एक विधवा और एक चाँद - 2 Neela Prasad द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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एक विधवा और एक चाँद - 2

एक विधवा और एक चाँद

  • नीला प्रसाद
  • (2)
  • आठवाँ दिन

    अंदर पूर्णिमा में बदलता जाता है चाँद!

    वे टहल रहे हैं। पेड़ों की छाँह भरे घुमावदार, साफ-सुथरे रास्तों पर, जहाँ पेड़ों से झरे पीले पत्ते बिछे हैं। अतीत सूख-झरकर नीचे बिछ गया है? मान्या पूछना चाहती है। अगले सेशन का समय हो रहा है। अजित कह रहा है-

    ‘हम अलग रास्तों पर निकल गए थे, पर नियति ने हमें फिर से मिला दिया। एक तुम - लहूलुहान दिल की विधवा; एक मैं - बिना विवाह, लंबे रिश्ते से गुजर, प्रेमिका से अलग हो चुका कुँवारा। तो वीराना झेल रहे, आधे- अधूरे जी रहे दो दिल अब मिलकर एक हो सकते हैं। हमारे दिल में फिर से फूल खिल सकते हैं... अंदर उदास-उदास सोया, मर-सा गया है जो, वह जी उठ सकता है।’

    मान्या की आँखों में सपने भरने लगे। उसे अपलक देखता अजित ठिठक कर रुक गया और पूछा- 'क्या मैं तुम्हें बाँहों में ले सकता हूँ?’

    ‘नहीं,’ वह फिर से दृढ़ता से बोलकर क्लास रूम की ओर मुड़ने लगी। उसकी आँखों में आँसू देख अजित ने रूमाल बढ़ाया, तो मान्या ने उससे रुमाल लेकर आँसू पोंछ लिए।

    उस रात मान्या को लगा जैसे किसी ने उसे बाँहों में कस रखा है। जोर आजमाइश करने पर भी वह निकल नहीं पाती। मर्दाने ताकत का यह इस्तेमाल बहुत लुभाता है। वह निकलने को जोर लगाती, अपेक्षा में हँसती है... वह ले लिए जाने के खेल में हार जाना चाहती है। उसने अचानक पाया कि वह तो ट्रेनिंग हॉस्टल के अपने कमरे में, बिस्तर पर अकेली आहें भरती रो रही है। फिर उसने आँसू पोंछकर घड़ी देखी। सिर्फ साढ़े नौ बजे थे। उसने घर फोन मिलाया।

    बेटे ने छेड़ा, ‘ठीक से पढ़ रही हो न ममा?’

    वह हँस दी। बेटे और बेटी से बातें करके कुछ क्षणों के लिए दिल हल्का हो गया।

    नवाँ दिन

    चाँद पिघलकर वज़ूद में समाता जाता है!

    अजित कुछ से कुछ होता जा रहा था मन में।

    वह उसका पिता था- उसके आँसुओं के प्रवाह को देखता, उसका दुख महसूसता, निदान खोजता।

    वह उसका पति था- बाँहों में लेकर शब्दों, स्पर्शों और आश्वस्ति भरी थपकियों से दुख पर मलहम लगाता।

    वह उसका पुत्र था- गुदगुदाकर हँसाने की भोली कोशिश करता, मानो हँसते ही दुख गल जाएगा।

    ‘मैं तुम्हारा पति नहीं हूँ’, वह फुसफुसाया, ‘इसीलिए चूमने तक नहीं देती- जैसे जूठी हो जाओगी!’

    ‘हाँ शायद।’ मान्या खोई- खोई-सी बोल रही है। ‘मैं स्त्री-पुरुष के रिश्ते को बहुत नाजुक, पवित्र समझती जीती रही हूँ। भावनाओं से जुड़ा कोई रेशमी अहसास, नाजुक डोर या पारदर्शी भंगुर-सा काँच, जिससे छेड़छाड़ उसे तोड़ सकता है। एक बार टूट गया तो फिर जोड़ने की कोशिश ही बेमानी है क्योंकि टूटी किरचों को जोड़ने की कोशिश बस हाथों को लहूलुहान करेगी, टूटा रिश्ता या टूटा दिल जोड़ न सकेगी।’

    अजित सहमति में मुस्कराया है।

    न पिता, न पति, न पुत्र - मान्या ने सोचा- अजित, तुम सिर्फ और सिर्फ एक पुरुष हो, जिसने मेरे अंदर सोई स्त्री को फिर से जगा दिया है। अपने जिंदा होने को भूल चुकी एक विधवा को याद दिला दिया है कि उसका भी एक दिल है- धड़कता, प्यार पाने को तड़पता, मचलता!! दिल पर पड़ी दुख की तमाम परतों को उघाड़कर रख देते पुरुष हो तुम, जो एक औरत के दिल की नंगी चाहतों का जश्न मना रहे हो!

    दसवाँ दिन

    अंदर बस चुकी चाँदनी में एकाकार है दिल!

    मान्या के दिल के अंदर बसे घर के पाँव निकल आए और घर दीवारों समेत दूर चला जाकर, एकदम से खो-बिला गया कहीं! घर में पति पहले से अनुपस्थित थे, अब वहाँ उपस्थित बच्चों का लिहाज भी नहीं रहा।

    घर की दीवारों के गल जाने और हवा हो जाने का जश्न मान्या मना रही थी। घर के हवा हो जाने से उसे बाहर की सुगंधित हवा सूँघने, उनमें साँसें लेने और दौड़ लगाने की पूरी आजादी मिल गई थी। अंदर- अंदर मन के बंधन टूट गए। लगा, वही हमेशा मन को बाँधे क्यों रहे, जब साथ रहते भी पति ने कभी नहीं बाँधा था!

    जब निकल ही आए उन दीवारों के पाँव, जिन्हें घर कहती थी, तो बे-आवाज गायब हो चुके घर से खुद को बाहर निकाल ले जाने का इंतजार कब तक करूँ? दीवारों के फिर से वापस आने, घर बन जाने के इंतजार में क्या एक ही जगह खड़ी रहूँ? कब तक एकाकी, नियति से लड़ती-जूझती विधवा बनी जीती रहूँ? क्यों न कह दूँ अजित से मन की बात? उसने मेरे दिल की मसली कली को जाने किस जादू से फिर से खिला दिया है। अब महकी-महकी जीती हूँ मैं! शादी से पहले जिंदगी में आए हर प्यार को, अपनाने की स्थिति नहीं बनती देख, अजित की तरह ही दिल पर पत्थर ऱख मैंने भी ठुकराया था। शादी के बाद मैंने अपना सारा प्यार पति पर लुटाया और बदले में उनसे धोखा ही धोखा पाया। वे प्यार के बदले सौंपते रहे सर पर अपनी नई-नई प्रेमिकाएँ! नए, अनूठे लगते हर सुगंधित फूल को सूँघा, फिर चल दिए आगे। किस्मत कि उन्हें नए- नए फूलों की कभी कमी नहीं रही। पत्नी थी तो घर की हर सुविधा-सुरक्षा थी, साथ ही बाहर नए फूलों की आसानी से आमद भी! फूल- जिनके बारे में वे जानते थे कि इनकी सुगंध स्थाई नहीं हो सकती, इतना घनीभूत भी नहीं हो सकती कि घर में बदल जाए!!

    अजित, मैं तुम्हें बहुत- बहुत चाहने लगी हूँ।

    एक मेरे पति- जो कभी मेरे नहीं हो सके; और एक तुम- इतने मेरे कि सालों तक किसी और को चाहने, उसी का हो जाने की कोशिश करके हार चुके, मुझे अपना लेने को इतने व्यग्र-उत्सुक!

    मुझे प्यार करने का हक है क्योंकि मैं एक विधवा का अभिशप्त जीवन जीना नहीं चाहती।

    सच्चा प्रेम लगातार प्रेम में बने रहने की एकरस अनुभूति है। उफान, इन्फैचुएशन(प्रेमोन्माद) और आकर्षण की लहर तो आती-जाती, लीलती, फिर पटक देती है। ऐसे भंगुर प्रेम की बजाय किसी शांत पानी की सतह पर आँखें मूँदे लेटे क्यों न गुजार दें जीवन!.. और वह शांत पानी, जिसमें भरोसे और विश्वास के कमल खिलते हैं, तुम हो सकते हो।

    ग्यारहवाँ दिन

    चाँदनी से पूरा जगमगा गया अंतस्!

    अजित, तुमने मरे हुए को जिला दिया। होठों पर अमृत की बूँदें धर दीं- थैंक्यू।

    सुबह सबों के साथ हॉस्टल से क्लास के लिए बाहर निकलते उसने कहना चाहा।

    प्रेम कभी बर्बाद नहीं करता, आबाद करता है। वह विध्वंस नहीं, सृजन है।

    लव इज कन्स्ट्रक्शन, नॉट डिस्ट्रक्शन।(प्रेम निर्माण है, विध्वंस नहीं।)

    कहते हैं न कि प्यार किसी के साथ से खुद को पूरा महसूसने का नाम नहीं, अपना पूरापन किसी और के साथ बाँटने का नाम है।

    पति प्यार के नाम पर भावनाओं की उन लहरों में समाए रहे, जिनके बिखरने पर टूटे भरोसे का कीचड़, टूटे विश्वास की सीपियाँ बिखरी मिलीं। वे प्यार के नाम पर जहरीले रिश्तों में उलझे मुझे लगातार तोड़ते रहे, अजित तुम भरोसे-विश्वास की जड़ जमाकर उस टूटे हुए को फिर से जोड़ोगे।

    बारहवाँ दिन

    अंदर उगे सवालों के काले बादल चाँद को ढक रहे हैं।

    शाम है। सब बाजार में भीड़ किए खड़े हैं। इस शहर आए हैं तो पत्नी-बच्चों के लिए कुछ लेकर ही वापस जाएँगे।

    ‘तुम कुछ लोगी?’ अजित पूछ रहा है।

    मान्या वहाँ है ही कहाँ! वह तो अजित से सटी-सटी किसी दूसरी दुनिया की सैर पर है।

    अजित अब बच्चों की बात पूछ रहा है।

    मान्या बताकर खुश हो जा रही है।

    पूरी तरह खुद पर निर्भर, नन्हीं-सी जानों को बढ़ते, विकसित होते, खिलते-हँसते देखने का सुख, सिर्फ निज के सुख में डूबा, पत्नी-बच्चों को भाड़ में झोंककर बाहर प्यार कर रहा कोई स्वार्थी पति क्या जाने? क्या जाने किसी से भरोसा और विश्वास नहीं तोड़ने का सुख! बच्चों ने उसे बचा लिया, वरना...

    वह विस्तार से बता रही है बेटे और बेटी की बातें; उनके सपने, कारस्तानियाँ, माँ पर भरोसा.. माँ से दोस्ताना रिश्ता। कैसे वे माँ को जब-तब दुख से उबार हँसा देते हैं। वे झिलमिलाता भविष्य हैं, जो मान्या को बाँधे रखते हैं।

    अजित बहुत दिलचस्पी से सुन रहा है। अजित की दिलचस्पी उसे अपना लेने की बात पर मुहर लगाने की बजाय मान्या के मन में दुविधा जगा रही है। क्यों? वह समझ नहीं पाती! क्या वह बच्चों को किसी से बाँटना नहीं चाहती? वह बच्चों और अपने बीच किसी को आने देना नहीं चाहती? इतना प्यार करने वाले अजित को भी नहीं??

    मान्या की वह दुनिया जिसमें अजित पूरी तरह समाया हुआ था, अनचाहे दरकने लगी।

    खोना, छोड़ देना ही कई बार असली प्यार है - क्या अजित सच कह रहा था?

    उस रात बार- बार जागती रही।

    आगा- पीछा सोचने को मजबूर करने, चेतावनियाँ देने वाला प्रेम क्या ओछा- छोटा प्रेम होता है?

    तेरहवाँ दिन

    चले मत जाना मेरे चाँद!

    साथ के बस दो दिन और।

    एक आज और एक कल।

    सपनों को जीने-पीने के बस दो दिन और... अड़तालीस घंटे। कितने सेकेंड?

    अजित एक झिलमिल-झिलमिल जादू है!

    दे दिया उसने खुद को पूरे का पूरा, साथ की कामना जता दी और करता जा रहा है मेरे जवाब का इंतजार।

    हताश हाल विधवा बने जीते लगता है कि जब मैंने जी ही नहीं, तो जिंदगी के इतने साल खत्म कैसे हो गए! मानो धन था कोई, जिसे नहीं खर्चे जाने की स्थिति में, जस-का-तस बने रहना चाहिए था। बढ़ना नहीं, तो घटना भी नहीं चाहिए था; पर वह अनजाने में बिन खर्चे ही खत्म हो गया।

    अजित, मुझे एक बार बाँहों में लेकर चूम लो - गहरे,गहरे!

    एक बार बाँहों में लेकर पिघला दो।

    बस एक बार, बस एक बार...पर अजित कहेगा - बस एक बार क्यों, बार-बार क्यों नहीं? सिर्फ आज क्यों, हर रोज क्यों नहीं?

    चौदहवाँ दिन

    दुविधा के जल में डूबता, गायब होता जाता है चाँद!

    मान्या के मन की दुविधा गहरी होती जा रही है। रिश्तों की कई डोरों से गोल- गोल, ऊपर से नीचे तक बँधी जीती रही है वह! डोरों के जाने कितने सिरे बाहर हैं, जिन्हें कई-कई हाथ पकड़े खड़े हैं- दो सिरे दोनों बच्चों के हाथों में, एक सिरा माँ, कई सिरे मित्रों-रिश्तेदारों-पड़ोसियों-पहचान के लोगों के हाथों में तो एक सिरा जैसे किसी जादू से अदृश्य पति के हाथों में भी! वे सब जो उसे प्यार करते हैं, उसे रिश्तों की डोर तोड़ डालने से रोक रहे हैं। प्यार नहीं करने वाले पति भी? मैं इतनी सारी मोटी- मोटी रस्सियाँ कैसे काटूँ?- मान्या सोचती है। क्या अजित मुझे लहूलुहान किए बिना, उन रस्सियों से अलग कर पाएगा जो अंदर- अंदर मेरे पूरे वजूद, मेरे मन को बाँधे हैं? क्या मैं अपने पूरे वजूद में रचे-बसे एक घर से अलग हो, कोई नया घर रच भी पाऊँगी?

    पंद्रहवाँ दिन

    गायब होते, अमावस्या में बदलते चाँद को पकड़कर रोक लो कोई!

    सुबह से उलझी थी। अजित से बात करने तक से बचती रही।

    अब रात हो गई।

    अब कहना होगा।

    कोई फैसला लेना होगा।

    आज रात आखिरी बार मिलेंगे या कि अब हर रात मिलेंगे?

    कल सुबह उड़ जाना है अपने बसेरे, इसीलिए तो अजित दरवाजा खटखटाकर उसे थोड़ी देर नीचे लॉन में पड़ी कुर्सियों पर चल बैठने का निमंत्रण दे रहा है। वह वहीं तो थी- कुछ देर पहले तक!

    जागी हुई है, तो इनकार क्या करना!

    ट्रेनिंग हॉस्टल की ये आखिरी यादगार रात, साथ-साथ जीते हुए, कर लेते हैं दिल की अनकही बात!

    सबकुछ छोड़, हर बंधन तोड़ इस चाँद को अपना लेने, अपना जीवन सजा लेने की चाहत की बात?!

    प्रेम क्या हमेशा नियति के विरूद्ध एक हारी हुई लड़ाई है?

    पा लिया, तो भी किसी अधूरेपन से जूझते, और-और माँगते रहे, नहीं पाया तो अधूरापन लिए, पूरेपन की चाह में भटकते रहे, भटकते रहे??

    क्या पति का कहना सही था कि मैं उन रद्दी लोगों में से हूँ, जो प्रेम कर ही नहीं सकते? प्रेम-पत्र लिख ही नहीं सकते? सचमुच??

    नहीं, मैं तो प्रेम करने और अपना कर आगे बढ़ जाने की हिम्मत जुटा सकती हूँ!

    कुछ चमकीली चाहतें हैं, जो आगे खींचती हैं।

    कोई डोर है, जो पीछे खींचती है।

    कुछ सवाल उग रहे हैं मन में।

    अजित से प्रेम सृजन के साथ विध्वंस भी ला सकता है- मान्या को सुख देकर, उसकी जिंदगी से जुड़े, उसे प्रिय कइयों को दुख दे सकता है, तब भी वह अपनाने लायक है क्या?

    किसी ने उसे अपने अंदर ही थप्पड़ मार दिया। क्यों नहीं, क्यों नहीं आखिर? पति ने कभी सोचा था यह? हर बार बिना गिल्ट, पत्नी-बच्चों की भावनाओं, सुविधा-असुविधा, मान-अपमान का खयाल किए बिना चल पड़ता रहा न निज सुख की खोज में?

    आखिर कब तक अपनी ही लाश उठाए जीते रहें अभिशप्त जीवन??

    क्रमश..