देखकै ठंडो ना रहवै हौ। सबै मरौई चाहबै हौ, ऊं कभी यू ना चाहबै हौ कै कोई ढंग सू रोटी खा ले। हरदम वाकी बेईमानी में नीयत रहवै ही। कुनबा वारे सब वासु परेशान रहवै हे। जमीन जायदाद के बंटवारे पै लड़ते-लड़ते वाकी जिन्दगी लिकर गई। गनीमत एक रही बस, कै ऊ कुनबा के और आदमीन सू देही में हल्कौ हौ। हरदम वामें इतनौ जहर भरौ रहबै हौ कै वाकी कुछ पेस पड़ती , तो सबैई मार देतो। इतनौ बड़ौ जिमींदार होके बी मेंड़े काटतौई रहवै हौ। ऐसीई आदत सब बालकन मेंं है, बलराज तौ रामसिंह सू बी ज्यादा कुन्हियां है।"
रामसिंह के बेटे युवावस्था में आये ही थे , तभी रामसिंह बीमार हो गया। उस समय चिकित्सकों का अभाव होने के कारण बीमारी का उपचार न हो सका और रामसिंह की मृत्यु हो गई। राम सिंह के तीन बेटे थे। बड़े बेटे का नाम ननुआ था, बीच वाले बेटे का नाम बलराज, सबसे छोटे बेटे का नाम धनीराम था। बलराज लम्बा-ठाड़ा, बलशाली आदमी था। उन तीनों भाइयों में अपने पिता के गुण भरपूर मात्रा में थे, बलराज तो तीनों में सबसे ज्यादा खूंखार था। मजदूर तो उसके डर के मारे सब कांपते थे।
राम सिंह के मरने के बाद उसके तीनों बेटों ने घर का काम संभाला। तीनों बेटे झगड़ालू प्रवृत्ति के थे । रामसिंह के बेटों ने भी कुनबा वालों से लड़ना-झगड़ना जारी रखा। सभी लोग उनसे भयभीत रहते थे। आदमी का स्वभाव कभी बदलता नहीं है, पहले वह अपने स्वभाव के अनुसार अच्छा- बुरा बाहर करता है। फिर धीरे-धीरे घर में ही करने लगता है। एक कहावत है कि "अनीति, देर-सवेर, एक दिन वापस लौट कर घर में ही आती है"।
जब तीनों भाइयों की शादी हो गई , तो तीनों में बंटवारे की बात आ गई। बलराज ने अपने बल का खूब लाभ उठाया और दोनों भाइयों की अपेक्षा स्वयं बड़े हिस्से पर काबिज हो गया। उन दोनों भाइयों ने डर के मारे बलराज से कुछ नहीं कहा। बंटवारे में तीनों भाइयों में धनीराम सबसे ज्यादा घाटे में रहा।
एक दिन धनीराम ने ननुआ से कहा -
"भैया, हम तीनों भैया बराबर के हिस्सेदार हैं , तो फिर हम तीनों भईयान के हिस्सा बराबर के क्यों ना बांटे गए हैं? हमारे बटवारे ईमानदारी सू क्यों ना हुए हैं? सबसू ज्यादा घाटे में तौ मैं ही रह्यौ हूं, मेरौ हिस्सा तुम दोनों भैयान सू कम है, गांव में बी अर खेत में बी। मेरे संग तुम दोनों भैयान नै बेईमानी करी है। मोय भी बराबर कौ हिस्सा चइयै ना?"
"देख भई धनीराम, मैं या बारे में कुछ ना जानूं। बटवारे की बात तो तू बलराज सू ही कर। मैं वासू कहूं बी, तौ ऊ का मेरी मानैगौ? लड़ और पड़ैगौ।"
तीनों भाइयों के बच्चे भी धीरे-धीरे जवान हो गए। दोनों भाइयों के बच्चों की अपेक्षा बलराज के बच्चों में ईर्ष्या, छल-कपट और बेईमानी के गुण ज्यादा थे और वे शक्तिशाली भी थे।
अब बाहर वालों से लड़ना- झगड़ना छोड़कर तीनों भाइयों के बच्चों में आपस में ही बंटवारे को लेकर लड़ाई-झगड़े शुरू हो गए। कभी खेतों के बंटवारे को लेकर तो कभी घर-घेर के बंटवारे को लेकर लड़ते रहते थे। आपस में मारपीट मुकदमे बाजी भी होने लगी, पर बंटवारे नहीं हो पाए और लड़ाई चलती रही।
बलराज के तीन बेटे थे । बड़े बेटे का नाम फतह , दूसरे बेटे का नाम करण तथा तीसरे बेटे का नाम चुन्नी था। जब बलराज के तीनों बेटों की शादी हो गई तो फिर वे भी आपस में छोटी-छोटी बातों पर लड़ने-झगड़ने लगे। घर में हर समय कलह रहने लगी और न्यारे होने की बात ठन गई।
बलराज ने संपत्ति के चार हिस्से करके एक हिस्सा तो स्वयं, आपने ले लिया और तीन हिस्से, तीनों बेटों में बांट दिए। बलराज अपना हिस्सा लेकर अलग रहने लगा। परंतु न्यारे होने के बाद भी बड़ा बेटा फतह अपने पिता के प्रति पुत्र होने का दायित्व निभाता रहा। बलराज को भी फतह के प्रति पहले से ही दोनों बेटों की अपेक्षा कुछ ज्यादा लगाव था। फतह अपने पिता के काम में भी सहयोग करता रहता था। फतेह के बच्चे भी अपने दादी-बाबा के साथ काम करवाते रहते थे, बलराज फतह को यदा-कदा आर्थिक सहयोग कर देता था। इस बात से दोनों छोटे बेटे अपने पिता और फतह से बहुत ईर्ष्या करते थे। आखिर खून तो बच्चों में बलराज का ही था, जिसने सदा अपने भाइयों से बेईमानी करके ज्यादा ही खाया था। तो फिर बच्चौं में ही ज्यादा खाने की आदत क्यों नहीं आती। फिर तो चाचा-ताऊ का बंटवारा भूलकर, बलराज के तीनों बेटों में आपस में ही लड़ाई-झगड़े होने लगे।
बलराज के पोते भी जवान हो गए। संपत्ति के बंटवारे को लेकर आपस में लड़ते ही रहते थे। बुढ़ापे में जब बलराज बीमार हो गया तो बड़े बटे ने ही उसकी सेवा-सुश्रूषा की। छोटे बेटों ने तो यह कहते हुए अपना पीछा छुड़ा लिया कि -
"अरे माल तौ तैनै खायौ है याकौं, सेवा हम क्यों करें। जिन्नै याकौं माल खायौ है , अब सेवा बी उई करैगौ"।
अपनी संतान को इसी तरह लड़ते-झगड़ते छोड़कर, बलराज एक दिन स्वर्ग सिधार गया।
बलराज की मृत्यु के पश्चात बलराज के हिस्से की जमीन व छोटी-मोटी चीजों के बंटवारे को लेकर भी आपस में खूब लड़े-झगड़े। आपसी सहमति न होने के कारण घर-घेर के हिस्सा का भी बंटवारा नहीं हो सका था। घर में तीनों के रहने के लिए पर्याप्त जगह भी नहीं थी फिर मकान काफी पुराना हो चुका था जिससे बरसात के मौसम में तो बुरा हाल हो जाता था जब भी कोई एक घर बनाने की बात करता था तो बंटवारे को लेकर आपस में लड़ाई झगड़ा शुरू हो जाता था। इसी तरह काफी समय बीत गया, बच्चे भी जवान हो गए पर घर-घेर में रहने के लिए पर्याप्त जगह नहीं बन सकी। गांव के लोगों ने भी एक बार समझौता कराने का काफी प्रयास किया पर बात नहीं बनी। नए पुराने, सभी रिश्तेदारों ने भी समझौता कराने का भरसक प्रयास किया लेकिन किसी को भी सफलता नहीं मिली।
बलराज के दोनों छोटे बेटों की पत्नियां बड़ी बहादुर औरतें थी। अब लड़ाई की बागडोर दोनों औरतों के हाथ में आ गई। बड़े बेटे की पत्नी सज्जन महिला थी । वह लड़ाई झगड़े से दूर ही रहती थी। जबकि दोनों छोटे बेटों की पत्नियां अपनी पूरी बहादुरी के साथ, लाठी-डंडे लेकर लड़ती थीं। लड़ाई इतनी जबरदस्त होती थी कि एक दूसरे की चुटिया पकड़कर लड़ती-लड़ती रास्ते में आ जाती थीं। उनकी लड़ाई के चर्चे दूर-दूर तक फैल गए थे। आपसी बंटवारे न होने के कारण घर-मकान भी नहीं बन सके थे।
एक दिन दोनों वीरांगनाओं ने अपने अपने बल का प्रयोग करके मकान बनाने की ठान ली। एक ने मकान बनाने का सामान मंगाया, तो फिर दूसरे ने भी मंगा लिया और चिनाई का काम शुरू हो गया। दोनों पक्षों में तनाव बढ़ने लगा, दिन में एक दूसरे की चिनाई को रोक देते तो रात को बाहर के बदमाश बुलाकर चिनाई करवाने लगते। दोनों तरफ से यही सिलसिला महीनों चलता रहा, घर तो दोनों भाइयों के बन गये पर अभी लड़ाई खत्म नहीं हुई ।
एक दिन छोटे भाई चुन्नी का लड़का खेत जोत कर आया था । उसने अपना ट्रैक्टर घेर में लाकर खड़ा किया ही था कि तभी आकर करन की छोटी बेटी ने कहा-
"अरे, य्हां टैक्टर खड़ौ मत कर। यहां हमें लिकड़ने में परेशानी होवें है। अपने टैक्टर कू हटा यहां सू"।
लड़के ने भी आवेश में आकर कहा" -
"क्यूं हटाऊं ? ना हटाऊं ! तू का बिगाड़ लेगी मेरौ?"
इतना सुनते ही लड़की ने उसके गाल पर एक तमाचा जड़ दिया।
थप्पड़ खा कर, लड़का अपने घर चला गया और जाकर अपनी मां से शिकायत की। बेटे को थप्पड़ मारने की बात सुनकर मां को क्रोध आ गया और उसने अपने बेटी और बेटों से कहा-
"अच्छा , तौ चलौ घेर में । आज इन्हैं ही सुधार दें। चलौ सब, डंडा उठाऔ। उसनै मेरे बेटे कू थप्पड़ मार ही कैसै दियौ?"
करण बीमार होने के कारण घर पर ही था, उसका बाकी पूरा परिवार घेर में था। पूरा घेर खुला मैदान था। चुन्नी के परिवार ने जाकर झगड़ा शुरू कर दिया। बाहर का कोई भी आदमी उन्हें रोकने के लिए बीच में नहीं आया। उन्होंने आपस में कहा कि इनकी लड़ाई तो रोजाना ही होती रहती है। इनके बीच में जाना ठीक नहीं है। इतने ही जंगल से चुन्नी भी वहाऺ आ गया और मारपीट शुरू हो गई। करण का बड़ा बेटा बब्लू, जो थोड़ी दूर पर लकड़ी काट रहा था। शोर सुनकर उसने देखा कि लड़ाई हो रही है, वह दौड़कर आया और अपने चाचा चुन्नी के सिर पर लकड़ी काटने वाले औजार से एक के बाद एक, अनेकों वार कर डाले। बस फिर क्या था, चुन्नी के सिर से खून का फव्वारा छूटने लगा, सिर में बहुत सारे गहरे घाव हो गए। सारा शरीर लहूलुहान हो गया, देखते ही देखते चुन्नी धराशाई हो गया और प्राण पखेरू उड़ गए। बस फिर क्या था? लड़ाई झगड़ा तो सब बंद हो गया। भगदड़ मच गई और हाहाकार मच गया, चुन्नी का परिवार रुदन मचाने लगा। बात हवा की तरह दूर-दूर तक फैल गई । सभी वहां देखने के लिए इकट्ठे हो गए। गांव में चारों ओर सन्नाटा छा गया।
चुन्नी मर गया, यह जानकर, करण के परिवार में तो भगदड़ मच गई। घर में ताला लगाकर पूरा परिवार बहुत जल्दी गांव छोड़कर भाग गया।
थोड़ी देर में गांव में पुलिस आ गई और शव को पोस्टमार्टम के लिए हॉस्पिटल पहुंचा दिया गया। गांव में चारों तरफ पुलिस ही पुलिस दिखाई दे रही थी। पोस्टमार्टम होने के बाद पुलिस सुरक्षा में ही चुन्नी का दाह संस्कार कराया गया। महीनों गांव में पुलिस का पहरा रहा। करण का पूरा परिवार फरार चल रहा था।
थाने में हत्या की रिपोर्ट दर्ज की गई। रिपोर्ट में करण के परिवार के साथ, रंजिश के कारण फतह का नाम और ननुआ व धनीराम के लड़कों के भी नाम भी लिखवा दिये गये। यह खबर पाकर सभी गांव से भाग गए। पुलिस जगह-जगह छापे मार रही थी। महीनों बीत गए पर कोई मुलजिम हाथ नहीं आया। काफी भागदौड़ के बाद पुलिस को करण व उसके दोनों बेटों को गिरफ्तार करने में सफलता मिली। इसके बाद एक दिन पुलिस ने फतह को भी गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। पुलिस जांच करने में जुटी हुई थी, कई महीने में पुलिस-जांच पूरी हुई। पुलिस ने जांच में पाया कि करण के परिवार के अलावा सभी के नाम झूठे लिखवाए गए हैं। जब तक पुलिस जांच पूरी हुई, तब तक बाकी सभी लोग फरार रहे। अब धीरे-धीरे पुलिस ने निर्दोष लोगों के नाम निकाल दिए पर फतह का नाम नहीं निकल पाया। उसे करण के परिवार के साथ जेल में ही रहना पड़ा। कई महीने बाद जमानत होकर जेल से बाहर निकले। करण का बड़ा बेटा बबलू, जो चाचा का वास्तविक हत्यारा था, उसे छोड़कर बाकी और सभी की जमानत हो गई। इस लड़ाई में निर्दोष लोगों को भी काफी नुकसान उठाना पड़ा। करण की तो इस झगड़े में सारी जमीन बिक गई। पर बेचारे चुन्नी की तो जान ही चली गई।