एक विधवा और एक चाँद - 3 - अंतिम भाग Neela Prasad द्वारा महिला विशेष में हिंदी पीडीएफ

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एक विधवा और एक चाँद - 3 - अंतिम भाग

एक विधवा और एक चाँद

  • नीला प्रसाद
  • (3)
  • ये चाँद कोई भ्रम तो नहीं!

    अजित और मान्या कुर्सियों पर बैठ गए- आमने-सामने।

    ओह! अजित उसके ठीक बगल में उसका हाथ अपने हाथों में लेकर क्यों नहीं बैठता?

    कुछ पलों की चुप्पी जब सीने पर रखा पहाड़ बन जाए तो बोलना पड़ता है।

    मान्या की आवाज किसी दूसरी दुनिया से जबरन खींच लाई गई। वह अब भी खोई-सी थी।

    'कुछ कहना चाहती हूँ अजित!'

    अजित की मुस्कराहट ने हामी का संकेत दिया, तो मान्या ने हिम्मत जुटाई-

    'दो आत्मनिर्भर लोगों के साथ में, मेरे जाने- सिर्फ और सिर्फ दिल का रिश्ता होता है, जो उन्हें बाँधे रख सकता है। अगर पति का दिल कहीं और उलझा हो, जानते- बूझते पत्नी का दिल तोड़ता, उसका मान नहीं रखता हो, तो विवाह का रिश्ता मर जाता है और पत्नी, पति के जीवित रहते भी अहसासों में विधवा हो जाती है- जैसे मैं हो गई हूँ।'

    वह एक पल रुकी कि अजित कहीं चौंका तो नहीं! पर वह चौंके बिना, सिर्फ कानों से नहीं, आँखों-अहसासों-साँसों-रोमछिद्रों तक से सुन रहा था- एकाग्र! मान्या आश्वस्त होकर आगे बोली-

    'ऐसे घर में रहती हूँ जहाँ पति होते हुए भी नहीं है- मानो वह मर चुका है पत्नी के लिए... और पत्नी की नियति कि वह मरे हुए रिश्ते की लाश सर पर उठाए विधवा बनी जीती रहे! आदित्य से विवाह मेरा फैसला था, इसीलिए विवाह की कठिनाइयाँ, उलझनें, तमाम सुख- दुख, मुझ अकेली के ही हुए! अब ऐसे विधवापने की बात किससे-कैसे कहती, कौन समझता? और जब कहा ही नहीं, तो साथ रोता कौन? तुम मेरे सखा, तुम वह- जो सोच में मेरा ही आईना- इसीलिए कह पाई तुमसे... तुम समझ रहे हो न! आदित्य जाने शैतान है या देवता कि अपनी किसी भी करनी का उस पर कोई असर ही नहीं होता। वह मेरी भावनाओं का खून भी करता है तो बिना किसी पछतावा! उनका चेहरा हरदम मुस्कराता रहता है। उसे मेरा कुछ नहीं छूता - दुख-दर्द, मान-अपमान, शारीरिक-मानसिक-भावनात्मक तकलीफें… कुछ भी नहीं!! इसके उलट प्रेमिका के दुखों की आशंका तक उसकी आँखें नम कर देती है। प्रेमिका के आँसू उसे सोने नहीं देते...उसके प्यार की प्रतीक्षा मेरी, पर उसका प्यार किसी और का... मेरे हिस्से घर-गृहस्थी और उसके हिस्से प्रेमिकाओं के प्रेम-पत्र...रातों का इंतजार मेरा और उसकी रातें किसी और के खयालों को समर्पित! मैं उसके साथ रहती हूँ, पर न उससे प्यार कर पाती हूँ, न घृणा। झूलती रहती हूँ प्यार और घृणा के बीच। ये विधवापन मेरे व्यक्तित्व में ऐसे समा गया है कि मैं...

    इसीलिए जब तुम मिले और तुमने उड़ेल दिया इतना सारा प्यार मुझ पर, तो मैं कुछ से कुछ हो गई। मैं पूरी तरह तुम्हारी ही हो जाना चाहती हूँ अजित! मैं बच्चों और तुम्हारे साथ फिर से जिंदगी जीना शुरू करना चाहती हूँ, पर अंदर कुछ है जो बाधा बन रहा है। पहले लगता था कि अपनाए जाने के इंतजार में खड़ा एक दिल हूँ, फिर से सधवा होने के इंतजार में खड़ी विधवा; पर अब जब तुम मिल चुके तो मन में ऐसे सवालों से घिर रही हूँ, जिनके जवाब मुझे मालूम नहीं।

    क्या घर छोड़ दूँगी तो कल को बच्चे मुझसे ये पूछेंगे कि मैंने अपने, सिर्फ अपने सुख के लिए घर क्यों छोड़ दिया? या नहीं छोड़ूँगी तो ये कि क्यों सहती रही सबकुछ और तब भी घर छोड़ क्यों नहीं दिया??

    अजित, मैं सारे बंधन तोड़कर तुम तक आना चाहती हूँ, मैं तुम्हें अपना लेना चाहती हूँ...'

    लगातार बोल रही मान्या अचानक से चुप हो गई, तो अजित उठकर खड़ा हो गया। बेचैनी में टहलने लगा। नम आँखें लिए, बिना कुछ बोले सीढ़ियों की ओर बढ़ चला।

    अजित अब सीढ़ियाँ चढ़ रहा है। जवाब दिए बिना लौटकर जा रहा है। मान्या की साँसे रुक गई हैं।

    चाँद हकीकत था!

    अजित मुड़ा। वह सीढ़ियाँ उतरता वापस आ रहा है। वह आँसू पोंछकर ठंढी साँसें लेता मुस्कराया है। मान्या की साँसें वापस आ रही हैं।

    अजित की मुस्कान पारदर्शी है।

    'तुम संकोच में हो मानो तुमने कोई तथ्य छुपाया पर अब मजबूरी में उस रहस्य का खुलासा करना पड़ रहा है...पर नहीं मान्या, मैं तो पहले दिन से संदेह में था, और वह संदेह दिनों- दिन पुख्ता होता जा रहा था। बिना किसी विवाह चिह्न, सादी साज-सज्जा तो तुम्हारी पुरानी धज है पर पिछले पंद्रह दिनों से तुम्हारा हर आचरण चीख-चीखकर कह रहा था कि तुम्हारा मन कहीं बँधा है, तुम लड़ रही हो खुद से, उस बंधन से बाहर आ पाने को... अपनी सारी रूमानियत, मुझे पाने-छूने की इतनी सारी अनकही कोशिशों के बावजूद सफल नहीं हो पा रही हो.. कोई है जो आड़ बनकर सामने आ खड़ा होता है और तुम अपनी चाहतों को परदे के पीछे कर लेने को मजबूर हो जाती हो। पर सोचो कि तुम्हारा मन अगर तुम्हें अपनी एकनिष्ठता बनाए रखने को उकसाता है तो इस नैसर्गिक गुण पर शर्मिंदा क्यों होना चाहिए तुम्हें? तुम तो किसी भी पुरुष के लिए प्राइज़ कैच हो मान्या... आश्चर्य कि तुम्हारे पति ने तुम्हें मान देने की बजाय तुमसे धोखा किया।

    … और रही मेरी बात, तो मैं इस हारी हुई, परिस्थितियों के आगे समर्पण कर चुकी मान्या को नहीं अपना सकता। इस मान्या को मैं पहचानता तक नहीं! मैं तो उस मान्या को प्यार करता हूँ, जो परिस्थितियों के आगे घुटने टेक बैठ नहीं जाती, अपनी जिंदगी पर अपना अधिकार छोड़ती नहीं। आश्चर्य कि तुम सालों से चुपचाप सहती रही! तुमने आदित्य को उसकी जगह दिखा क्यों नहीं दी? कह क्यों नहीं दिया कि वह शादी में बना रहता यह नहीं कर सकता- उसे चुनना ही होगा, शादी में पत्नी का प्यार या शादी छोड़कर बाहर कहीं प्यार... या तो तुम्हारा सही अर्थों में साथ, या अलगाव! जता क्यों नहीं दिया कि बेवफाई सहते, साथ रह जाने वालों में तुम नहीं!

    ... तुम अब भी मुझतक आ सकती हो। तुम्हारा मेरी जिंदगी में हमेशा स्वागत है, पर शादी के रिश्ते को सुलझाकर सही परिणति तक ले आने के बाद! अगर तुम आदित्य को उसकी सही जगह दिखा देती, उसे छोड़ने का फैसला मुँह पर सुना चुकी होती, तो बाँहें पसारकर बच्चों समेत तुम्हें अपना लेता!! पर एक उलझी स्थिति नहीं सुलझा पाने के कारण दुविधाग्रस्त मन से, जाने कितने उलझे तार मन-ही-मन आदित्य और अतीत से जोड़े-जोड़े तुम मुझ तक आओगी तो पूरे मन से नया रिश्ता कैसे बनाओगी? और ऐसी कोशिश तुम्हें करनी ही क्यों चाहिए?

    प्यार छीनकर नहीं लिया जा सकता पर न्याय लिया जा सकता है।

    आज रिश्तों के फैसले की रात नहीं, आज ताकत बटोरने, फैसला करने का निर्णय ले लेने की रात है। मैं तुम्हें ताकतवर देखना चाहता हूँ, जैसी कि तुम अतीत में रही हो। इस निर्णयदुर्बल, भावनात्मक रूप से कमजोर मान्या से मेरा कोई परिचय नहीं है। तुम फिर से वही मान्या बनकर मेरे सामने आओ, जो मुझे अपील करती रही है। वह मान्या कोई अन्याय नहीं सहती... वह अपने फैसले बिना दुविधा लेती है।

    मान्या, अब बंद करो ये रोना-धोना..ये आत्मदया और प्रताड़ित जीवन वाली स्क्रिप्ट बदल डालो यार! एक बार मजबूत बनकर आदित्य को उसकी सही जगह दिखा दो। लिव टु योर ट्रू सेल्फ ( अपनी आंतरिक स्व को पहचानो) ...तुम यह कर सकती हो।

    उसे खींचकर सही राह पर वापस ले आओ या फिर धक्के देकर बाहर का रास्ता दिखाओ। भाड़ में जाने दो, अपनी जिंदगी अपने तरीके से जिओ, छोड़ो इस स्यापे को… और फिर पति के प्यार के सिवा भी तुम्हारी जिंदगी में इतना कुछ तो है जो तुम्हें खुशी दे सकता है! तुम बहुत सारे गुणों से भरपूर महिला हो। आश्चर्य, कि तुम्हें कुछ नजर ही नहीं आता? सुना नहीं है तुमने -'और भी गम हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा..'

    अजित ने कुछ क्षणों के मौन के बाद पास आकर मान्या का कंधा थपथपाते मुस्कराकर कहा।

    'पगली, तुम्हारी दुविधा मैं समझता हूँ। जो किसी और का हो, उसे छल से छीनकर अपनाने या हड़पने की नीयत नहीं रखता। बँटे मन से पास आने वाले का स्वागत भी नहीं कर पाता..पर मैं इंतजार को तैयार हूँ। अगर आदित्य ने अलग होना ही उचित समझा तो रोकना मत, बिना किसी दुविधा मेरे पास चली आना; पर अगर उसने सबकुछ छोड़ तुम्हारे पास लौटने, तुम्हें फिर से सही अर्थों में अपना लेने का फैसला किया तो सिर्फ इस कारण मेरे पास मत चली आना कि मैं इंतजार में हूँ। उस स्थिति में तुम्हारी खुशी ही मुझे सुख में इतना सराबोर कर देगी कि मैं यह सोचूँगा तक नहीं कि तुम मेरी क्यों नहीं हो पाई!

    चलो, वादा करो कि जिस काबिलियत से ऑफिस के काम करती हो, उसी काबिलियत से अपनी जिंदगी भी मैनिज कर लोगी। फिर से लिखोगी अपनी जिंदगी की कहानी और अगली बार जब हम मिलेंगे तो आँसुओं की धार की जगह अपनी हँसी के फव्वारों से मुझे नहलाओगी। अभी घर जाओ और अच्छी तरह सोचो। ट्रीट योरसेल्फ वाइज़ली, यू डिजर्व इट।(खुद से अच्छा बर्ताव करो, यह तुम्हारा पावना है।) ये रोने-धोने, जिंदगी को स्यापे की तरह जीने की स्क्रिप्ट अगर खुद या बच्चों के लिए नहीं बदल सकती, तो मेरे लिए बदलो यार!! मैं तुम्हें तुम्हारी सारी दुनिया, सारे दुखों-सपनों समेत अपना सकता हूँ, पर तुम्हारे सुखों की खातिर तुम्हें अपनी ही दुनिया में छोड़ देने को तैयार भी हूँ- देअरफॉर आई डिजर्व दिस ऑनर (मैं इस इज्जत का हकदार हूँ) ...' वह गहरी आँखों से मुस्कराता उसे देख रहा है।

    चाँद लुभाता है!

    'चलो उठो, आँसू पोंछो और मेरे पास आओ' अजित ने कहा और मान्या को उठाकर एक पेड़ की छाँह में बाँहों के घेरे में ले लिया।

    मान्या खुले दिल से उससे लिपट गई। फिर कुछ क्षणों के बाद मुस्कराकर बोली -

    'तुम्हारी परफ्यूम मुझे बहुत पसंद है। आदित्य को पता है कि मैं सुगंध की दीवानी हूँ, पर कभी परफ्यूम नहीं लगाता। अब तो खैर कभी मुझसे बात करता या मुझे छूता तक नहीं। आदित्य के साथ रहती बूढ़ी हो जाना मेरी ख्वाहिश रही पर उसने...और एक तुम मिले, जो मुझे ले लेने की बजाय कहते हो कि...' अजित भी मुस्करा रहा है। मान्या ने फुसफुसाकर कहा- 'क्या तुम्हें पता है कि तुम कितने खूबसूरत हो? तुम्हारा साँवला-बलिष्ठ शरीर, साफ दिल, सोच, समझदारी.. सब कॉम्प्लिमेंट देने के काबिल हैं अजित!'

    अजित ने अपने होंठ उसके होठों पर रख दिए तो मान्या ने मना नहीं किया। यह चुंबन, रिश्तों के किसी घालमेल के बिना लिया-दिया जा रहा था। इसका स्वाद, इसकी थरथराहट मान्या की जिंदगी में बस जाने वाली थी। अजित से यह मुलाकात, उसका प्यार, उसकी बातें मान्या का विवाहित जीवन बदल पाएँ या नहीं, भविष्य में कुछ कर गुजरने, अलग ढंग से सोचने-जीने को उसे उकसा जरूर रहे थे। जिंदगी अपने हाथों में ले लेने की चाह मन में फिर से उगने लगी थी। क्या सचमुच अजित से अगली मुलाकात तक वह मन से विधवा नहीं होगी? आदित्य को बदल नहीं भी पाए, तो खुद को बदल डाल अलग ढंग से खुशी खोजती, सुखी जिंदगी जी रही होगी??

    एक-दूसरे को स्पर्शों से सान्त्वना देते वे बहुत देर तक उस पेड़ की अँधेरी छाँह में एक-दूसरे से लिपटे खड़े रहे- दिल और जीवन सँभालने के नुस्खे पीठ पर हाथ फेरकर एक-दूसरे को थमाते, आँखों से मुस्कराते, चुप होठों से बोलते!!

    आखिरकार अजित ने बहुत सावधानी से उसे खुद से अलग कर दिया - मानो वह इतनी नाजुक है कि ताकत का थोड़ा भी इस्तेमाल उसे तोड़ डालेगा।

    खुद से कुछ इंचों की दूरी पर खड़ा करके उसकी आँखों में झाँकते अजित ने पूछा-

    'क्या तुम इस चुंबन की बात किसी को बताओगी?'

    'हाँ, अगर रिश्ते सुधर गए, तो आदित्य को शायद...' वह दुविधा के गलियारों से बाहर निकल, फिर से वहीं घुस जाती बोली।

    अजित हँसा और बिना कुछ बोले मुड़ गया।

    चाँद चला जा रहा है? नहीं, चाँद तो अपने अंदर है!

    सीढ़ियाँ चढ़ते, नजरों से गायब होते जाते उस चाँद को मान्या ने दूर से देखा और एक नई कसक से घिर आई। पूर्णिमा में बदल चुके इस चाँद को फिर से दूज का चाँद हो जाना था, पर अचानक वह किसी आश्वस्ति से घिर आई। चाँद तो पूरे का पूरा अंदर समा चुका था। धीमे कदमों से अपने कमरे की सीढ़ियाँ चढ़ती मान्या को लगा, कल सुबह हॉस्टल छोड़ते समय अजित से मिलना अब उससे हो नहीं पाएगा।

    (कथाबिंब: मई 2014)