चुनिंदा लघुकथाएँ - 5 Lajpat Rai Garg द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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चुनिंदा लघुकथाएँ - 5

लाजपत राय गर्ग

की

चुनिंदा लघुकथाएँ

(5)

शुभ मुहूर्त

पंडित रामकिशन मन्दिर में पुजारी की ड्यूटी निभाने के साथ पतरा बाँचने का काम भी करता था। अक्सर लोग उससे शादी-विवाह, गृह- प्रवेश का शुभ मुहूर्त पूछने अथवा अपनी जन्म-कुण्डली आदि दिखाने आते रहते थे।

मन्दिर में माथा टेकने के पश्चात् जब जगदम्बा प्रसाद आसन पर बैठे पंडित रामकिशन से चरणामृत लेने गया तो उसने देखा कि आमतौर सदा प्रसन्न दिखने वाले पंडित जी के चेहरे पर उदासी और मायूसी छाई हुई थी। उसके पंडित जी के साथ अनौपचारिक सम्बन्ध थे। जब भी वह मन्दिर आता था तो दस-बीस मिनट पंडित जी के साथ इधर-उधर की बातें करने में ज़रूर लगाता था। अतः उसने पूछा - ‘पंडित जी, बहुत उदास दिखाई दे रहे हो? बिटिया के विवाह के बाद तो वह बोझ भी हल्का हो गया। अब चिंता का क्या कारण है?’

जब कोई हमदर्द मिल जाता है तो आदमी अपना मन हल्का करने के लिये अपनी व्यथा उससे साझा करने में संकोच नहीं करता। इसलिये जगदम्बा प्रसाद के प्रश्न के उत्तर में पंडित जी ने अपनी व्यथा को शब्दों में ढालते हुए कहा - ‘लाला जी, बिटिया का विवाह ही मेरे दुःख का कारण है।’

‘वो कैसे?’

‘बिटिया कल ससुराल से आई है। जब से आई है, रोये जा रही है। उसका दुःख सहा नहीं जाता।’

‘पंडित जी, अगर मुझे अपना मानते हो तो बात खुलकर बताओ। हो सकता है, कोई हल निकल आये।’

‘भाई साहब, हम तो लुट गये। बिचौलिये पर विश्वास किया और रिश्ता तय कर दिया। अब बिटिया ने अपनी माँ को बताया है कि लड़का तो नपुसंक है। उसके घरवालों ने सब कुछ जानते हुए भी हमें बरबाद कर दिया।’

‘पंडित जी, आप तो खुद पतरा बाँचते हो, लग्न निकालते समय ऐसा कुछ समझ नहीं आया?’

‘भाई साहब, किस्मत में अगर दुःख बदा है तो ना पतरा ना कोई सयानप काम आती है। रामचन्द्र जी के राजतिलक का मुहूर्त तो वशिष्ठ जैसे महर्षि ने निकाला था ना!’

*****

बचपन का अहसास

रूपलाल का भरा-पूरा परिवार है, चाहे उसकी जीवनसंगिनी को गुज़रे हुए दो वर्ष हो गये हैं। परिवार में एक बेटा, पुत्रवधू, दो पोते तथा एक पोती हैं। रूपलाल सारी उम्र स्वस्थ चुस्त-दुरुस्त रहा, मगर पक्षाघात की वजह से वह कुछ समय से चारपाई पर पड़े रहने के लिये विवश है। दिन के समय जब उसका बेटा और बच्चे अपने-अपने काम-धंधे में व्यस्त होते हैं तो पुत्रवधू निम्मो ही उसकी सेवा-शुश्रूषा करती है।

रूपलाल को दोपहर का भोजन खिलाने के लिये निम्मो ने खाना बनाना आरम्भ किया। गाय के लिये रोटी बनाने के बाद एक चपाती सेंकी और तवे के नीचे बर्नर की लौ ‘सिम’ पर करके थाली में गर्मागर्म सब्जी-चपाती रखकर रूपलाल को खाना खिलाने के लिये उसके पास पहुँची। चारपाई पर लेटे रूपलाल को सहारा देकर बैठाया और अपने हाथ से एक-एक ग्रास करके खिलाने लगी।

खाना खाते हुए रूपलाल ने कहा - ‘बहू, एक बार में ही दो चपातियाँ ले आया कर। बार-बार तकलीफ क्यों करती हो?’

‘पापा जी, इसमें तकलीफ वाली क्या बात है! आपकी थोड़ी-सी सेवा से मुझे खुशी मिलती है। खाना तो मन-मुताबिक ही होना चाहिये। आप आहिस्ता-आहिस्ता खा पाते हैं। दो चपातियाँ इकट्ठी लाने से पहली खाते-खाते दूसरी ठंडी हो जाती है। इसलिये एक-एक करके ही लाती हूँ।’

‘निम्मो बेटे, मैं खुशनसीब हूँ कि तू मेरी बहू है। असल में, बेटे! मुझे तुझमें तेरी दादी-सास यानी मेरी माँ की छवि दिखाई देती है। बचपन में वह भी मुझे तेरी तरह ही अपने हाथ से रोटी के छोटे-छोटे कौर करके खिलाया करती थी। तुझे ऐसा करते देख मेरे बचपन की याद लौट आई है; मुझे बचपन जैसा अहसास होने लगा है।’

*****

लक्ष्मी

दो बेटियों के बाद श्रेया और सन्तान के हक में नहीं थी किन्तु अपनी पुत्रेच्छा के कारण रणवीर एक और चाँस लेना चाहता था। उसने बहुत-सी मन्नतें मानी हुई थीं, बहुत-से पीरों-पफकीरों के आगे मत्था टेका था। श्रेया का तर्क था, यदि इस बार भी भगवान् ने न सुनी तो फिर?

रणवीर ने उसे भरोसा दिलाया कि इसके बाद वह नियति स्वीकार कर बेटियों में ही बेटा तलाशने की कोशिश करेगा। सिर्फ अपने पति की इच्छा-पूर्ति हेतु श्रेया ने गर्भ धारण किया था। समय पर उसने तीसरी सन्तान के रूप में एक स्वस्थ सुन्दर बेटी को जन्म दिया। रणवीर ने उदास मन से नियति को स्वीकार कर लिया किन्तु श्रेया को किसी प्रकार की कमी का अहसास नहीं होने दिया। जिस दिन रणवीर के घर तीसरी बेटी ने जन्म लिया, उसी दिन शाम को उसके दफ्तर के सहकर्मी नवनीत जिसके दो पुत्र ही थे, ने उसे फोन पर बधाई देते हुए कहा - ‘रणवीर, एक और लक्ष्मी आने पर बधाई; लक्ष्मी की पूरी कृपा है तुम पर।’

न चाहते हुए भी रणवीर के मुख से निकल गया - ‘ऐसी लक्ष्मी तो दूसरे के घर आई हुई ही अच्छी लगती है। अपने घर तो खनखनाती लक्ष्मी का ही स्वागत होता है।’

*****

दोस्तों का दोस्त

अलग-अलग व्यवसायों में होते हुए भी प्रीतम और हरनाम में गहरी दोस्ती थी। एक दिन प्रीतम आकस्मिक हृदयाघात से चल बसा। हरनाम को बहुत सदमा लगा। किसी अपरिहार्य कारणवश वह प्रीतम की रस्म-पगड़ी में न जा सका था। अतः दो-तीन दिन बाद वह उसके घर गया। प्रीतम की पत्नी से रस्म-पगड़ी वाले दिन न आ सकने की क्षमायाचना के उपरान्त औपचारिक मातमपुर्सी की बातें जब हो लीं तो प्रीतम की पत्नी ने हरनाम से प्रश्न किया - ‘भाई साहब, आप शराब पीते हैं?’

‘नहीं।’

‘जुआ खेलते हैं?’

‘नहीं।’

‘रंड़ीबाजी करते हैं?’

‘नहीं।’

‘अगर आप ये सब नहीं करते तो फिर आप और प्रीतम में दोस्ती कैसे थी?’

‘भाभी जी, प्रीतम दोस्तों का दोस्त था।’

*****